Indian Philosophy of Life : ईश्वरीय बोध की अद्भुत आध्यात्मिक आभा ‘लाहिड़ी महाशय!’  

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Indian Philosophy of Life : ईश्वरीय बोध की अद्भुत आध्यात्मिक आभा ‘लाहिड़ी महाशय!’

 

डॉ मधुसूदन शर्मा

 

भारतीय जीवन दर्शन में मान्यता रही है कि आध्यात्मिक साधना के लिए सांसरिक जीवन का परित्याग करना अपरिहार्य है। तभी व्यक्ति योग व आध्यात्म की उच्च साधना करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है। लेकिन, आधुनिक युग में क्रियायोग को प्रतिष्ठित करने वाले आध्यात्मिक गुरू श्यामाचरण लाहिड़ी ने इसके विपरीत नये मानक स्थापित किए। आधुनिक समाज में सांसरिक जीवन जीते हुए भी एक मुक्त आत्मा के रूप में जीवन जिया। हालांकि, हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों और वैदिक साहित्य में इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजऋषि महाराजा जनक ने एक राजा के राजसी परिवेश में आध्यात्मिक रूप से उन्नत रहने की अपनी असाधारण क्षमता से अपार प्रतिष्ठा हासिल की थी।

लाहिड़ी महाशय का जन्म 30 सितम्बर, 1828 को भारत में बंगाल के घुरनी गाँव में हुआ था। कालांतर प्राकृतिक आपदा से उजड़कर उनका परिवार बनारस आ बसा। जहां उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। कालांतर वर्ष 1846 में उन्होंने काशीमोनी से विवाह किया। उनके दो बेटे टिनकौरी और डुकौरी और तीन बेटियां हरिमोती, हरिकामिनी और हरिमोहिनी थीं। उनके दोनों पुत्र संत माने जाते थे।आध्यात्मिक साधना के साथ उन्होंने पारिवारिक दायित्वों का बखूबी निर्वाह किया। ब्रिटिश सरकार के सैन्य इंजीनियरिंग विभाग में एक एकाउंटेंट के रूप में दायित्व निभाते हुए उन्हें पूरे भारत भ्रमण का मौका मिला।

तैंतीस वर्ष की आयु में, रानीखेत के पास हिमालय की तलहटी में एक दिन घूमने के दौरान वे अपने गुरु महावतार बाबाजी से मिले। यह उन दोनों का दिव्य पुनर्मिलन था। आशीर्वाद के जागृति उत्पन्न कर देने वाले एक स्पर्श से लाहिड़ी महाशय ईश्वरीय बोध की आध्यात्मिक आभा में डूब गए, जो सर्वदा उनके साथ रही। महावतार बाबाजी ने उन्हें क्रियायोग के विज्ञान में दीक्षा दी और सभी मन के शुद्ध और सच्चे साधकों को इस पवित्र तकनीक को प्रदान करने का निर्देश दिया। इस महान् उद्देश्य की पूर्ति हेतु लाहिड़ी महाशय अपने घर वाराणसी लौट आए।

कालांतर समकालीन युग में लुप्तप्राय: क्रियायोग विज्ञान की शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु के रूप में वे प्रतिष्ठित हुए। उन्हें उ19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आधुनिक भारत मे अत्यंत प्रभावशाली बीजरूपी योग के पुनर्जागरण में मौलिक भूमिका का निर्वहन करने वाले गुरु के रूप में प्रसिद्धि मिली। लाहिड़ी महाशय ने वाराणसी लौटकर समर्पित साधकों को क्रिया योग के मार्ग में दीक्षित करना शुरू किया। ख्यति बढ़ने पर बड़ी संख्या में लोग लाहिड़ी महाशय से क्रियायोग की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आने लगे। उनकी उच्च आध्यात्मिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए, उनके अनुयायियों ने उन्हें ‘महाशय’ कहा। जो एक संस्कृत में आध्यात्मिक उपाधि है। जिसका अर्थ है ‘बड़े दिमाग वाला’ है।

उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें योगिराज और काशी बाबा के नाम से भी संबोधित किया जाता था। उन्होंने कई अध्ययन समूहों का आयोजन किया और श्रीमद्भगवत गीता पर नियमित प्रवचन दिए। उन्होंने उस समय हिंदू, मुस्लिम और ईसाई सहित हर धर्म के लोगों को स्वतंत्र रूप से क्रिया की दीक्षा दी। वह भी उस दौर में जब जातिगत कट्टरता बहुत अधिक थी। उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने स्वयं के विश्वास के सिद्धांतों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया। जो वे पहले से ही अभ्यास कर रहे थे। उसमें क्रिया तकनीकों को भी जोड़ा। उन्होंने अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए सरकारी पद का दायित्व और क्रिया योग के शिक्षक के रूप में अपनी दोहरी भूमिका 1886 तक जारी रखी, जब तक कि वे पेंशन पर सेवानिवृत्त नहीं हो गए। इस समय तक अधिकाधिक साधक उन्हें देखने आने लगे। उन्होंने अक्सर अतिचेतन समाधि की नि:श्वास अवस्था का प्रदर्शन किया।

लाहिड़ी महाशय ने अपने जीवनकाल में कोई संगठन स्थापित नहीं किया। लेकिन, यह भविष्यवाणी की कि पश्चिम में योग के प्रति गहरी रुचि जागृत होने के कारण, मेरे संसार से विदा होने के लगभग 50 वर्ष पश्चात् मेरा जीवन परिचय लिखा जाएगा। योग का संदेश पूरे विश्व में फैल जाएगा। यह मनुष्यों में भाईचारे की भावना स्थापित करने में सहायक होगा, सबका पिता एक ही है, इस प्रत्यक्ष धारणा पर मानवता की एकता स्थापित होगी।’

लाहिड़ी महाशय की महासमाधि 26 सितंबर, 1895 को मां दुर्गा की महाअष्टमी पूजा के दिन हुई थी। जैसे ही उन्होंने भगवान के शाश्वत निवास में प्रवेश किया। उन्होंने कहा ‘जो लोग इस अमर क्रियायोग का अभ्यास करते हैं, वे कभी नश्वर नहीं होंगे और अनाथ नहीं होंगे। अमर क्रियायोग को प्राप्ति से इस दुनिया में जीवंतता का संचार होगा। भविष्य में यह घर-घर तक फैलेगा और मनुष्य धीरे-धीरे इस परम मुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ेगा। मानव जाति के लिए मुक्ति का मार्ग सदैव खुला रहेगा। भले ही मेरे जाने के बाद यह स्थूल शरीर भी नष्ट हो जाएगा, लेकिन गुरु सदैव आपके साथ विद्यमान हैं।’ लाहिड़ी महाशय की डायरियाँ, व्याख्याएँ, प्रवचन और अनुकरणीय जीवन के उनके ज्ञान आध्यात्मिक उपलब्धि के प्रमाण बने हुए हैं।