बैसाखी के सहारे पर टिकी भारतीय राजनीति

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बैसाखी के सहारे पर टिकी भारतीय राजनीति

महाराष्ट्र की राजनीति के कद्दावर नेता तथा एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने राजनीति के ठहरे जल में इस्तीफे का कंकर फेंककर हलचल पैदा कर दी। इसके राजनीतिक मायने चाहे कुछ भी हो, लेकिन उन्हें कुर्सी पर बिठाए रखने की कवायद ने एक यक्ष प्रश्न हाजिर कर दिया कि आज की राजनीति उस राजनीतिक परिभाषा से जुदा है, जो सही मायने में राजनीति का कारक हुआ करती थी। राजनीति की किताबें कुछ यूं बयां करती है कि राजनीति की कोख से ही राजनेता जन्म लिया करते हैं। लेकिन, आज हालात उलट गए। आज की राजनीति का जन्म राजनेता की कोख से होता है। जब इन राजनेताओं का रजोनिवृत्ति काल आरंभ होता है, राजनीति भी बांझ होकर रह जाती है।

यदि कांग्रेस का राजनीतिक इतिहास खंगाला जाए तो पता चलता है कि इसकी कोख से पं जवाहरलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी जैसे नेता अवरित हुए हैं। जनसंघ और उसके वर्तमान संस्करण भाजपा की कोख भी काफी हरी-भरी रही, जिसने अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेताओं को जन्म दिया। लेकिन, अब धीरे-धीरे राजनीति का यह चलन बदलने सा लगा है। पहले कभी राजनीतिक पार्टियों का रूतबा राजनीतिक नेताओं से ऊपर हुआ करता था। वहीँ अब राजनेता अपने राजनीतिक दलों पर हावी होने लगे। शरद पवार के प्रकरण से तो कम से कम यही साबित होता है।

देखा जाए तो आज के चंद नेताओं का रूतबा इतना बढ गया या यूं मानिए कि बढा दिया गया कि उनके बिना पार्टी का पत्ता तक नहीं हिलता। आज के कुछ दमदार नेता राजनीतिक दल के सहारे नहीं खडे, बल्कि राजनीति उनकी बैसाखियों पर टिकी है। बात केवल राष्ट्रवादी कांग्रेस की नहीं है। तमाम दलों की राम कहानी कुछ ऐसी ही है। कभी कांग्रेस को यह महारथ हासिल थी कि उसमें शामिल नेताओं का रूतबा उनके नाम और काम से नही बल्कि पार्टी के ठप्पे से जुड़ा था।

आज से पहले जितने भी कांग्रेसी नेता हुए वह कांग्रेस की टोपी पहनकर राजनीति में शीर्ष तक पहुंचे थे और उनकी हैसियत का आकलन भी पार्टी से ही होता था। अर्जुन सिंह , नारायण दत्त तिवारी और माधवराव सिंधिया ने जब कांग्रेस का दामन छोड़ा तो वह कटी पतंग की तरह इधर उधर मंडराते हुए जमीन पर आ लगे। लेकिन, आज हालत यह है कि देश की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित पार्टी सोनिया और राहुल की बैसाखी पर टिकी है। आज ये दोनों यह दोनो शिखर व्यक्तित्व भले ही पार्टी में किसी खास पद पर पर न हो, लेकिन पार्टी में इनका रूतबा पार्टी अध्यक्ष से भी ज्यादा है।

दूसरे दल जो किसी राजनीतिक विचारधारा का लबादा ओढकर व्यक्तिवादी परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं, पर उनका भी कोई आधार नहीं बचा। यह तमाम दल भी अपने अपने आकाओ की बैसाखियो को थामे डगमगा रहे हैं। कुछ दल जिनकी बैसाखियां टूट गई है, उनका हश्र दुखद रहा है। शिवसेना का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ। बाला साहेब ठाकरे के मजबूत कंधों पर टिकी सेना वंश परम्परा का शिकार होकर उद्धव ठाकरे की कमजोर बैसाखी का बोझ संभाल न सकी और वन बाय टू होकर रह गई।

भारतीय राजनीति में उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर जगह राजनीतिक बैसाखियों का ही बोलबाला है। इन बैसाखियों ने कम से कम यह यकीन तो दिला ही दिया है कि जब तक इन बैसाखियां में दम है, तब तक इन राजनीतिक दलों का वर्चस्व रहने वाला है। उसके बाद इन दलों की हालत आया-गया जैसी हो जाएगी। इसका खास कारण यह है कि आज राजनीतिक सिद्धांत बदल गए। राजनीति पर व्यक्तित्व हावी हो गए। इसकी कहानी इंदिरा इज इंडिया से शुरू होकर आप की ढाल केजरीवाल तक पहुंच गई।

यदि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृष्य देखा जाए तो कभी प्रदेश की सबसे मजबूत कहलाने वाली समाजवादी पार्टी जिसे मुलायम सिंह ने अपने पहलवानी हाथ से पुष्ट किया था, वह अखिलेश की कमजोर बैसाखी पर टिकी हुई है। पडौसी प्रदेश बिहार में बैसाखियों की यह भूमिका लालू यादव और उनके परिवार ने निभाई। इन दोनो प्रदेशों की राजनीतिक बैसाखियों ने यही प्रचारित किया कि उनकी बैसाखी में ही दम है, बाकी सब बेदम हैं। इसका अंजाम यह संभावित है कि यादव परिवारों का प्रभाव समाप्त होते ही समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय दल भविष्य के गर्त मे समा कर इतिहास बनकर रह जाएंगी। यह कोई अनहोनी नहींं होगी। दक्षिण की राजनीति में पूजे जाने वाले नेता एमजी रामचंद्रन, एनटी रामाराव और जय ललिता की पार्टियों की भी यही हालत हुई! 25 साल तक पश्चिम बंगाल की राजनीति ध्रुव रहे ज्योति बसु के बाद अब वामपंथियों का कोई नाम लेवा भी नहीं बचा।

पूर्व प्रधानमंत्री चरणसिंह की पार्टी ‘जनता पार्टी’ से राष्ट्रीय लोकदल बनी और अजीत सिंह की बैसाखी हटते ही धडाम से गिर गई। आज की राजनीति में जयंत सिंह और उनकी पार्टी का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा। कांशीराम और उनकी उत्तराधिकारी की बैसाखी पर टिकी बहुजन समाज पार्टी भी हांफ रही है। देश में सबसे ज्यादा वोट लेकर जीतने का रिकार्ड कायम करने वाले रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को भी चिराग पासवान की कमजोर बैसाखी ने शक्ति विहीन कर दिया।

झारखंड में भी झारखंड मुक्ति मोर्चा की यही कहानी है। शिबू सोरेब की बैसाखी के सहारे पल्ल्ववित यह पार्टी वैसे तो उनके बेटे हेमंत सोरेन की बैसाखियों पर टिकी हुई है, लेकिन इस बैसाखी को भी दूसरी पार्टियांं की बैसाखियों ने सहारा दिया। जिसके हटते ही इसका क्या हश्र होगा कल्पना की जा सकती है। ऐसा माना जा रहा है कि उडीसा में नवीन पटनायक की बैसाखी हटते ही उनकी पार्टी इतिहास में दफन हो जाएगी और पश्चिम बंगाल में ममता की बैसाखी हटते ही तृणमूल कांग्रेस की स्थिति भी कमजोर तिनके से ज्यादा नहीं रहेगी।

इतिहास गवाह है कि जब केतली चाय से गरम हो जाती है तब मुंह जले या न जले हाथ तो जरूर जल ही जाते हैं। आज की राजनीति की हालत भी कुछ ऐसी ही है। तो क्या यह माना जाए कि केन्द्र में सोनिया और राहुल की बैसाखी हटते ही कांग्रेस और उत्तर में फारूख- उमर अब्दुल्ला की बैसाखी हटते ही इन पार्टियों का केवल नाम ही रह जाएगा! यदि ऐसा कुछ होता है तो यह भारत की राजनीति के लिए कतई भी अच्छा नहीं होगा। क्योंकि, बैसाखी पर टिकी राजनीति के सहारे किसी भी देश का आधार कभी भी मजबूत नहीं हो सकता है।