भारत की कल्याणकारी योजनाओं से राजनीतिक लाभ पर कष्ट अनुचित

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भारत की कल्याणकारी योजनाओं से राजनीतिक लाभ पर कष्ट अनुचित

आलोक मेहता

भारत की राजनीति और आर्थिक नीतियों के बारे में जिन विशेषज्ञों को गंभीरता से सुना जाता है, उनमें भारतीय अमेरिकी रुचिर शर्मा का नाम सबसे प्रमुख है। मॉर्गन स्टैनली, रॉकफेलर कैपिटल मैनेजमेंट, ब्रेकआउट नेशन्स जैसी संस्थाओं में उनकी लंबे समय की भूमिका, वैश्विक बाज़ारों की गहरी समझ और भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर शोध-आधारित लेखन ने उन्हें एक प्रभावशाली विश्लेषक के रूप में माना जाता है | लेकिन बिहार चुनाव परिणाम आने पर उनकी प्रतिक्रिया मुझे अनुचित और दुखद लगी | रुचिर शर्मा ने कहा या लिखा है कि ‘ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास आर्थिक प्रगति को लेकर कोई नई सोच नज़र नहीं आती , फिर भी उनकी जीत अच्छा संकेत नहीं है | कई बड़े लोकतान्त्रिक देशों में जनता आक्रोश में आकर सरकारें बदल रही हैं , लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो रहा |’ यही नहीं उनका कहना है कि ‘ धीमी गति और विकास से ज्यादा कल्याणकारी योजनाओं को प्राथमिकता देने का जाल में फंसना भारत के लिए अच्छा नहीं है | ” वे इस स्थिति को “वेलफ़ेयर ट्रैप” (कल्याण-जाल) कहते हैं—जहाँ विकास की बुनियादी प्रक्रियाएँ धीमी हो जाती हैं और सरकार की प्राथमिकता केवल अनुदान, सब्सिडी और कैश-ट्रांसफर में सिमट जाती है।

रुचिर शर्मा अकेले नहीं हैं , अमेरिकी या यूरोपीय आर्थिक चश्मे से देखने वाले कई भारतीय विश्लेषक भी गरीबों को मुफ्त राशन , मकान , गैस , अपने रोजगार के लिए महिलाओं को दस हजार रुपए आदि दिए जाने को गलत बताते हैं | वे भारत की विशाल आबादी की सामाजिक आर्थिक स्थिति से अधिक पश्चिमी देशों की अर्थ व्यवस्था और मान दंडों को महत्व देते हैं | अमेरिकी रुचिर शर्मा चुनावों के दौरान एक टूरिस्ट की तरह भारत में घूमते , इंटरव्यू देते और लिखते हैं | वे या अन्य ‘ कल्याण कोपी ‘ अपनी टिप्पणियों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी या नीतीश कुमार सहित मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं | आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी भारत में किसी अमेरिकी या यूरोपीय की बातों , फैशन को ‘ आदर्श ‘ ‘ महान ‘ समझने की प्रवृत्ति पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है | अन्यथा रुचिर शर्मा सहित विदेशी विशेषज्ञों की राय के साथ इस तथ्य पर ध्यान दिलाया जाना चाहिए कि आधी दुनिया पर राज कर चुके ब्रिटेन में इस साल भी सरकार कम आय वाले लोगों के लिए लाखों घर बनाकर देने की घोषणा कर रही है | अर्धशिक्षित निठल्ले लोगों को 400 से 2000 पाउंड्स तक मासिक भत्ते दे रही हैं , कमजोर स्वास्थ्य सुविधाओं , डॉक्टरों , नर्सों की कमियों के बावजूद सभी ब्रिटिश नागरिकों को मुफ्त इलाज दे रही है | सिंगल मदर को बच्चों के पालन पोषण के खर्च का 85 प्रतिशत अनुदान देती है | किसानों को भी जमीन के आधार पर आवश्यक सब्सिडी और मुफ्त बीमा दे रही है |इसी तरह अमेरिका में मक्का , गेहूं , सोयाबीन , कपास , चांवल आदि पर किसानों को पर्याप्त सब्सिडी सरकार दे रही है | हर पांच साल में किसानों के नाम पर अरबों डालर के बजट प्रावधान का विधेयक संसद से पारित होता है | भारत में मोदी सरकार या राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें अपनी जनता की आवश्यकताओं के अनुसार सब्सिडी और सहायता तय करती है |

रुचिर शर्मा के अनुसार ‘ बिहार ने 2005 से 2015 के बीच एक प्रभावशाली विकास-दशक देखा था। सड़कें, कानून-व्यवस्था, स्कूलिंग और प्रशासनिक सुधारों ने राज्य को पहली बार लंबे समय की स्थिर वृद्धि दी।लेकिन उनके अनुसार 2015 के बाद राज्य एक नई चुनौती के दौर में प्रवेश कर गया—जहाँ विकास का ग्राफ स्थिर होने लगा और राजनीतिक विमर्श पूरी तरह कल्याणकारी राजनीति की ओर मुड़ गया।’ आश्चर्य है कि उन्हें पटना से लेकर कर्पूरी ग्राम समस्तीपुर , दरभंगा , गया , राजगीर नालंदा , भागलपुर में हुई प्रगति – सड़कें , दुकानें , स्कूल , मेडिकल कॉलेज , स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी , मधुबनी हाट और देश दुनिया में मधुबनी या भागलपुरी कपड़े की लोकप्रियता का लाभ नहीं दिखाई दिया | बिहार के मेहनती लोग अपने घर गाँव या दूर देस परदेस जाकर जो कमाई करते हैं , उससे भी गाँवों शहरों की तस्वीर बदल रही है | उनके जैसे विशेषज्ञ बदलाव को महत्व देने से पहले भष्ट राजनीतिक सत्ता और अपराधियों के वर्चस्व का अधिक उल्लेख नहीं करते | नीतीश ही क्यों ज्योति बसु , नवीन पटनायक जैसे मुख्यमंत्रियों ने तो 25 साल से अधिक राज किया | ईमानदार नेतृत्व का लाभ भी राजनीतिक दलों को मिलता है | अमेरिका या ब्रिटेन में सत्ता में आने वाली राजनीतिक पार्टियों की आर्थिक नीतियों में अधिक अन्तर कहाँ होता है ? राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जैसे नेता दो बार राष्ट्रपति चुन लिए गए , जो अपनी अदूरदर्शी नीतियों से पूरी व्यवस्था ठप तक कर देते हैं , हर तीसरे महीने खाने पीने की वस्तुओं पर टेरिफ बदलते रहते हैं |

मुझे पता नहीं रुचिर शर्मा कब अमेरिका में बसे , लेकिन मैंने 1987 में अमेरिका के हिस्पैनिक बहुल आबादी वाले इलाके का बुरा हाल देखा है | अमेरिका के सेन फ्रांसिसको शहर में आज भी भारत या अन्य देशों से आने वाले बिजनेस प्रोफेशनल्स को रात के समय बाहर कम निकलने और अपराध से बचने की एडवाइजरी दी जाती है | अति सम्पन्न देश के कुछ शहरों की बाहरी बस्तियों की सड़कों के किनारे या गाड़ियों में सोए सैकड़ों लोग देखे जा सकते हैं | लंदन में तो ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट पर भी पैदल चलते पर्स , मोबाईल छीने जाने का खतरा , घरों में बढ़ती चोरी , सुपर मार्केट जैसी दुकानों में घुसकर जरुरी सामान लुटे जाने पर अंकुश नहीं लग सका है | यहाँ बिहार ही नहीं दूर दराज आदिवासी इलाके में दिन दहाड़े मोबाइल या पर्स छीने जाने की घटना शायद ही कभी दिखाई देगी |

रुचिर शर्मा की यह बात जरुर सही है कि ‘ अभी भारत में सामाजिक पहचान और जाति-राजनीति पूरी तरह समाप्त नहीं होती—वह केवल रूप बदलती है।’शायद इसीलिए नरेंद्र मोदी जातिवादी व्यवस्था के बजाय विकासवादी व्यवस्था के लिए अभियान चला रहे हैं | दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति अपने ‘ श्वेत ‘ बंधुओं के हितों के नाम पर जी – 20 देशों के शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका नहीं गए हैं या आप्रवासियों पर आए दिन नए नियम कानून लाते रहते हैं | भारत में केवल अवैध रुप से रहने वाले लोगों की पहचान कर निकाला जा रहा है | अमेरिका ब्रिटेन की तरह मानव अधिकारों के नाम पर आर्थिक अपराधियों अथवा आतंकी संगठनों से जुड़े लोगों को रहने और अपनी गतिविधियां चलाने की सुविधा कतई नहीं दी जा रही है |

रुचिर शर्मा की यह बात एक हद तक सही है कि भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती रोजगार है और यह समस्या चुनावों के परिणामों को लगातार प्रभावित करेगी।लेकिन बिहार में राहुल गांधी , तेजस्वी यादव और प्रशांत कुमार ने बेरोजगारी का मुद्दा और रोजगार के अविश्वनीय लुभावने वायदे किए , लेकिन युवक भ्रम जाल में नहीं फंसे | असल में पिछले वर्षों के दौरान जागरुक शिक्षित युवा लाखों की संख्या में अपना काम धंधा या अन्य छोटे बड़े उद्यमों से जुड़ रहे हैं | हाँ , अभी कौशल विकास ( स्किल डेवलपमेंट ) के लिए चीन की तरह व्यापक कार्यक्रमों को विभिन्न राज्यों में क्रियान्वित करने की चुनौती बनी हुई है |