Instent yug:आज के युवा-काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
– वंदना दुबे
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।
हमारी गुजरती पीढ़ी कबीर के इसी सिद्धांत से पोषित होकर बड़ी हुई है ।धैर्य और समय की प्रतीक्षा तो प्रकृति ने भी अब तक हमें सिखाई है, पर दुर्भाग्य ये, कि प्रकृति के अत्यधिक दोहन-शोषण से, अब मौसम भी दिशाहीन हो गए हैं । जब प्रकृति ही भ्रमित हो गई है तब इंसानो की तो बात ही क्या ?
अब बेमौसम भी फसलें उत्पन्न की जा रही हैं। ये असंतुलन मनुष्य के स्वभाव में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है । आज का युवा शायद इस बात से भली प्रकार परिचित हो गया है. कि जो भी है वह वर्तमान है. और वर्तमान को भरपूर जी लेने में ही समझदारी है।
पहले जहाँ दरवाजे पर उधार मांगने आए व्यक्ति से इज्जतदार व्यक्ति पानी-पानी हो जाया करता था; वहीं आज उधार-लोन सामान्य शब्दावली हैं . और इसका संक्रमण इतना, कि क्या गरीब क्या अमीर, अंतर करना मुश्किल हो गया। कर्ज लेकर शानदार जिंदगी जीना अब शरम बात की बात नहीं बल्कि समझदारी मानी जाने लगी है।
जो युवा ऊँचे पैकेज पर नौकरियां कर रहे हैं,उनके काम करने के घंटे इतने अधिक हैं, कि न तो उनके पास ठीक से खाने का समय है और न ही सोने का। इस व्यस्त, थकान भरी, उबाऊ दिनचर्या ने उन्हे मशीनी और व्यवसायी बना दिया है ; फिर चाहे वह रिश्ते हों, भावनाएं हों या संस्कार ; सब कुछ पीछे छूट गए हैं ।
बच्चों को उच्च शिक्षित करने, उच्च पद और उच्च आय की चाह रखने की होड़ में अभिभावकों से जाने-अनजाने गलती तो हुई है।
बीता समय लौटकर नहीं आ सकता अतः समझौता अभिभावकों ने कर लिया है। बच्चों का जितना साथ और जितनी खुशी मिल पाए , वह अहोभाग्य !
आज की आर्थिक सम्पन्न, तकनीकी और व्यवसायिक ज्ञान के आधार पर पिछड़ी मान्यताओं को नकारती, आधुनिक होती युवा पीढ़ी के, सुर में सुर मिलाने के अलावा अब पुरानी पीढ़ी के पास शेष बचा ही क्या है ?
इन बातों से समझौता न कर सकने वाले स्वाभिमानी , एकाकीपन से ग्रसित वृद्धों की संख्या अब उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है ।
ऐसे में आज के युवाओं की –
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
वाली थ्योरी को स्वीकार करना हमारी विवशता है।
आज का युवा इतना फास्ट है कि पैसा फेंककर वह कम समय में अधिकाधिक खुशियाँ जुटा लेना चाहता है।
तब की खुशियाँ और अब की खुशियाँ अलहदा हो गई हैं। इसलिए थकान भरे अधिक समय लेने वाले रीति रिवाज अब इवेंट बन गए हैं। जिन्हें खरीद कर खुशियाँ हासिल कर लेना नासमझी तो नहीं । खुशियाँ कहीं से भी आए उन्हें लपक कर जी ही लेना चाहिये ।
हम अपने समय के त्योहार और वैवाहिक रीति-रिवाजों को जब याद करते हैं तो पाते हैं अंत समय तक सारा परिवार कामों में उलझा रहता और कोई न कोई कमी या चूक रह ही जाती । न तो सुस्ताने का समय मिलता और न ही ठीक तरह से सजने संवरने का अवसर । इतना ही नहीं इस दौरान एक दूसरे से बहस भी हो जाती। अब इस इवेंट के युग में इन सब झंझटों से मुक्ति तो मिली ही , केवल सजधज कर आयोजन में शामिल होकर आनंद ही लेना रहता है ।
परंपराओं का हवाला देकर धार के विपरीत चलेंगे तो संघर्ष भी बढ़ेगा, और अकेले भी रह जाएंगे ।
हाँ, अब जो नई पौध आ रही है उन्हें नए तरीके से संवारने का प्रयास जरूर किया जा सकता है। चूंकि अब उसके अनुकूल वातावरण नहीं है अतः यह कार्य दुष्कर तो है ही, पर असंभव भी नहीं ।
अंत में यही कहूँगी कि परिवर्तन संसार का नियम है, उसका जितना खुले हृदय से स्वागत करेंगे, जीवन उतना ही सहज रहेगा.
– वंदना दुबे
निवास स्थान- धार मध्यप्रदेश ।
शिक्षा- हिन्दी साहित्य, संगीत एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा
बी एड ।
लगभग पच्चीस वर्षो तक व्याख्याता पद पर कार्यरत रही ।
संगीत, साहित्य और कला में विशेष रुचि ।
तीन निजी पुस्तकें एवं अनेक साझा संग्रह प्रकाशित ।
आकाशवाणी और दूरदर्शन पर रचनाओं का प्रसारण।
भारत भवन एवं आकाशवाणी में गायन की प्रस्तुति ।
विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं से संबद्धता।
इंटैक की आजीवन सदस्य ।
देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।