Interview with Author : डॉ राजेंद्र कुमार कनोजिया कहते हैं ‘कविता बिना लिखे सोने नहीं देती!’

चंडीगढ़ साहित्य अकादमी द्वारा 'लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार' से सम्मानित!

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Interview with Author : डॉ राजेंद्र कुमार कनोजिया कहते हैं ‘कविता बिना लिखे सोने नहीं देती!’

– चंडीगढ़ से कर्मयोगी की रिपोर्ट

केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, पंजाब व हरियाणा के लोगों को डॉ राजेंद्र कुमार कनोजिया का पहला परिचय तो यह लगता है कि वे देश के प्रतिष्ठित स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान में अस्थिरोग विभाग के प्रोफेसर हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि वे सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, दुष्यंत उपेंद्रनाथ अश्क की सृजनभूमि इलाहाबाद की मिट्टी में पले-बढ़े व पढ़े हैं। साहित्य के संस्कार उनके रक्त में वहीं से आए हैं। लेकिन, वे मी़डिया के प्रचार-प्रसार से दूर रहते हैं। मरीजों के उपचार में लिखे नुस्खों की तरह उनकी टेबल पर कागजों में कविताएं व कहानियों के अंश नजर आ जाते हैं। लेकिन, चुपचाप साहित्य सृजन में रत रहने वाले डॉ कनोजिया ने दर्जनभर कहानी संग्रह, कविता संग्रह व साहित्य की अन्य विधाओं समेत चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी कई पुस्तकें लिखी।

डॉ कनोजिया की परवरिश सृजन की प्रतिष्ठित भूमि की इलाहाबाद रही। जहां उन्हें एमबीबीएस व एमएस करने के दौरान महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि प्रतिष्ठित साहित्यकारों का आशीष व सानिध्य मिला। यूं तो वे बचपन से ही लिखने लगे थे, कक्षा 9 में उनकी पहली कहानी सामने आई थी। आकाशवाणी इलाहबाद से उनकी लगभग 10 लघु नाटक प्रकारित हुए। कालांतर दूरदर्शन दिल्ली से अनेक कहानी व लघु नाटक प्रसारित हुए। इसके अलावा देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं मसलन हंस, कथादेश, वागार्थ, नया ज्ञानोदय, समकालीन साहित्य, हिंदुस्तान, जनसत्ता, दैनिक ट्रिब्यून आदि में उनकी कहानियां, कविता और सफरनामा प्रकाशित होते रहे हैं।

उनकी चर्चित कृतियों में हमारे हिस्से की दुनिया, हम और तुम (कविता संग्रह), लौटते हुए दिन, शिनाख्त, अधूरी दुनिया, सपने और कटी पतंग, प्रेम न हाट बिकाय (कहानी संग्रह), ‘माइक्रोस्कोप’ तथा ‘काहे को दिनो विदेश’ (उपन्यास) शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी कई पुस्तकें लिखी व संपादित की हैं।

पीजीआई चंडीगढ़ के अस्थिरोग विभाग में प्रोफेसर डॉ कनोजिया ने आर्थोपेडिक पर भी दो पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी है। हाल में उनकी चर्चा चंडीगढ़ साहित्य अकादमी द्वारा उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार पंजाब के राज्यपाल द्वारा दिए जाने पर हुई। साहित्यिक यात्रा से जुड़े पहलुओं पर उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश :

– कुदरत ने आपको क्या बनाया एक चिकित्सक या संवेदनशील रचनाकार ?

● डॉ कनोजिया कहते हैं शायद कुदरत ने रोगों से त्रस्त मरीजों की सेवा करने का दायित्व मुझे सौंपा है। प्रत्यक्ष रूप से लोगों के कष्ट-दुख दूर कर सकूं, ये मेरी प्राथमिकता है। पीजीआई में काम करना मेरे लिए गर्व की बात है। लेकिन, मुझे बचपन से लिखने का शौक रहा है। शायद ऐसा मेरी संवेदनशीलता के चलते हुए हुआ। लेखन से मुझे अच्छा महसूस होता है। साहित्य समाज से जोड़े रखता है। विभागीय दायित्व निभाने के बाद मुझे जो समय मिलता है उसमें लेखन का कार्य करता हूं। लेखन मेरे लिये योग व ध्यान जैसा रिलेक्स करने वाला होता है। एक मानसिक सुख मिलता है।

– क्या आपके परिवार में कोई साहित्यकार रहा? आपको क्या लगता है कि एक परिवार में कोई संवेदनशील रचनाकार बन जाता है। अन्य भाई-बहनों के साथ ऐसा नहीं होता। क्या ये पूर्वजन्म के संस्कार होते हैं?

● मेरा मानना है कि घर में मां बहुत ज्यादा संवदेनशील थी। जरा-जरा सी असामान्य बात में उसकी आंखों में आंसू आ जाते थे। शायद समाज के दुख-दर्द के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता होने का गुण मुझे मां से मिला है। कुछ देश के चोटी के साहित्यकारों का इलाहबाद में मिला सानिध्य भी इसके मूल में है।

– कविता के आपके लिये क्या मायने हैं?

● कविता के माध्यम से मैं समाज से जुड़ता हूं। कविता मन के दरवाजे खोलती है। खुद को अभिव्यक्त करता हूं। सही मायनों में कविता मेरे लिये जीवन के लिए आक्सीजन है। जब कविता को लेकर कोई विचार आता है तो कविता फिर सोने नहीं देती। कागज पर उतरकर ही बेचैनी शांत हो पाती है।

– कहानी लिखने की शुरुआत कैसे हुई?

● दरअसल, मैंने पहली कहानी कक्षा नौ में ही लिखी थी। एक बार पिता के साथ मुंबई गया तो, समुद्र को गहरे तक महसूस किया। उसके खारे पानी को देखा। समुद्र के किनारे पिता से प्रश्न किया कि समुद्र का पानी खारा क्यों होता है? पिता ने जवाब दिया कि इसमें नमक होता है। लेकिन मेरे मन इस विषय को व्यापक अर्थों में सोचने लगा। जिसके बाद में इस पर एक कहानी लिखी। उसे एक पुरुष रूप में चित्रित किया कि वह शुरू में अच्छा होता है। नदियों के मीठे पानी के तरह कालांतर परिस्थितियां उसे खारा बना देती हैं। यह वर्ष 1975-76 की बात रही होगी, फिर यह कहानी आकाशवाणी इलाहाबाद के युववाणी कार्यक्रम में प्रसारित हुई।

– मौजूदा वक्त में जीवन मूल्यों के पराभाव व बाजारी शक्तियों के प्रभाव वाले दौर में कहानी अभिव्यक्ति के मायने में अपने दायित्वों को निभा पा रही है?

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● दौर कोई भी हो कहानी समाज से ही उपजती है। समाज में जीवन मूल्यों को ही स्थापित करती है। कहानीकार कहानी के माध्यम से अपनी बात समाज तक पहुंचाता है। सृजन करना अच्छा महसूस करता हूं। साहित्य के जरिये समाज से जुड़ पाता हूं।

– कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई?

● स्कूल के दिनों में मेरे हिंदी के शिक्षक हमें लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। एक बार एक शीर्षक दिया गया ‘इस माटी से तिलक करो’ मैंने अलग ढंग से कविता लिखी। पुरस्कार वितरण समारोह में प्रसिद्ध साहित्यकार रामकुमार जी आए थे, उन्होंने आशीर्वाद दिया। लिखने का हौसला बढ़ा। उसे खूब सराहा गया। बाद में उन्होंने उसे एक अखबार में छपवाया भी। वर्ष 1976-77 में किसी पत्रिका से पांच रुपये का मनीऑर्डर आया। बहुत खुशी हुई थी। उन दिनों धर्मयुग, सरिका,कहानी व साप्ताहिक हिंदुस्तान का दौर था। इनमें रचनाएं छपती थी। उन्हीं दिनों पेंटिंग की प्रतियोगिता हुई तो पुरस्कार देने महादेवी वर्मा जी आयी। उन्होंने खूब प्रोत्साहित किया। इस दौरान छायावाद के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानंदन पंत तथा उपेंद्रनाथ अश्क जी से मिलने का अवसर भी मिला।

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आपकी साहित्यिक गतिविधियों को तब परिवार किस तरह देखता था?

हम एक मध्यमवर्गीय परिवार से थे। उस समय साहित्कारों की माली हालत अच्छी नहीं होती थी। हर परिवार की इच्छा होती थी कि बच्चा सरकारी अधिकारी बने। पिताजी दुलारेलाल कनोजिया एक सरकारी कर्मचारी थे। मेरे दो भाई व बहन थी, माता-पिता का बड़ा संघर्ष था। छोटा मकान था, लेकिन उसमें बड़ा सुख था। मां चूल्हें में लकड़ियों से खाना बनाती थी। अच्छा लगता था। आंगन में सोते थे तो आसमान दिखता था। आसमान में तारे दिखते थे। मेरी साहित्यक सक्रियता पिता को अच्छी लगती थी, लेकिन उन्होंने कहा कि मैं पहले अपने कैरियर पर ध्यान दूं। सफलता मिलने के बाद साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहूं। जब मेरा चयन मेडिकल परीक्षा में हो गया तब पिता ने कहा कि अब मैं साहित्यिक सक्रियता बनाए रख सकता हूं।

– आप अकसर कहते रहे हैं कि बिना संवाद के कहानी अधूरी है?

● मेरा मानना रहा है कि जब तक संवाद बातचीत न हो तो कहानी कैसी? कहानी गूंगी नहीं हो सकती। कहानी गद्य नहीं। एक वृतांत है। उसमें जीवन होना चाहिए। उसमें समाज दिखना चाहि्ए। यह बात कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की रचनाओं में दिखती थी।

– इस पुरस्कार के आपके के लिये क्या मायने हैं?

● पुरस्कार मिलना अच्छा लगता है। आपके काम को पहचान मिलती है। आप जो रच रहे हैं उसे समाज में पढ़ा जाता है।

आपकी बहुआयामी प्रतिभा का एक पक्ष यह भी है कि आप एक अच्छे चित्रकार भी हैं?

व्यस्त समय से कुछ पल निकालकर जो कर पाया वो मुझे संतुष्टि देता है। पेंटिंग्स में भी रुचि है। हंस, कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्य इत्यादि पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ और अन्य चित्र बनाए हैं।

– यह भी सुखद अहसास है कि आपके अपने परिवार में डॉक्टर, उपन्यासकार, चित्रकार हैं।

● मेरी जीवन संगिनी डॉ नीना मेरी लाइफ लाइन हैं। वो मेरी किसी भी कहानी और कविता की पहली श्रोता हैं। वे सच्ची सलाह देकर मेरी मदद करती हैं। बच्चे हर्ष और श्रेय मेरे जीवन को संपूर्णता प्रदान करते हैं। हर्ष भी सुधि लेखक हैं। अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में रचना करता है।

श्रेय बेहतरीन चित्रकार है। पुत्रवधु डॉ सोनाली हमारे परिवार में नई ख़ुशियां लेकर आई है।

मेरा हमेशा से मानना है कि धरती एक है और जीवन भी एक है। हम यहां दोबारा नहीं आएंगे, इसलिए जितना हो सके सकारात्मक और रचनात्मक कार्य करें। यही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।