समूची इंदिरा कांग्रेस और सोनिया-राहुल गांधी को आभार मानना चाहिये अशोक गेहलोत का, जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा को छुपाया नहीं और अध्यक्ष पद के निर्वाचन से पहले ही साफ कर दिया कि वे अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों बने रहना चाहते थे। सोचिये, यही बात वे नामांकन वापसी या अध्यक्ष बन जाने के बाद कहते तो? तब उन्हें कौन निकालता, फटकारता। यदि ऐसा कुछ होता भी और वे खुद को असली कांग्रेस बताकर दल के विभाजन पर उतारू हो जाते तब क्या होता? तब शायद सोनिया कांग्रेस बनानी पड़ती। इसलिये सचमुच गांधी परिवार को गेहलोत के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिये। अब पटल पर अंकित हुए नये नामों को आलाकमान किन नजरों से देखेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस सदमे से सबक लेकर एक बार फिर से अध्यक्ष का पद घूमकर किसी गांधी पर आकर ही रुक जाये। एक और बात, अशोक गेहलोत ने जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवसर को फुटबाल की तरह किक लगाकर मैदान से बाहर कर दिया, जिसके लिये वे देश के राजनीतिक इतिहास में पर्याप्त असम्मान से याद किये जायेंगे,खास तौर से कांग्रेस में। बहरहाल।
इस समूचे घटनाक्रम से अभी-भी यदि कांग्रेस के हितचिंतक और गांधी परिवार कुछ सबक ले सकें तो देश के इस सबसे पुराने और पहले राजनीतिक दल का भला हो सकता है। मुझे लगता है, इससे यह सबक तो मिला होगा कि राजनीति में वफादारी जैसा कुछ नही होता। यह भी कि गांधी परिवार के प्रति जो आस्था,श्रद्धा दिखाई जाती है, वह तात्कालिक है,मुंह आगे है, निज हित की वजह से है। कितनी विचित्र और विसंगितपूर्ण बात है कि जिस व्यक्ति को कांग्रेस व गांधी परिवार अध्यक्ष बनाने जा रहा था, वह किसी गली के चवन्नी छाप कार्यकर्ता से गया-गुजरा निकला। जिसे अपना सर्वाधिक विश्वस्त माना और जो कांग्रेस से आजन्म लाभान्वित रहा , उसने इमान बिगाड़ा भी तो तब जब वे इस पुरातात्विक राजनीतिक दल के सर्वेसर्वा बनने जा रहे थे, जो किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से कहीं अधिक विशाल,प्रतिष्ठित और सम्मानजनक था। राजस्थान के लोग विश्वासघाती के तौर पर जब अकबरकालीन मानसिंह को याद करेंगे, तब मौजूदा दौर के अशोक गेहलोत को भी उसी के समकक्ष रखने से परहेज नहीं करेंगे।
संभवत: कांग्रेस और देश ने भी ऐसा राजनीतिक भूचाल पहले महसूस नहीं किया होगा। जिन गेहलोत को कांग्रेस का अध्यक्ष बनने लायक परिपक्व,भरोसेमंद और योग्य माना जा रहा था, वे इतने उथले चरित्र के निकलेंगे, यह आश्चर्यजनक है। वैसे ये भी सही है कि जो भी अध्यक्ष बनता वह पदनाम और हस्ताक्षर करने जितना ही होता, फिर भी कहलाता तो एक राष्ट्रीय पुराने दल का निर्वाचित अध्यक्ष ही। वे पद पर रहकर यदि गांधी परिवार को दरकिनार करने के प्रयास करते या अपने क्रियाकलापों से दल को मजबूती देते तो संभव था कि कुछेक बरस तो अपनी मौजूदगी बरकरार रख सकते थे। इस बीच दिल्ली के राजपथ से गांधी परिवार की दूरी बढ़ाने में कामयाब होने के अवसर भी थे तो उनके वर्चस्व को यथावत रखते हुए भी अपना कद ऊंचा कर ही सकते थे। लेकिन, वे तो उस नशेड़ी की तरह पेश आये, जिसे सबसे पहले अपनी खुराक चाहिये, फिर उस नशे को छोड़ देने का ज्ञान लेने को तैयार हो सकता है।
अशोक गेहलोत प्रकरण ने एक सर्वज्ञात तथ्य को एक बार फिर उजागर कर दिया कि किसी राज्य का मुख्यमंत्री होना ज्यादा फायदे का सौदा है, बनिबस्त दिल्ली में बैठकर राजनीति करने के। जो अंतर जिले के कलेक्टर और सचिवालय के उप सचिव में होता है, कुछ वैसा ही। वे कांग्रेस में इतिहास पुरुष बनने से चूक गये, लेकिन कांग्रेस के इतिहास में विश्वासघाती जरूर दर्ज हो गये। उनके इस अप्रत्याशित कदम ने कांग्रेस को ही मुश्किल में नहीं डाला, बल्कि खुद की प्रतिष्ठा को जो पलीता लगाया है, वह भी गजब है। उन्होंने इस तरह तो अपने स्तर के अन्य कांग्रेसी नेताओं के दामन पर भी बेभरोसेमंदी के छीटें उड़ा दिये हैं,जिसे विश्वसनीयता के साबुन से मल-मलकर धोने में दूसरो को जी-जान लगानी पड़ेगी।
अब लाख टके का सवाल यह है कि कांग्रेस या गांधी परिवार की रणनीति क्या होगी? अभी तो यही लग रहा है कि सही मायनों मे किसी भरोसेमंद की तलाश की जाये। लेकिन वह कितना भरोसा रख पायेगा, कौन जाने? गांधी परिवार स्वतंत्र भारत में इतने पसोपेश में कभी नही रहा। एक तरफ राहुल गांधी का बार-बार कहना कि अध्यक्ष कोई गांधी नहीं होगा, गले की फांस बनकर खड़ा है। ऐसे में जो भी नाम सामने आये और उसने समय रहते पीठ, दिखा दी तो क्या करेंगे। यदि खुद अपनी उम्मीदवारी घोषित कर दें तो वचनबद्धता का क्या होगा। सोनिया गांधी स्वास्थ्यजन्य कारणों से कामकाज संभालने की स्थिति में नहीं हैं। राहुल अपने नेतृत्व पर लगे नाकामयाबी के धब्बे छुड़ाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, जिसकी परिणीति है भारत जोड़ो यात्रा। वे मुड़कर आ जायें तो राजनीतिक विरोध की धार पैनी होने के खतरे हैं। प्रियंका वाड्रा को आगे करते हैं तो राबर्ट के चिट्ठे खुलने का खतरा तो है ही, साथ ही गांधी परिवार का न होकर भी कांग्रेस पर मनमर्जी थोपने की मिसाइलें सनसनाती आने का जोखिम है।
30 सितंबर को नामांकन में ज्यादा समय नहीं है। दो या अधिक प्रत्याशी होने पर 17 अक्टूबर को मतदान और नतीजे 19 अक्टूबर को। इससे पहले 30 तक नमांकन और नाम वापसी 8 अक्टूबर तक। यह समय कांग्रेस और गांधी परिवार के लिये बेहद चुनौतीपूर्ण,असमंजस भरा है। संभव है कुछ समय के लिये राहुल गांधी को यात्रा रोककर दिल्ली लौटना पड़े। यह भी हो सकता है कि सोनिया और प्रियंका यात्रा मार्ग में कहीं जाकर विचार-विमर्श करें। यह भी संभव है कि किसी भी व्यवस्था में जिस तरह से सलाहकार नितांत स्वामी भक्ति दिखाते हुए गांधी परिवार को ही अध्यक्ष बनने के लिये राजी करने की बाकायदा मुहिम चला दें। यह अनशन,भूख हड़ताल और आत्म दाह की शक्ल में भी हो सकता है। ऐसा लगता है कि नामांकन और नाम वापसी तक गांधी परिवार प्रतीक्षा कर सकता है। उसके बाद यदि उनके विशवस्तों ने मैदान पकड़ लिया तो निर्वाचन टालना कोई बड़ी बात नहीं। फिर भले ही शशि थरूर मैदान न छोड़ने का ऐलान कर दे। कांग्रेस को ये दिन दिखाने के लिये अशोक गेहलोत को बख्शा तो नहीं जाना चाहिये। यदि गांधी परिवार अध्यक्ष न बनने पर अड़ा ही रहा तो भी अभी किसी एकदम नये नाम के सामने आने की भी प्रबल संभावना है।
यदि कांग्रेस अपने को मजबूती देना चाहती है तो उसके सामने एक बेहतर मौका है, जब वो अशोक गेहलोत को तत्काल प्रभाव से बर्खास्त या निलंबित कर दे और मुख्यमंत्री पद से हटा दे। भले ही उनके समर्थन में राजस्थान के अधिसंख्य कांग्रेस विधायक चले भी जायें तो एक प्रदेश की सरकार की बलि देकर वह जनता की सहानुभूति ही जुटायेगी। साथ ही दल में एक संदेश जायेगा कि दल से ऊपर कोई नहीं। वह भी नहीं जो अध्यक्ष पद का दावेदार था। यह कदम गांधी परिवार को निजी लाभ पहुंचायेगा कि उससे दगाबाजी कर कोई दल में नहीं रह सकता। आलाकमान का नरम रवैया हर तरह से कमजोर ही करेगा-यदि इस बात को कांग्रेस और गांधी परिवार ने समझ लिया तो कांग्रेस का भला होने का यह बेहतरीन मौका साबित हो सकता है। फिर मरजी कांग्रेस की, क्योंकि भला-बुरा भी उसका ही होना है।