क्या यह राजनीति में ‘भाषाई नपुंसकता’ का उदाहरण है…
मध्यप्रदेश की राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप की कड़ी में शायद पहली बार ‘नपुंसकता’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसा कि अमूमन होता ही है कि राजनीति में बयानबाजी का दौर चलता है और तीखे और कर्कश प्रहार देखने को मिलते हैं। पर भाषाई नैतिकता की लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघा जाता है। पर इस बार जो हुआ है, वास्तव में उसकी उम्मीद किसी भी नेता से नहीं की जा सकती थी। इस बार लक्ष्मण रेखा पार हो गई है और भाषाई मर्यादा का हरण हो गया है। सामान्य तौर पर चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों की भाषा मर्यादा लांघने लगती है। बड़ी पार्टियों के प्रमुख नेता जो मन में आता है बोलते रहते हैं। चीखते हैं, चिल्लाते हैं दहाड़ते हैं। चुनावी मंचों पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से दस कदम आगे नेता एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले कर रहे हैं।माना जाता है कि भाषा लगातार गिरते राजनीतिक स्तर को मापने का एक पैमाना है। यह नेता का स्तर बताता है। भाषा की मर्यादा नेताओं को बनाती है और अमर्यादा गिराती ही है। व्यक्तिगत हमलों से समर्थक भले ही ताली बजाते हों पर वह मतदाता जो अपनी सोच रखता है, तटस्थ है, वह उस नेता की मन में एक तस्वीर बनाता है जो लाख अच्छी बातें कहने से भी नहीं हटती। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा के लिए ‘नपुंसकता’ शब्द का प्रयोग कर एक नई बहस को बुलावा दिया है। हालांकि इस शब्द का प्रयोग कर दिग्विजय सिंह बैकफुट पर ही नजर आ रहे हैं। कभी-कभी खेद जताना या माफी मांगने का प्रचलन था। पर अब तो ऐसे शब्द भी मानो खत्म हो चुके हैं। सफाई देना तो दूर की बात है, लगता ऐसा है जैसे जो मुंह से निकल गया बस वही सही है। इस विशाल मुल्क में एक भी वोटर ऐसा नहीं होगा जो भाषा के गिरते स्तर से खुश हो लेकिन जाति-धर्म, संप्रदाय की राजनीति से हम किसी दल के अंधभक्त हो गए हैं तो किसी दल के गुलाम। कहा जाता है कि राजनीति की भाषा मतदाताओं की जागरूकता से ही सुधर सकती है। तर्क-कुतर्क में खोती जा रही शब्दों की परिभाषा बदलने लगी है। यह सबसे बड़ी चिंता हैं। यह कहा जा सकता है कि नपुंसकता शब्द का बयानबाजी में दूसरे नेता के खिलाफ प्रयोग वास्तव में राजनीति में ‘भाषाई नपुंसकता’ का ही प्रमाण है। वरना शब्दों में वह ताकत है कि मर्यादा में रहते हुए भी वह गहरे जख्म करने में समर्थ हैं।
प्रख्यात भाषाविद मोलनीविसी ने 1923 में कहा था कि ‘भाषा सामाजिक संगठन का काम करती है।’ दुनिया के सभी समाज भाषा के सदुपयोग द्वारा ही गढ़े गए हैं। ज्ञान, विज्ञान, इतिहास और दर्शन भाषा के कारण सार्वजनिक संपदा बनते हैं। इसके लिए सार्वजनिक बहसों की गुणवत्ता जरूरी होती है, लेकिन भारतीय राजनीति में सार्वजनिक बहस का स्तर लगातार गिर रहा है। और गिरते-गिरते वह नपुंसकता शब्द के इस्तेमाल तक पहुंच जाए या कल के दिन वैश्या शब्द का प्रयोग किया जाने लगे, तो इसे राजनीति में भाषाई नपुंसकता के तौर पर ही देखा जाएगा।
मामला यह है कि मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह द्वारा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और खजुराहो के सांसद वी.डी. शर्मा के खिलाफ ‘नपुंसक’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। शर्मा के इस आरोप पर कि दिग्विजय सिंह के ‘आतंकवादी संगठनों से गहरे संबंध’ हैं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने कहा कि अगर वीडी शर्मा को लगता है कि मैं आतंकवादी संगठनों का समर्थक हूं, तो ‘मुझे उनकी नपुंसकता पर अफसोस होता है।’ मतलब भाजपा सरकारों के रहते भी उनके खिलाफ कार्यवाही न करवाने को लेकर था। भाजपा ने दिग्विजय के खिलाफ क्राइम ब्रांच में शिकायत की है। पर राजनेताओं द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग ‘भाषाई नपुंसकता’ की तरफ ही इशारा कर रहा है…
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