आतंक और युद्ध में युद्ध ही सही है, भले ही परिणाम भयावह हों…

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आतंक और युद्ध में युद्ध ही सही है, भले ही परिणाम भयावह हों…

कौशल किशोर चतुर्वेदी
युद्ध कितना विनाशकारी होता है इसकी गवाही रूस-यूक्रेन तथा इजरायल-फिलिस्तीन-ईरान युद्ध दे रहे हैं। कॉन्फ्लिक्ट एंड एनवायरनमेंट ऑब्जर्वेटरी संस्था की रिपोर्ट यहां युद्ध के बाद बनी भयावह स्थिति का खौफनाक वर्णन कर रही है।ईरान-इजराइल युद्ध की बात हो या रूस-यूक्रेन जैसे लम्बे समय से चल रहे संघर्ष की, इन वैश्विक टकरावों ने न सिर्फ हजारों ज़िंदगियों को लील लिया है, बल्कि हमारे पर्यावरण को भी गहरे घाव दिए हैं। मिसाइलों के विस्फोट की गूंज और टैंकों की गरज के बीच, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि युद्ध के कारण हो रहा यह पर्यावरणीय नुकसान वर्षों के लिए पृथ्वी के संतुलन को बिगाड़ सकता है। ऐसे में आने वाले दिनों में हमें ज्यादा हीटवेव भरे दिन, बाढ़, सूखे आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। युद्ध पर्यावरण और जिंदगियों पर धुआं बनकर मंडरा गए हैं। जीवन और पर्यावरण को युद्धों ने धुआं-धुआं सा कर दिया है।
कॉन्फ्लिक्ट एंड एनवायरनमेंट ऑब्जर्वेटरी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में सेनाएं ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के 5.5% हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के पहले तीन सालों में 230 मिट्रिक टन CO2 उत्पन्न हुआ। ये ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया के संयुक्त वार्षिक उत्सर्जन के बराबर है। वहीं युद्ध में इस्तेमाल किए जा रहे हथियारों के चलते हवा में सल्फर डाई ऑक्साइड और अन्य खतरनाक गैसों का स्तर भी तेजी से बढ़ रहा है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक इरान इजराइल युद्ध में लगभग 35,000 टन कार्बन का उत्सर्जन हुआ। ये लगभग 8,300 कारों के पूरे साल के उत्सर्जन के बराबर है। ऐसे में युद्ध के दौरान इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ सकता है।
ईरान-इजराइल युद्ध हो या रूस-यूक्रेन युद्ध इनमें इस्तेमाल होने वाले हथियारों में बड़े पैमाने पर हैवी मैटल, कई तरह के केमिकल और बारूद का इस्तेमाल किया गया है। भारी गोलाबारी और मिसाइलों के इस्तेमाल से ये खतरनाक तत्व उस इलाके में बड़े पैमाने पर फैल जाते हैं जो स्थानीय प्रदूषण का बड़ा कारण बनते हैं। युद्ध में विध्वंसक हथियार इस्तेमाल किए जा रहे हैं। हथियारों से निकलने वाला धुआं और प्रदूउषक तत्व आसपास की हवा और पानी को तो प्रभावित करते ही हैं हमले की वजह से जो इमारतें ध्वस्त होती हैं उनसे निकलने वाले पर्टीकुलेटेड मैटर लम्बे समय तक हवा में बने रहते हैं। इस हवा में सांस लेने वालों को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। हमनें दोनों ही युद्धों में देखा कि एक दूसरे को कमजोर करने के लिए दोनों देशों ने दूसरे देश की ऑयल रिजर्व या ऑयल फील्ड पर हमला किया। इस रिजर्व तेल में लगने वाली आग के चलते जो तेल साल भर इस्तेमाल हो सकता था वो कुछ ही घंटों में जल गया और उससे निकले धुएं के चलते कई मिट्रिक टन कार्बन डाई ऑक्साइड व अन्य खतरनाक गैसें हवा में पहुंच गई जो ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को बढ़ाएगी। एक तरफ जहां पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को देखते हुए लगातार प्रयास कर रही थी कि गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सके वहीं दूसरी तरफ आज दुनिया हथियारों की होड़ में लग गई है। हाल ही में नाटो ने अपने बजट को बढ़ाने की बात कही है। ऐसे में दुनिया भर में आने वाले समय में हथियारों का उद्योग और तेजी से बढ़ेगा और इस उद्योग के बढ़ने से एक तरफ हथियार बनाने में गैसों का उत्सर्जन होगा और जब इन हथियारों का इस्तेमाल होगा तो उससे अलग उत्सर्जन होगा। कुछ सालों पहले संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का अनुमान लगाने के लिए कुछ नीतियां बनाई थीं। लेकिन आज तक कोई ऐसी रिपोर्ट पेश नहीं की जा सकी जो चर्चा का केंद्र बनी हो। गौर से देखा जाए तो आज संयुक्त राष्ट्र भी ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों के मोर्चे पर कमजोर पड़ता दिख रहा है।
लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ प्रवक्ता बेंजामिन नेइमार्क अपने एक शोधपत्र में कहते हैं कि हमने बहुत स्पष्ट रूप से देखा है कि सेनाएँ और युद्ध सामग्री पर्यावरण को किस हद तक नुकसान पहुंचा सकते हैं। दुनिया भर में सैन्य बल हाइड्रोकार्बन के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से हैं। कई सेनाओं की ग्रीन हाउस गैसों की उत्सर्जन क्षमता कुछ छोटे देशों के बराबर हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन में उनके समग्र योगदान के बारे में बहुत कम जानकारी है। इस पर बात भी नहीं होती है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के तहत सभी देशों की रिपोर्टिंग जिम्मेदारियाँ अलग-अलग हैं, जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के बाद से, सैन्य उत्सर्जन की रिपोर्टिंग की आवश्यकता अब जरूरी होती जा रही है। 2021 में ग्लासगो में कॉप 26 जलवायु सम्मेलन में, सैन्य उत्सर्जन को ट्रैक करने या यूएनएफसीसीसी को व्यक्तिगत सरकार के सैन्य उत्सर्जन की रिपोर्टिंग के लिए एक नेटवर्क विकसित किया गया था। दुर्भाग्य से, बहुत कम देश अपने सैन्य उत्सर्जन को किसी पारदर्शी या व्यवस्थित तरीके से रिपोर्ट करते हैं, ऐसे में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की रिपोर्टिंग बहुत असंगत हो जाती है। उन्होंने कहा कि गाजा में युद्ध के अपने हालिया अध्ययन में हमने कुछ मोटे अनुमान लगाए जो बताते हैं कि ईरान-इज़राइल युद्ध के पहले पाँच दिनों में जेट ईंधन, रॉकेट फायर और बैलिस्टिक मिसाइलों ने 35,000 टन से अधिक CO2 जारी किया। यह एक साल में चलाई गई 8,300 कारों या 20,000 टन कोयले के जलने के बराबर है।
यानि युद्ध का धुआं अब केवल बारूद, युद्ध के मैदान और खंडहर इमारतों तक सीमित नहीं है। यह पर्यावरण की सांसों को भी उखाड़ रहा है। युद्ध में दागी जा रही मिसाइलें और बमों के चलते वायुमंडल में बड़े पैमाने पर कार्बन और अन्य खतरनाक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। आने वाले समय में ये उत्सर्जन धरती को गर्म करने के साथ ही पूरी दुनिया में वायु प्रदूषण के एक बड़े संकट के रूप में सामने आ सकता है। रिपोर्ट की भयावहता यह बताती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऑपरेशन सिंदूर को खत्म कर युद्ध विराम का फैसला जिंदगी और पर्यावरण को देखते हुए एकदम सही और तर्कसंगत था। भले ही लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने युद्ध विराम पर नरेंदर सरेंडर कहकर मोदी की हंसी उड़ाई हो। और युद्ध को लेकर भाजपा और कांग्रेस या यूं कहें एनडीए और इंडिया गठबंधन आमने-सामने आकर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की बौछार करते रहे हों। हालांकि यह बात भी सही है कि आतंक और युद्ध में से किसी एक को चुनना हो तो युद्ध के अलावा कोई चारा नहीं बचता… भले ही परिणाम कितने भी भयावह हों।