प्रेरणा तो जरासंध भी दे सकता है पर जीवन जीना तो श्रीकृष्‍ण ही सिखाते हैं 

प्रेरणा तो जरासंध भी दे सकता है पर जीवन जीना तो श्रीकृष्‍ण ही सिखाते हैं 

वर्ष 1975 में एक फिल्‍म आई थी ‘संन्‍यासी’। इसमें मनोज कुमार, हेमामालिनी और प्रेमनाथ जैसे बड़े स्‍टार थे। इसका प्रसिद्ध गीत था – कर्म किये जा फल की चिंता मत कर रे इंसान, जैसे कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान्, ऐ है गीता का ज्ञान। इस गीत ने हमारी पीढ़ी के स्‍कूल जाते बच्‍चों तक को गीता से पहला परिचय करा दिया था और भ्रमित भी कर दिया था कि बगैर फल की इच्‍छा किये काम करना कैसे संभव है ?

इसका ठीक उलटा आजकल मोटीवेशनल स्‍पीकर बताते हैं। वे निरंतर जोर देते हैं कि लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के लिए तन-मन-धन लगा दो, सोते-जागते केवल लक्ष्‍य को ध्‍यान रखो, सकारात्‍मक विचार रखो कि मैं लक्ष्‍य को जरूर पाऊँगा, बार-बार प्रयास करो जब तक सफल न हो जाओ आदि। उनसे पूछा जाए कि यदि लक्ष्‍य प्राप्‍त न हो तो क्‍या करें तो उनका जवाब होता है कि दूसरा लक्ष्‍य बना लो लेकिन करना तो वही है जो वह पहले कह चुके हैं। हर स्थिति में लक्ष्‍य प्राप्ति की आदर्श स्थिति की कल्‍पना करना है और वास्‍तविक जीवन को उसके लिए झौंक देना है।

अगर मोटिवेशनल स्‍पीकर्स की बात मान भी ली जाए तो वास्‍तविकता यह है कि चाहा गया लक्ष्‍य या फल सभी को नहीं मिल सकता। भारत की सिविल सेवा परीक्षा में लगभग 13 लाख अभ्‍यर्थी बैठते हैं। उनमें से लगभग 1000 अभ्‍यर्थी अंतिम रूप से चयनित होते हैं। अब अगर सभी 13 लाख इस परीक्षा की तैयारी में पूरा जीवन झौंक दें तब भी अंतिम सफलता तो 1000 को ही मिलेगी। शेष 12 लाख 99 हजार का क्‍या होगा ? यही स्थिति जीवन के हर क्षेत्र में है। अपने लिए सफलता का पैमाना हम स्‍वयं तैयार करते हैं। सफलता का पैमाना किसी के लिए सिविल सेवा में जाना हो सकता है तो किसी के लिए व्‍यापार का टर्न ओवर 10 लाख रुपये कर लेना हो सकता है। दूसरी ओर यदि किसी ने अपना लक्ष्‍य समाज सेवा करना बनाया है तो उसके लिए सिविल सेवा का कोई अर्थ नहीं। वहीं जिसने व्‍यापार का लक्ष्‍य अंबानी या अडानी की तरह हजारों करोड़ रुपयों का बनाया है उनके लिए 10 लाख रुपये की तो कोई गिनती ही नहीं है।

लोगों को सफलता के लिए प्रेरित करना बुरा नहीं है। संसार में बड़े-बड़े कार्य प्रेरणा से ही होते हैं। कंस वध का बदला लेने के लिए उसके श्‍वसुर मगध के राजा जरासंध ने मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया और कृष्‍ण से हर बार पराजित हुआ पर उसने हार नहीं मानी। फिर-फिर उत्‍साह से भरकर सेना इकट्ठी करता था और मथुरा पर आक्रमण करता था। 18वीं बार जरासंध और कालयवन ने मिलकर आक्रमण किया और जब कृष्‍ण ने दो बड़ी विपत्तियाँ एक साथ देखीं तो युद्ध छोड़ दिया और भागकर द्वारका पहुँच गये। इस प्रकार रणछोड़ बनने के बाद द्वारकाधीश बन गये। इस कहानी से सामान्‍यत: दो निष्‍कर्ष निकाले जाते हैं पहला यह कि निरंतर प्रयास करना ही सफलता का मन्‍त्र है और दूसरा यह कि परिस्थिति के अनुसार पीछे हट जाने और फिर नई रणनीति पर काम करके सफलता प्राप्‍त की सकती है। परंतु बात इससे कहीं गहरी है। जरासंध ने मथुरा की विजय का लक्ष्‍य अपने मोटिवेशन से प्राप्‍त कर लिया परंतु क्‍या हम उसकी सफलता के लिए उसे अपना आदर्श बनाते हैं? नहीं, हम पूजा तो रणछोड़दास की ही करते हैं । यह पूजा उनकी कूटनीति के लिए नहीं करते वरन् उस समग्र जीवन दर्शन के लिए करते हैं जो उन्‍होंने गीता में बताया । यह जीवन दर्शन है सफलता के लिए पूरी शक्ति से पुरुषार्थ करना, ईश्‍वर के निमित्‍त बनकर कार्य करना और अंत में परिणाम को ईश्‍वर को समर्पित कर देना। श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि सफलता-असफलता, सुख-दु:ख तो संसार के नियम से आते ही रहेंगे। संसार को सदैव अपने अनुकूल नहीं किया जा सकता इसलिए संसार के तमाम झंझावातों के बीच, सिद्धि-असिद्धि, सुख-दु:ख के बीच शांति और समत्‍व में जीवन जीना ही गीता प्रमुख की शिक्षा है।

 

गीता, जीवन का सबसे महत्‍वपूर्ण रहस्‍य – कर्म का रहस्‍य – खोलकर रख देती है। श्रीकृष्‍ण ने अपने जीवन में इसे जीकर दिखा दिया है। गीता कहती है कि हम किसी भी क्षण कर्म किये बगैर नहीं रह सकते (3.5) हम कर्म कर सकते हैं परंतु उसका परिणाम क्‍या होगा यह हमारे हाथ में नहीं है, अत: न तो केवल परिणाम के लिए ही कार्य करना है और न ही हमें अकर्मण्‍य भी होना है (2.47)। एक खिलाड़ी ओलम्पिक के लिए वर्षों मेहनत करता है। पर उसे पदक मिलेगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके प्रतिद्वंदी खिलाडि़यों ने कितनी तैयारी की है। अचानक कोई दुर्घटना हो जाना, कोई बुरी खबर से मानसिक शांति भंग हो जाना, अस्‍वस्‍थ हो जाना आदि अनेक कारण हो सकते हैं जो खिलाड़ी के नियंत्रण से बाहर हैं। प्रतियोगी परीक्षा में आने वाले प्रश्‍न, उत्‍तर पुस्तिका जाँचने वाले का दृष्टिकोण और मनोदशा आदि ऐसे कारण हैं जो परीक्षार्थी के नियंत्रण के बाहर हैं। इन कारणों के समग्र प्रभाव को ही भाग्‍य कहते हैं। गीता में कहा गया कि कार्य की सफलता में भाग्‍य का योगदान 20 प्रतिशत है (18.14)। गीता हमें जीवन की वास्‍तविकता बताती है कि फल तो कर्म के नियम से मिलेगा परंतु वह क्‍या होगा यह हम निश्चित नहीं कर सकते क्‍योंकि वह अनेक कारकों से निर्धारित होता है और इनमें से कई कारक हमारे नियंत्रण के बाहर हैं। गीता यह भी कहती है कि जीवन में सुख-दु:ख तो आएँगे ही इसलिए उन्‍हें सहन करने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है (2.14)।

सामान्‍य रूप से हम कर्म करते समय तनाव, थकान, भय से ग्रस्‍त होते हैं। इसलिए कर्म से भागकर अवकाश चाहते हैं। इतवार की सुबह खुश होते हैं और सोमवार की सुबह उदास हो जाते हैं। गीता बताती है कि कैसे तीव्र कर्म करते हुए आंतरिक शांति और आनन्‍द बनाए रखें और कैसे बगैर तनाव, थकान या भय के तीव्र कर्म कर सकें। तब अवकाश का भी आनन्‍द लिया जाता है परंतु वह कर्म के आनन्‍द से अवकाश के आनन्‍द की यात्रा होती है न कि कर्म के दु:ख से अवकाश के सुख की । तब सफलता और असफलता दोनों के बीच जीवन यात्रा आनन्‍द और शांति से चलती रहती है।

श्रीकृष्‍ण का युद्ध भ‍ूमि में रथ पर खड़े होकर उपदेश देता चित्र हमें गीता का मूल तत्‍त्‍व स्‍पष्‍ट कर देता है। श्रीकृष्‍ण रथ पर खड़े हैं उनके पीछे अर्जुन निराश बैठे हैं। श्रीकृष्‍ण के हाथ में घोड़ों की लगाम खिंची है, अचानक रोक दिये जाने से घोड़ों के अगले पैर ऊपर उठ गये हैं व मुँख कुछ खुल गये हैं। इससे भगवान् की महान कर्मशीलता और परिस्थितियों पर पूर्ण नियंत्रण स्‍पष्‍ट होता है। वह युद्ध के तनाव से निर्लिप्‍त हैं, उनके मुख पर स्मित मुस्‍कान है, शांति है, सहानुभूति है। वे अर्जुन की ओर मुड़कर उसे उपदेश दे रहे हैं। यही आदर्श जीवन है – कर्म में कुशलता, अपने पुरुषार्थ से परिस्थिति पर पूरा नियंत्रण, आंतरिक शांति, दूसरों के प्रति सहानुभूति और इसके बाद भी परिणाम को लेकर निर्लिप्‍तता।

गीता कर्म की प्रेरणा देती है, सफलता के लिए पुरुषार्थ को पहला कदम बताती है। यहाँ तक वह मोटिवेट करती है। परंतु इच्छित फल प्राप्‍त न होने पर, जीवन के अनिवार्य सुख और दुख में शांत, अनुदि्वग्‍न और स्थिर रहना सिखाती है। जीवन में कोई एक ही लक्ष्‍य सफलता या असफलता निर्धारित नहीं करता है। जीवन रोज नई चुनौतियाँ देता है। गीता इन चुनौतियों के बीच जीवन जीने की कला बताती है। यहीं वह सबसे अलग हो जाती है। गीता, मोटिवेशनल किताबों की तरह केवल 0.1 प्रतिशत तथाकथित सफल लोगों के लिए नहीं है वह तो सारी मानवता का मार्गदर्शन करती है, उन्‍हें जीवन जीना सिखाती है। इसलिए जरासंध हमें मोटिवेशन दे सकता है पर जीवन जीने का तरीका तो श्रीकृष्‍ण ही सिखा सकते हैं।

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