भाजपा-कांग्रेस के वोटीय लोभ में फँसा ओबीसी आरक्षण और साँसत में लोकतंत्र!

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त्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च

हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।

नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च

वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरुपा॥

‘कहीं सत्य और कहीं मिथ्या, कहीं कटुभाषिणी और कहीं प्रियभाषिणी, कहीं हिंसा और कहीं दयालुता, कहीं लोभ और कहीं दान, कहीं अपव्यय करने वाली और कहीं धन सञ्चय करने वाली राजनीति भी वेश्या की भांति अनेक प्रकार के रूप धारण कर लेती है।’ -भर्तृहरि(नीति शतक) 

सियासत तवायफ का चरित्र लेकर जीती है। भर्तृहरि के बाद कई लेखकों, कवियों, दार्शनिकों ने ऐसा लिखा और कहा। हरिवंश ने अपने एक लेख में सरसंघचालक रहे सुदर्शन जी की एक टिप्पणी का हवाला देते हुए एक कदम और आगे की बात कही- राजनीतिकों का आचरण ही वेश्या की भांति है, कब अपने कहे से मुकर जाएं और  जो नहीं कहा उस पर अड़ जाएं। जनता को रिझाने के लिए उनका चरित्र वेश्याओं की भांति बदलता रहता है। हरिवंश ने सुदर्शन जी की टिप्पणी से निकालकर यह उद्धरण तब दिया था जब वे एक पत्रकार थे। आज वे हरिवंश से हरिवंश नारायण सिंह के रूप में जदयू के सांसद और राज्यसभा के माननीय उपसभापति हैं।

बहरहाल, मैंने यह भूमिका पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को लेकर मध्यप्रदेश में मचे राजनीतिक घमासान को लेकर बांधी है। पक्ष और प्रतिपक्ष आमने-सामने है। कौन कितना झूठा और कितना सही है, पिछड़ों के हितों का कौन कितना सगैला और कौन कितना दुश्मन है, कहा नहीं जा सकता। पिछड़ा वर्ग मानों राजनीति का ऐसा चंद्रखिलौना है जिसे पाए बिना जीवन सफल नहीं, सो क्या पक्ष क्या प्रतिपक्ष, सभी इसके लिए मचल रहे हैं। सही अर्थों में पिछड़ा वर्ग के हितों को लेकर नहीं, अपितु आरक्षण के घमासान को लेकर फैलने वाली आग की ऊष्मा से भाजपा भी, कांग्रेस भी ऊर्जा पाना चाहती है। सामने विधानसभा फिर लोकसभा के चुनाव हैं, सो अपने-अपने स्टैंड में डटे रहना जरूरी भी है और मजबूरी भी। पिछड़ों के 27 प्रतिशत के खेल में मध्यप्रदेश के बेचारे लाखों युवा फंसे हैं। चार साल से एक भी भर्ती नहीं हो रही। पीएससी के परिणाम अटके हैं। राजनीति के इस चक्रव्यूह में जितने सामान्य वर्ग के युवा उलझे हैं उतने ही पिछड़े और अजा,अजजा वर्ग के।

कैसे उलझे पंचायत के चुनाव..

अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने बिना ओबीसी आरक्षण के ही पंचायत व नगरीय निकाय के चुनाव कराने का फैसला सुनाया है, तब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को इस फैसले पर रिव्यू पिटीशन दायर करने की बात के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा। इससे पहले विधानसभा ने अपना ‘भुज उठाय प्रण’ सामने रखा था कि बिना पिछड़े वर्ग के आरक्षण के पंचायत चुनाव नहीं होगे, ऐसे में सब जानना चाहेंगे कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों..।

चलिए, वह भी जान लेते हैं

सुप्रीम कोर्ट ने पंचायत चुनाव में पिछड़ा वर्ग आरक्षण के सवाल पर महाराष्ट्र के किशनराव गवली के मामले की नजीर सामने रखते हुए निर्देश दिए कि आरक्षण अजा,अजजा के ही मान्य होंगे और 30 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी, जो कि पंचायत राज अधिनियम में विहित है। सो, पिछड़े वर्ग की सीटों को सामान्य में बदलकर चुनाव कराइए। यह कांग्रेस की उस रिट पिटीशन का निपटारा था, जो उसने पंचायत चुनाव में परिसीमन, रोटेशन और आरक्षण की व्यवस्था को लेकर दायर किया था। सुई आरक्षण के आंकड़े को लेकर आगे-पीछे घूमने लगी है।

 भाजपा ने कांग्रेस पर आरक्षण रुकवाने का आरोप लगाया। इधर कांग्रेस का हाल वैसा ही हो गया है, जैसे कि- आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास। दोनों एक दूसरे पर मोहल्ला छाप आरोप मढ़ रहे हैं।

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दरअसल ये बात शुरू हुई कमलनाथ की पंद्रह महीने की सरकार से। कांग्रेस की इस सरकार ने पिछड़ा वर्ग के लिए शिक्षा संस्थानों समेत नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का फैसला लिया। नौकरी के मामले में पक्षकार हाईकोर्ट गए। हाईकोर्ट ने 27 प्रतिशत आरक्षण मान्य नहीं किया, 14 प्रतिशत के मान से ही परिणाम घोषित करने के निर्देश दिए।

यह मुकदमा अभी चल रहा है। इसी बीच पंचायत चुनावों की तिथि आ गई कमलनाथ सरकार ने पंचायत व नगरीय निकाय चुनावों में भी पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत का फैसला लिया। इस बीच उनकी सरकार गिर गई। भाजपा सरकार के सामने मजबूरी यह कि वह यह फैसला रोल बैक कर नहीं सकती। दूसरे वह तो पिछड़ों की गोलबंदी की वजह से ही सत्ता का मजा चख रही है। उसने कमलनाथ सरकार से एक कदम आगे बढ़कर मजबूती से 27 परसेंट को पकड़़ लिया। पंचायत चुनावों की घोषणा कर दी, प्रक्रिया शुरू हो गई। इसी बीच कांग्रेस के दो बंदे जया ठाकुर और जाफर मियां आरक्षण, परिसीमन और रोटेशन को मुद्दा बनाकर हाईकोर्ट और फिर सुप्रीमकोर्ट चले गए। वहां उन्हें वकील के तौर पर कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा मिल गए।

सुप्रीम कोर्ट के सामने बहस के लिए कुछ नया था ही नहीं। पिछले साल महाराष्ट्र के पंचायत व नगरीय निकाय चुनावों को लेकर जो फैसला सुनाया था उसकी रूलिंग निकाली और अपना निर्देश सुना दिया।

संविधान में पंचायत चुनाव..

भारत में पंचायती राज व्यवस्था तो पहले से थी लेकिन लेकिन इसे संवैधानिक दर्जा मिला 1993 में पंचायत राज संशोधन अधिनियम 92 के जरिए, जिसमें निर्धारित अवधि में त्रिस्तरीय चुनाव की व्यवस्था सुनिश्चित की गई। राज्यों को अधिकार दिया गया कि वे अपने-अपने निर्वाचन आयोग का गठन करें, जिनके निर्देश पर नगरीय निकाय व त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के चुनाव हों। जहाँ तक रहा आरक्षण का प्रश्न तो 73(4) में प्रावधान किया गया कि आबादी के अनुपात के आधार पर अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण सुनिश्चित करें, जो कि  22.5 प्रतिशत बना हुआ है।

दिग्विजय सरकार को जाता है श्रेय 

पंचायत राज अधिनियम में कहीं भी अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का उल्लेख नहीं है। 73(5) में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। यह आरक्षण वर्टिकल होगा, यानी कि आरक्षित और सामान्य वर्ग की सीटों में 30 प्रतिशत की भागीदारी। मध्यप्रदेश की तत्कालीन दिग्विजय सिंंह की कांग्रेस सरकार को इस अधिनियम को सफलतापूर्वक लागू करने का श्रेय जाता है। कुल मिलाकर पंचायत राज अधिनियम में चुनाव की लगभग वैसे ही आरक्षणीय व्यवस्था थी, जैसी लोकसभा और विधानसभा की सीटों के लिए होती है। विशेष बात थी महिलाओं की तीस फीसदी भागीदारी। अब सवाल उठता है कि जब संविधान में यह व्यवस्था है तो राज्यों ने अपने तईं पिछड़े वर्ग को आरक्षण किस आधार पर दिया..? उसका आधार बना अनुच्छेद 243, जिसके आधीन विधान मंडल में विधि द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई।

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राज्यों ने कानून बनाए और राजनीतिक लाभ हानि की दृष्टि से अजा-अजजा के अलावा पिछड़े वर्ग के आरक्षण को भी इसमें शामिल कर लिया। मध्यप्रदेश सरकार ने कानून बनाकर 1999 में पिछड़ा वर्ग के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया। कमलनाथ सरकार ने इसे 27 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण बढ़ाने का आधार जानना चाहा, सरकार से पूछा कि वास्तव में प्रदेश में पिछड़े वर्ग की जनसंख्या कितनी है। कांग्रेस के प्रतिनिधि ने कोर्ट को बताया कि 27 प्रतिशत..। जबकि भाजपा सरकार की ओर से इस आंकड़े का दावा 52 प्रतिशत किया जा रहा है। कोर्ट का बार बार यह जानना रहा कि इस 52 प्रतिशत का आधार क्या है..? इसका तर्कसम्मत जवाब न कांग्रेस के पास है न ही भाजपा के पास।

दरअसल 1979 में मंडल आयोग ने यह आँकड़ा 52 प्रतिशत बताया था, तब उसका आधार 1930 में हुई जातीय जनगणना के निष्कर्ष थे। यह जनगणना अंग्रेजों ने बांटो और राज करो की नीति के तहत करवाई थी।इसके बाद 2011 में आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के साथ जातीय जनगणना हुई। इसमें पिछड़े वर्ग का 42.5 प्रतिशत का आंकड़ा सामने आया। जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में पिछड़े वर्ग का आँकड़ा 38 प्रतिशत के करीब है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से यह भी संकेत उभरे कि कई राज्यों में पिछड़े वर्ग की स्थिति सामान्य से कहीं ज्यादा अच्छी है।

अदालत को कोई नहीं कर सका संतुष्ट 

उच्चतम न्यायालय के सामने पिछड़े वर्ग का सही और तर्कसंगत आंकड़ा किसी भी पक्षकार ने अब तक प्रस्तुत नहीं किया है। यह भी सबसे बड़ा पेंच है। यानी कि उच्च न्यायालय 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा को लेकर जहां प्रतिबद्ध है, वहीं वह तर्कसंगत आंकड़ों के साथ आरक्षण का आधार जानना चाहता है..। यदि शिवराज सिंह चौहान और कमलनाथ कंधे से कंधा मिलाकर सुप्रीम कोर्ट जाते भी हैं और दोबारा 22.5 धन 27 प्रतिशत बराबर 49.5 प्रतिशत यानी कि 50 प्रतिशत में .5 कम का आँकड़ा सामने रखकर आरक्षण बहाल करने की मांग करते हैं तब भी कोर्ट 14 से 25 से 27 प्रतिशत तक आरक्षण बढ़़ाने का तर्कसंगत आधार मांगेगा,जो कि हाल-फिलहाल किसी के पास नहीं। जाति आधारित जनगणना 2021 में प्रस्तावित थी जो कि कोरोना के कारण टल गई.. अब जब भी होगी तब से अंतरिम आंकड़े आने में ही दो-तीन साल लग जाएंगे।

आगे यह है संभावना…

अब आगे की संभावना की बात करें। पिछड़़ा वर्ग का तिलस्मी वोट सभी को चाहिए। भाजपा ने अपनी राजनीति का आधार ही इसे बना लिया है। कांग्रेस पीछे नहीं रहना चाहती। लालू- नीतीश-अखिलेश, ये भी पीछे क्यों रहेंं, जो इसी वर्ग की हनक पर कमा-खा रहे हैं। इन सब में एक जैसी ललक 10 अगस्त 2021 को लोकसभा में देखने को मिली। मसला था 127वां संशोधन विधेयक के रखे जाने का। एक दूसरे को काट खाने वाले सत्ता और तमाम विपक्षी दल के सांसद इस मामले में सुर से सुर मिलाते नजर आए। वजह इस विधेयक के अधिनियम बन जाने से राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों को अन्य पिछड़ा वर्ग की अपनी-अपनी सूची बनाने और उसे नोटीफाई करने की शक्तियां फिर बहाल हो जाएंगी (अधिनियम लागू हो गया और राज्यों को वह शक्ति भी मिल गई)।

अब मचेगी नए पिछड़ा वर्ग ढूंढने की होड़

अब आपको यह देखने को मिलेगा कि आसन्न जातीय जनगणना के पहले राज्यों में नए पिछड़ा वर्ग चिन्हित करने और उन्हें नोटीफाई करने की होड़ सी मच जाएगी। तब केन्द्र सरकार पर आरक्षण की सीमा रेखा बढ़ाने  का दवाब बनेगा। पिछड़ों के हित में केन्द्र सरकार यह दवाब सहर्ष स्वीकर करने के लिए आतुर बैठी है, क्योंकि तब 2024 का सवाल सामने खड़ा है..और सत्ता के सिंहासन पर बैठकर चांद किसे नहीं चाहिए।

उपसंहार

आजादी के बाद से आरक्षण की जातीय गोलंदाजी झेलते-झेलते अपना यह लोकतंत्र लंगड़ा हो गया है। प्रतिभा कुल-गोत्र के नीचे रौंदी जा रही है। अंबेडकर ने 10 वर्ष में आरक्षण की समीक्षा की बात की थी। आज वही बात कोई राजपुरुष दोहरा दे तो उसकी जीभ खींच ली जाए। 22.5 से शुरू हुआ यह आरक्षण का सांड 50 की संवैधानिक बाड़ तोड़ने को आतुर है( तामिलनाडु और राजस्थान में 69-68 प्रतिशत सुप्रीम कोर्ट की बरंबार चेतावनी के बावजूद भी)। इसकी यात्रा कहां खत्म होती है लूले लोकतंत्र को लोथ में बदल जाने के बाद या देश के भीतर  सिविल वार छिड़ने तक, कह नहीं सकते।

बात भर्तृहरि के श्लोक से शुरू की थी, समापन डा. रामधारी सिंह दिनकर #RamdhariSinghDinkar  के ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ के काव्यांश से-

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।