जीवन का राग जीत स्वयं विराग थे…

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जीवन का राग जीत स्वयं विराग थे…

फरवरी 2024 में आचार्य विद्यासागर जी के समाधिमरण को लोग अभी भूले ही नहीं थे, कि 4 जुलाई 2024 को आचार्य विरागसागर के समाधिमरण ने सभी की आंखें नम कर दीं। 11 वर्ष की आयु से वैराग्य भाव लिए गृहस्थ जीवन के अरविंद ने 20 साल में मुनि दीक्षा ली और 29 साल में आचार्य पद पा लिया था। जीवन के रागों पर पूर्ण विजय पाकर ही वह विराग बने थे और जीवन भर यह सुगंध फैलाते रहे। जैन समाज में बुंदेलखंड की धरा से इस पद तक पहुंचकर उन्होंने गौरवान्वित किया था। मानव के जीवन में उल्लास का संचार करने वाले परमपूज्य गणाचार्य श्री विराग सागर जी महाराज का व्यक्तित्व मन को छू लेने वाला था।

आचार्य विराग सागर का जन्म 2 मई 1963 को दमोह जिले के पथरिया में हुआ था। बचपन से ही सूर्य की तरह चमक और बुद्धि के धनि बालक अरविंद (बचपन का नाम) ने पथरिया के ही शासकीय प्राथमिक शाला में पांचवीं तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद 1974 में 11 वर्ष की आयु में ही उन्होंने वैराग्य का रास्ता धारण किया और पिता कपूर चंद और मां श्यामा देवी जैन के आाशीर्वाद पर वह कटनी शांति निकेतन जैन संस्कृत विद्यालय में पढऩे के लिए चले गए। जहां धार्मिक, शास्त्र और लौकिक शिक्षा से मेट्रिक पास की। इसके बाद वह शास्त्री बन गए और साधु, संतों के साथ रहते हुए अरविंद का ज्ञान और बढ़ता गया। यही समय था कि उन्होंने जिन शासन में अपना योगदान देने का मन बना लिया था। धर्म की राह पर निकले अरविंद ने फिर घर की ओर नहीं देखा। यही वजह थी 1980 में वह समय आया जब उनकी शिक्षा, त्याग और ज्ञान को गुरु का आशीर्वाद मिला। तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मति सागर ने मप्र के शहडोल जिले के बुढ़ार में अरविंद शास्त्री को 20 फरवरी 1980 को क्षुल्लक दीक्षा दी। तब अरविंद 17 साल के ही थे। साथ ही उन्हें नई पहचान क्षुल्लक पूर्णसागर के रूप में मिली। गुरू से क्षुल्लक दीक्षा के बाद उनकी तपस्या और बढ़ गई। जिसे देख आचार्य विमलसागर महाराज ने 9 दिसंबर 1983 यानि 20 वर्ष की उम्र में उन्हें मुनि दीक्षा दी और यहीं सें उनका नाम मुनि विराग सागर हुआ। विराग सागर को मुनि दीक्षा महाराष्ट्र के औरंगाबाद में मिली थी। मुनि रहते विरागसागर ने त्याग और तपस्या बढ़ाई। अनेक जगहों पर विहार कर धर्म प्रभावना बढ़ाई। जिसे देख गुरू आचार्य विमलसागर ने 8 नवंबर 1992 को मप्र के छतरपुर जिले के द्रोणागिरी में मुनि विरागसागर को आचार्य पद जैसी बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी। तब उनकी उम्र महज 29 वर्ष ही थी। 29 की उम्र में ही आचार्य पद की जिम्मेदारी मिलने के बाद विराग सागर ने जैन संस्कृति की धर्म प्रभावना को ऐसा बढ़ाया कि हर युवा उनसे प्रभावित होने लगा। न सिर्फ बुंदलेखंड, मध्यप्रदेश बल्कि उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र सहित अन्य प्रांतों में विहार करते हुए धर्म पताका फहराया। इस दौरान आचार्य विरागसागर ने संघ में 94 मुनियों, 73 आर्यिकाओं, 5 ऐलक, 23 क्षुल्लक, 32 क्षुल्लिका दीक्षाएं देकर युवाओं को मोक्ष मार्ग की और प्रशस्त किया। इस तरह करीब 222 साधु, साध्वियां विराग सागर के बड़े संघ में हैं। इसके अलावा 110 ऐसे वृद्धजनों को दीक्षा देकर संलेखना की ओर ले गए, जिनका जीवन पूरी तरह धर्म में व्यतीत रहा हो। आचार्य विराग सागर ने अपने शिष्यों के ज्ञान की परख करते हुए बीच में ही 9 मुनियों को आचार्य पद दे दिया था। इसीलिए बुंदलेखंड के प्रथम आचार्य विराग सागर को अब गणाचार्य की उपाधि मिल चुकी थी।

आचार्य विराग सागर महाराज का मानना था कि इस भौतिक युग में व्यक्ति की इच्छाएं अनंत हैं। एक इच्छा पूरी होते ही तुरंत दूसरी इच्छा जागृत हो जाती है। इंसान दिन-रात रोटी कपड़ा और मकान की पूर्ति में ही लगा रहता है। सदैव पैसा कमाने में ही लगा रहता है। वह कहते थे कि तुम दूसरों का बुरा सोचना बंद कर दो। जो दूसरों का भला सोचेगा, पहले उसका भला होगा। ध्यान रखना तुम्हारे बुरा सोचने से किसी का बुरा होने वाला नहीं है। फिर क्यों दूसरों के विषय में बुरा सोच कर अपने कर्म बांधते हो। तुम्हारे अच्छा सोचने से उसका अच्छा हो या न हो, लेकिन नियम से तुम्हारा अच्छा होगा। ऐसे राष्ट्रसंत गणाचार्य विरागसागर महाराज की संलेखना समाधि बुध-गुरुवार की मध्यरात्रि 2.30 बजे महाराष्ट्र के जालना में हो गई। इस तरह 2024 में जैन श्रमण संस्कृति के दो बड़े संघों के आचार्यों की समाधि होने से सभी स्तब्ध हैं। फरवरी में आचार्य विद्यासागर के बाद अब दूसरे बड़े संघ के आचार्य विराग सागर की समाधि हुई है। कुंडलपुर में विराजमान आचार्य समय सागर ने भी आचार्य विरागसागर को श्रमण संस्कृति की बड़ी क्षति बताया है। वास्तव में आचार्य विरागसागर जी महाराज जीवन का राग जीत स्वयं विराग थे.

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