झूठ बोले कौआ काटे ! फिलहाल अजेय हैं पीएम नरेंद्र मोदी

झूठ बोले कौआ काटे ! फिलहाल अजेय हैं पीएम नरेंद्र मोदी

क्या भाजपानीत एनडीए के विरूद्ध एकजुट होकर भी विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर सकता है? आंकड़ें और हालात तो बता रहे कि नरेंद्र मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव में भी अजेय रहने वाले हैं। एक तरफ, वैश्विक लोकप्रियता साल-दर-साल बढ़ती जा रही, दूसरी तरफ, कोई दाग है न सत्ता विरोधी लहर, न चुनौती देने वाला कोई सर्वमान्य चेहरा।

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना सहित कई महत्वपूर्ण राज्यों में भी इस साल विधानसभा चुनाव होंगे। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम से बल्ले-बल्ले कर रही कांग्रेस और गद्गद् विपक्ष की गोलबंदी को महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी एनसीपी को तोड़ कर भाजपा ने जोरदार झटका दे दिया। यही नहीं, पीएम मोदी ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की जोरदार वकालत करके विपक्षी एकजुटता में पेंच फंसा दिया है।

पीएम मोदी का सवाल है, “देश दो नियमों के साथ कैसे चल सकता है।” “आप मुझे बताएं, क्या कोई परिवार चल सकता है अगर एक सदस्य के लिए एक कानून हो और अन्य के लिए दूसरा? क्या यह कभी चल सकता है?

मोदी ने अपनी टिप्पणी में इस बात पर भी जोर दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने भी यूसीसी का समर्थन किया है और संविधान में भी इसका उल्लेख है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि अगर यह इस्लाम का जरूरी सिद्धांत रहा है तो कतर, जॉर्डन, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में इस पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया।

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शिव सेना (उद्धव ठाकरे गुट) ने प्रतिक्रिया में कहा कि यूसीसी पर ड्राफ़्ट आने के बाद ही पार्टी अपना रुख़ तय करेगी। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सोच भी यही है। एनसीपी ने फ़िलहाल तटस्थ रवैया अपनाया है अर्थात् न वो इसके समर्थन में है और न ही विरोध में। जदयू नेता केसी त्यागी ने यूसीसी को नाज़ुक मुद्दा बताते हुए इस पर आम राय बनाने की कोशिश की मांग की। वहीं, जदयू की सहयोगी आरजेडी के सांसद मनोज झा ने कहा कि इसे हिंदू मुस्लिम का मुद्दा मत बनाइए। यह आदिवासी रीति-रिवाजों का भी मामला है। दूसरी ओर, तृणणूल कांग्रेस ने विपक्षी एकजुटता पर उठते सवालों को ख़ारिज कर दिया है।

एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी सहित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद सहित मुस्लिम समूहों ने भी पीएम के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और कहा कि यूसीसी “संविधान की भावना के अनुरूप नहीं है जो सभी को अपने धर्म और प्रथा का पालन करने के लिए सुरक्षा और स्वतंत्रता प्रदान करता है।”

झूठ बोले कौआ काटेः

कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम से बल्ले-बल्ले कर रही कांग्रेस ने 2018 में भी यहां जद-एस के साथ मिल कर गठबंधन सरकार बनाई थी। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर भी बहुमत से दूर रह गई थी। लेकिन, भगवा पार्टी अगले ही साल कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 25 जीत गई, कांग्रेस-जद एस को मात्र एक-एक सीट पर ही संतोष करना पड़ा।

2019 में यही हाल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिला। 2018 की सर्दियों में जिस कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा की गिल्लियां बिखेर दीं, राजस्थान में बसपा के छह विधायकों के समर्थन से साधारण बहुमत हासिल किया और मध्य प्रदेश में कड़ी टक्कर देकर भाजपा को उखाड़ फेंका, वहां पांच महीनों में ही हवा बदल गई। 2019 के लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस छत्तीसगढ़ में केवल दो सीटें जीत सकी, मप्र में सिर्फ एक, और राजस्थान में तो एक भी सीट नहीं जीत सकी।

बोले तो, राज्यों के चुनाव बड़े पैमाने पर स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और क्षेत्रीय नेताओं की लोकप्रियता परिणाम में प्रमुख भूमिका निभाती है। हालांकि, यह भी सही है कि कर्नाटक में हार के कारण भाजपा के मिशन-दक्षिण को झटका लगा है। दक्षिण भारत में लोकसभा की कुल 129 सीटें हैं, इनमें से भाजपा के पास अभी सिर्फ 29 सीटें हैं।

तेलंगाना में भाजपा की सीटें बढ़ सकती हैं क्योंकि यहां कांग्रेस कमजोर हो गई है। यहां भाजपा और तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस के बीच द्विध्रुवीय बराबरी का मुकाबला होगा। दोनों दल 17 में से 8-8 सीटें जीत सकते हैं। पांडिचेरी में एकमात्र सीट एनडीए जीतेगी। केरल की राजनीति में भाजपा कोई खिलाड़ी नहीं है, संभावनाएं सीमित हैं। आंध्र प्रदेश में भी भाजपा कमजोर है, यदि वह टीडीपी और जन सेना के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ती है तो गठबंधन को कुछ सीटें मिल सकती हैं। यहां दो धड़ों में बंटी भाजपा की सहयोगी पार्टी एडीएमके यदि एकजुट हो गई तब भी 5 से 10 सीटें मिल सकती हैं।

2019 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने हिन्दी पट्टी के राज्यों में 212 सीटें जीतीं जिसमें अकेले भाजपा ने 183 सीटें जीतीं। हिन्दी पट्टी का सबसे बड़ा राज्य उप्र 80 लोकसभा सदस्य चुनता है। भाजपा ने 2014 में 71 (+2) और 2019 में 62 (+2) सीटें जीती थीं। इस बार उप्र के सीएम योगी आदित्यनाथ के दम पर भाजपा गठबंधन विहीन विपक्ष का पूरी तरह सूपड़ा साफ करने के फेर में है। कुछ ऐसा ही उत्तराखंड (5), हिमाचल प्रदेश (4), राजस्थान (26) और दिल्ली (7) में भी लगातार तीसरी बार देखने को मिल सकता है। हरियाणा में यदि भाजपा जेजेपी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ती है तो भी कुल मिला कर परिणाम एनडीए के पक्ष में ही जाने की संभावना है।

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बिहार में भाजपा का मुकाबला राजद, जदयू, कांग्रेस और वामपंथी दलों के मजबूत गठबंधन से होगा। लेकिन ऐसा उसके लिए पहली बार नहीं है क्योंकि उसने 2014 में राजद+कांग्रेस और जदयू गठबंधन का सामना किया था और कुल 31 सीटें जीती थीं। 2014 की तरह इस बार भी वे लोजपा, आरएलएसपी, हम और वीआईपी जैसे छोटे दलों के साथ जाएंगे। शिक्षकों के मुद्दे पर पुलिस की बर्बरता का चुनावी लाभ भी आगे चल कर भाजपा का पलड़ा भारी करे, तो कोई आश्चर्य नहीं। झारखंड में भी 2014 और 2019 की तरह ही परिणाम आ सकते हैं।

जम्मू-कश्मीर की 6 सीटों में भाजपा की 3 सीटें बरकरार रहें तो कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। पंजाब की 13 सीटों में मात्र दो हिन्दू बहुल सीटें भाजपा के पास हैं। तीन कृषि कानूनों को लेकर भाजपा से नाता तोड़ने वाला शिरोमणि अकाली दल फिर साथ आता है, तो आंकड़े और बढ़ सकते हैं। यही नहीं भाजपा में अनेक कांग्रेस नेताओं के शामिल होने का भी फायदा उसे मिल सकता है।

पश्चिम भारत में कुल 78 सीटें हैं। भाजपानीत एनडीए ने 69 सीटें जीतकर दो राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। गुजरात में भाजपा की राह बहुत आसान है। महाराष्ट्र में उसके सहयोगी से दुश्मन बनी शिवसेना और अब एनसीपी के भी दो फाड़ होकर एक गुट का भाजपा के साथ कंधे से कंधा मिलाना भविष्य की कहानी सुना रहा है।

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दादरा और नगर हवेली सीट पर 2009 से भाजपा जीतती आ रही है लेकिन 2019 में कांग्रेस से बागी होकर खड़े हुए एक निर्दलीय ने सीट जीत ली। और 2021 में उपचुनाव में शिवसेना ने यह सीट जीती, जो महाराष्ट्र के बाहर उसकी पहली लोकसभा थी। यह सीट भाजपा या शिवसेना जीतेगी. दमन और दीव भाजपा का गढ़ है और 2009 से वह यहां जीतती आ रही है। वह यह सीट आराम से जीत लेगी। नॉर्थ गोवा सीट भाजपा का गढ़ है और वह 2009 से इस सीट पर जीत हासिल कर रही है। साउथ गोवा हर 5 साल में अपना सांसद बदलता रहा है और यह ट्रेंड इस बार भाजपा के पक्ष में है।

पूर्वी भारत की 63 सीटों में भाजपा ने पिछली बार 26 सीटें जीती थीं। इसमें पश्चिम बंगाल की 18 सीटें और ओडिशा की 8 सीटें शामिल हैं। नरम-गरम इन आंकड़ों में फेरबदल भले हो जाए, कुल संख्या कम होने के कोई संकेत नहीं।

पूर्वोत्तर भारत की 23 में से भाजपा ने 12 सीटें जीतीं थीं और उसके सहयोगियों ने अपनी सभी 5 सीटें जीतीं। असम, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम में इतिहास दोहराए जाने के आसार हैं। केंद्र शासित प्रदेश अंडमान और लक्षद्वीप की 2 सीटों में अंडमान सीट इस बार भाजपा के पाले में जा सकती है, क्योंकि यह एक स्विंग सीट है।

ऐसा प्रतीत होता है कि लोकसभा की 541 सीटों में से भाजपा 350 सीटें जीतने के अपने लक्ष्य के बिल्कुल करीब है। एनडीए की बात करें तो यह संख्या 400 के आसपास पहुंच सकती है। वोटों में स्विंग के पिछले चुनावी आंकड़ों को दृष्टिगत रखते हुए यदि एनडीए के विरूद्ध 5 प्रतिशत वोटों में गिरावट मान भी लें तो भी दो तिहाई बहुमत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की केंद्र की सत्ता में हैट्रिक लगने में कहीं कोई संदेह नहीं है।

पीएम मोदी ने समान नागरिक संहिता की बात कहकर विपक्ष के सामने एजेंडा भी सेट कर दिया है। गोवा, गुजरात, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश की कई राज्य सरकारों ने अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लाने की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं।

और ये भी गजबः

समान नागरिक संहिता के लिए बहस भारत में औपनिवेशिक काल से शुरू होती है और आजादी के बाद अब तक इस पर बहस जारी है। आजादी से पहले अक्टूबर 1840 की लेक्स लोकी रिपोर्ट में भारतीय कानून में एकरूपता के महत्व पर जोर दिया गया। हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इससे बाहर रखे जाने की बात कही गई। 1859 में रानी की उद्घोषणा में धार्मिक मामलों में पूर्ण-गैर-हस्तक्षेप का वादा किया गया।

पूरे देश में आपराधिक कानून समान कर दिए गए। पर्सनल लॉ में कोई छेड़छाड़ नहीं किया गया। आजादी के बाद 1947 से 1985 की अवधि में जवाहर लाल नेहरू और डॉ. बीआर अंबेडकर जैसे नेताओं ने समान नागरिक संहिता पर जोर दिया। यूसीसी को राज्य के नीति लिर्देशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 44) में शामिल किया गया। हालांकि, धार्मिक कट्टरपंथियों और लोगों ने खूब विरोध जताया। बाद में, हिंदू कोड बिल, उत्तराधिकार अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत कई सुधार किये गए। तब भी खूब विरोध हुआ था। अब यूसीसी पर अल्पसंख्यक समुदाय खासतौर से मुस्लिम समाज जबरदस्त विरोध कर रहा है।