झूठ बोले कौआ काटे ! यूनिफॉर्म सिविल कोड, हाय री वोट की राजनीति

झूठ बोले कौआ काटे ! यूनिफॉर्म सिविल कोड, हाय री वोट की राजनीति

– रामेन्द्र सिन्हा

समान नागरिक संहिता पर एक बार फिर राजनीतिक घमासान छिड़ गया है। प्रश्न तो यह है कि संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल इस मुद्दे के साथ वोट बैंक की राजनीति किसने की, जबकि शाहबानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय भी कह चुका है कि ‘संसद को एक सामान्य नागरिक संहिता की रूपरेखा को रेखांकित करना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा देता है।‘

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने घोषणा की है कि वे शीघ्र ही राज्य में समान नागरिक संहिता लागू कर देंगे। यह भाजपा का पायलट प्रोजेक्‍ट होगा। उधर, भारत के विधि आयोग ने 14 जून, 2023 को समान नागरिक संहिता पर राय और टिप्पणियां मांगने के लिए एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया है। यह 21वें विधि आयोग द्वारा अगस्त 2018 में इसी मुद्दे पर एक परामर्श पत्र जारी करने के बाद पांच साल के अंतराल पर आया है।

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने तो पिछले साल ही मंशा जता दी थी कि अनुच्छेद 370 और राम मंदिर के बाद अब समान नागरिक संहिता की बारी है। उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो 9 वर्ष पहले ही बतौर भाजपा सांसद समान नागरिक संहिता का मुद्दा संसद में उठाते हुए इसे देश की एकता-अखंडता के लिए जरूरी बताया था।

झूठ बोले कौआ काटे ! यूनिफॉर्म सिविल कोड, हाय री वोट की राजनीति

पिछले साल, गुजरात और उत्तराखंड सरकार ने विचार-विमर्श तथा समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए समितियों का गठन तक कर दिया। मध्य प्रदेश और हरियाणा में भी कानून लागू करने की तैयारी है। मप्र के सीएम शिवराज सिंह चौहान ने दिसंबर 2022 में समान नागरिक संहिता के लिए समिति बनाने का ऐलान किया तो हरियाणा के गृह मंत्री अनिज विज ने कहा कि जिन प्रदेशों में नागरिक समान संहिता लागू करने की योजना पर काम हो रहा है, उनसे हम सुझाव ले रहे हैं।

कांग्रेस समेत कुछ अन्य विपक्षी दल सीएम धामी की ताजातरीन घोषणा और विधि आयोग की पहल से बौखला गए हैं। उनका आरोप है कि मोदी सरकार अपनी विफलताओं से ध्यान भटका रही है और ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को वैधानिक रूप से जायज ठहराने के लिए व्याकुल है। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने संसद में बहस कराने की मांग की। वहीं, समान नागरिक संहिता पर धार्मिक निकायों से भी राय मांगे जाने को लेकर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने आरोप लगाया कि देश की सरकार ‘राजनीति में धर्म गुरुओं को ला रही हैं’। धर्म गुरुओं को मठ चलाना चाहिए और पूजा करनी चाहिए। वे (केंद्र सरकार) उनका प्रवेश कराकर हंगामा कर रहे हैं।

भाजपा ने कांग्रेस की टिप्पणी को लेकर आरोप लगाया कि वह कट्टरपंथियों के दबाव में आ गई है और वोट बैंक की राजनीति के लिए इस कदम का विरोध कर रही है। यह कुछ ऐसा है जिसे कांग्रेस को अपनाना चाहिए था क्योंकि यह जवाहरलाल नेहरू (पहले प्रधानमंत्री) और संस्थापक (संविधान के) थे, जिनमें से कई कांग्रेस से थे और जिन्होंने समान नागरिक संहिता की वकालत की थी।

दूसरी ओर, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का आरोप है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने का सरकार का फैसला नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा। यह कानून देशहित में नहीं है। भाजपा इसे चुनावी मुद्दे के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है।

झूठ बोले कौआ काटेः

समान नागरिक संहिता भारतीय संविधान में एक निर्देशक सिद्धांत के रूप में शामिल किया गया है। अध्याय IV के अनुच्छेद 44 में कहा गया है, ‘राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों को एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।‘

1985 में शाहबानो तलाक मामले में एक मुस्लिम महिला के अधिकारों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘संसद को एक सामान्य नागरिक संहिता की रूपरेखा को रेखांकित करना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा देता है।‘

शाहबानो मामला ही नहीं, नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी), जुम्मे पर स्कूलों में छुट्टी और हिजाब पर बवाल हो या दूसरी शादी के लिए मुस्लिम बनने वाले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के पुत्र चंद्रमोहन और हरियाणा की पूर्व असिस्टेंट एडवोकेट जनरल अनुराधा बाली उर्फ फिजा के निकाह जैसे किस्से, समान नागरिक संहिता हमेशा बहस का मुद्दा बनता रहा है।

2015 में एबीसी बनाम दिल्ली राज्य मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ईसाई कानून के तहत ईसाई महिलाओं को अपने बच्चों के ‘प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मान्यता नहीं’ दी जाती है, भले ही हिंदू अविवाहित महिलाएं अपने बच्चे की ‘प्राकृतिक अभिभावक’ हों। तब भी, सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि समान नागरिक संहिता ‘एक अनसुलझी संवैधानिक अपेक्षा बनी हुई है’। देश की शीर्ष अदालत की ओर से कई बार कहा गया कि देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बन जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर 2019 में निराशा जताई थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई ठोस कोशिश नहीं की गई है।

जबकि, समान नागरिक संहिता के विरोध में तर्क देने वालों का कहना है कि संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 25 से 28 के बीच हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। इसलिए, हर धर्म के लोगों पर एक समान पर्सनल लॉ थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करना है। मुस्लिम इसे उनके धार्मिक मामलों में दखल मानते हैं।

बोले तो, संविधान निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर अंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के समर्थन में थे। आजाद भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के लिए अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता को बेहद जरूरी बताया था। लेकिन, वोट बैंक की राजनीति इसमें एक बड़ी बाधा बनी।

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मुस्लिम नेताओं के भारी विरोध के कारण देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समान नागरिक संहिता पर आगे नहीं बढ़े। जबकि, 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल लेकर आए। हिंदू विवाह कानून 1955, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण कानून 1956 और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता कानून 1956 लागू हुए। इससे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने जैसे नियम संसद में बने कानून से तय होने लगे। लेकिन, मुस्लिम, ईसाई और पारसियों को अपने-अपने धार्मिक कानून के हिसाब से शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दे को तय करने की छूट बरकरार रही।

अभी, भारत में विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून बड़े पैमाने पर उनके धर्म द्वारा शासित होते हैं। जबकि, दुनिया के लगभग सभी देशों में उनके सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता है। समान नागरिक संहिता होने से देश की अदालतों पर लगातार बढ़ते मुकदमों के बोझ को हल्का करने में भी मदद मिलेगी क्योंकि इन धार्मिक कानूनों की वजह से चल रहे दीवानी यानी सिविल मुकदमे अपने आप खत्म हो जाएंगे। अभी हिंदू कानून वेद पुराण, स्मृति आदि के आधार पर तो मुस्लिम पर्सनल लॉ कुरान, सुन्नत, इज्मा, कयास और हदीस के आधार पर हैं। इसी तरह ईसाइयों का कानून बाइबिल, पुराने अनुभव, तर्क और रूढ़ियों के आधार पर जबकि पारसियों का कानून उनके पवित्र धार्मिक ग्रंथ जेंद अवेस्ता पर आधारित है।

भाजपा ने समान नागरिक संहिता को पिछले चुनावों के दौरान अपने घोषणापत्र का हिस्सा बनाया। नवंबर 2019 और मार्च 2020 में इस पर विचार के लिए संसद में दो बार निजी विधेयक पेश किए गए, लेकिन विपक्ष के भारी विरोध के कारण इन्हें वापस ले लिया गया। एक बार फिर, एक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने का वक्त आ गया है। वरना, कब तक देश वोटबैंक की राजनीति का शिकार होता रहेगा!

और ये भी गजबः

पैंतीस मुस्लिम-बहुल और 18 मुस्लिम-अल्पसंख्यक देश औपचारिक रूप से मुस्लिम पर्सनल कानूनों  को अपनी कानूनी व्यवस्था में एकीकृत करते हैं और उन्हें राज्य अदालतों के माध्यम से लागू करते हैं। मुस्लिम-बहुल और मुस्लिम-अल्पसंख्यक दोनों सरकारों ने मौलिक मानवाधिकारों पर धार्मिक कानूनों के प्रभाव को कम करने, जवाबदेही और पहुंच बढ़ाने और अपने मुस्लिम पर्सनल कानून सिस्टम के भीतर कानून के शासन को मजबूत करने के लिए विधायी सुधार किए हैं। भारत को छोड़कर दूसरे देशों में मुस्लिम पर्सनल लॉ में काफी सुधार हुए हैं। मुस्लिम बहुल देशों की बात करें तो बहुविवाह और तीन तलाक जैसी लैंगिक असमानता वाली प्रथाओं को भी समाप्त कर दिया गया है। ट्यूनीशिया, तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, इराक, सोमालिया, सीरिया, मिस्र, मोरक्को, ईरान जैसे देशों में एक से अधिक पति-पत्नी होने के कृत्य को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया गया है। जबकि, भारत में 1930 के दौर में बना मुस्लिम पर्सनल लॉ अभी तक लोगों पर थोपा जा रहा है।