झूठ बोले कौआ काटे! हंगामा है क्यों बरपा? सच ही तो दिखाया है

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झूठ बोले कौआ काटे! हंगामा है क्यों बरपा? सच ही तो दिखाया है

धीरेन्द्र शास्त्री अर्थात् बागेश्वर बाबा सच ही तो कहते हैं कि ‘मैं फिल्म बनाने वालों को कहना चाहता कि अगर उनके बाप में दम हो तो किसी दूसरे धर्म पर फिल्म बनाकर दिखाएं, भारत में रहना मुश्किल हो जाएगा’। ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ के बाद अब फिल्म ‘72 हूरें’ और ‘अजमेर 92’ को लेकर बवाल मचा है। जबकि, सभी फिल्में सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं और इस तथ्य को उजागर करती हैं कि किस तरह एक समुदाय विशेष के कुछ लोग दूसरे समुदाय को निशाना बनाते हैं।

‘द कश्मीर फाइल्स’ में कश्मीरी पंडितों के पलायन की कहानी दिखाई गई थी। वहीं ‘द केरल स्टोरी’ केरल की हजारों लड़कियों का ब्रेनवॉश और धर्मांतरण के खेल पर आधारित है। कश्मीर और केरल के बाद अब 14 जुलाई 2023 को अजमेर की कहानी पर जो फिल्म आने जा रही है, उस घटना ने 1992 में पूरे देश को हिला दिया था। तब, अजमेर शहर ने वो खौफनाक मंजर देखा जिसमें एक के बाद एक कई लड़कियां पेड़ों पर लाश बन कर लटकी नजर आईं। इसे भारत का सबसे बड़ा गैंगरेप कांड माना जाता है, जिसमें एक धर्म विशेष की लड़कियों को टॉरगेट करके न्यूड फोटो की आड़ में ब्लैकमेल करके उनका रेप किया गया था।

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‘अजमेर 92’ का जो पोस्टर आया है वो कई अखबार कटिंग का कोलाज है, जिनके सनसनीखेज शीर्षक हेडलाइन्स हैं- ‘250 कॉलेज गर्ल्स हुईं शिकार, बटने लगी न्यूड फोटो’, ‘एक के बाद एक सुसाइड से उठा परदा’, ‘आत्महत्या नहीं हत्या है और इसके पीछे शहर के बड़े लोगों का हाथ है।’

अदालत के दस्तावेज और इस मामले से जुड़े लोगों के बयान तथा मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो इस कांड की बुनियाद 1990 में पड़ी। गैस कनेक्शन पाने और कांग्रेस में शामिल होने के लिए लालायित अजमेर के एक स्कूल की लड़की को फंसाकर उसके न्यूड फोटोज क्लिक गए थे। यह तो केवल शुरुआत थी। आरोपियों ने पीड़िता को अन्य लड़कियों से उन्हें मिलवाने के लिए मजबूर किया और फिर एक चेन बनती गई। जाल में फंसी लड़कियों की बलात्कार वाली तस्वीरों के जरिए उनसे उनकी दोस्त, बहन और भाभी को भी बुलाने के लिए कहा जाता था। जबरन उन सभी का भी यौन शोषण किया जाता था। इस कांड के भंडाफोड़ के बाद हालात ये हो गए थे कि अजमेर में लड़के का रिश्ता करने में लोग घबराने लगे थे।

हर कोई जानता था कि आरोपी कौन हैं। वे थे मशहूर चिश्ती जोड़ी फारूक और नफीस – जो अजमेर शरीफ दरगाह के खादिम परिवार से संबंधित थे, और उनके दोस्तों का गिरोह। वहीं, फारुक चिश्ती अजमेर युवा कांग्रेस का अध्यक्ष था, तो नफीस चिश्ती उपाध्यक्ष था।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने फिल्म पर बैन लगाने की मांग की है। आरोप है कि यह फिल्म दरगाह अजमेर शरीफ को बदनाम करने के उद्देश्य से बनाई गई है। मौलाना महमूद मदनी के मुताबिक, ‘आपराधिक घटनाओं को धर्म से जोड़ने के बजाय इसके विरुद्ध संयुक्त संघर्ष की जरूरत है।

झूठ बोले कौआ काटे! हंगामा है क्यों बरपा? सच ही तो दिखाया है

‘72 हूरें’ एक ऐसी फिल्म है जो बताती है कि किस प्रकार आतंकियों को ट्रेनिंग के दौरान यह विश्वास दिलाया जाता है कि मरने के बाद जन्नत में उनकी सेवा 72 कुंवारी लड़कियां करेंगी। 7 जुलाई को प्रदर्शित होने जा रही इस फिल्म की थीम है कि जिहाद के नाम पर कैसे आतंकवाद बढ़ता है, लोगों को ब्रेनवॉश करके उनके दिमाग में जहर भरकर काफिरों पर हमला करने के लिए उन्हें आंतकी बनाया जाता है। फिल्म में याकूब मेमन, ओसामा बिन लादेन, अजमल कसाब, मसूद अजहर, हाफिज सईद, सादिक सईद, बिलाल अहमद और हाकिम अली जैसे खूंखार आतंकवादियों की तस्वीर और नाम के साथ जिक्र है।

’72 हूरें’ फिल्म को साल 2019 में गोवा में आयोजित हुए ‘इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया’ में दिखाया गया था। संजय पूरन सिंह चौहान को साल 2021 में फिल्म के लिए बेस्ट डायरेक्टर का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन, सोशल मीडिया पर कुछ लोग इसे इस्लाम की छवि खराब करने वाली फिल्म बताकर विरोध कर रहे हैं।

झूठ बोले कौआ काटेः

अजमेर गैंगरेप मामला शासन, प्रशासन और न्यायपालिका के मुंह पर एक खुला घाव और तमाचा है। 1992 के बाद से, इस मामले ने सिस्टम के चक्रव्यूह में फंस कर कई अलग-अलग मुकदमों, अपीलों और कुछ लोगों के बरी होने के साथ एक जटिल और लम्बा कानूनी रास्ता तय किया है।

कुल मिलाकर अठारह लोगों को आरोपी के रूप में नामित किया गया था, जिनमें से एक ने 1994 में आत्महत्या कर ली थी। मुकदमे चलाये जाने वाले पहले आठ संदिग्धों को 1998 में जिला सत्र अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन साल 2001 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने उनमें से चार को बरी कर दिया था और फिर सुप्रीम कोर्ट ने साल 2003 में बाकी आरोपियों की सजा को घटाकर 10 साल कर दिया। बाकी संदिग्धों को अगले कुछ दशकों में गिरफ्तार किया गया और उनके मामलों को अलग-अलग समय पर ट्रायल के लिए भेजा गया।

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फारूक चिश्ती ने दावा किया कि वह मुकदमे का सामना करने के लिए मानसिक रूप से अक्षम है, लेकिन 2007 में, एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 2013 में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि उसने पर्याप्त समय कैद में बिता दिया है और इस वजह से उसे रिहा कर दिया गया।

नफीस चिश्ती, जो एक हिस्ट्री-शीटर था और जो नशीली दवाओं की तस्करी के मामलों में भी वांछित था, 2003 में उस वक्त तक फरार रहा था जब दिल्ली पुलिस ने उसे पहचाने जाने से बचने के लिए बुर्का पहने हुए पकड़ा था। एक अन्य संदिग्ध इकबाल भट 2005 तक गिरफ्तारी से बचता रहा, जबकि सुहैल गनी चिश्ती ने 2018 में आत्मसमर्पण कर दिया।

इस तरह के हर घटनाक्रम के बाद वैसी पीड़िताओं को जो अभी भी गवाही देने की इच्छुक या सक्षम थीं, वापस अदालत में घसीटा गया। फिलहाल छह आरोपियों- नफीस चिश्ती, इकबाल भट, सलीम चिश्ती, सैयद जमीर हुसैन, नसीम उर्फ टार्जन और सुहैल गनी पर पॉक्सो कोर्ट में मुकदमा चल रहा है, लेकिन वे सभी जमानत पर बाहर हैं। एक और संदिग्ध, अलमास महाराज, कभी पकड़ा ही नहीं गया और उसके बारे में माना जाता है कि वह अमेरिका में रह रहा है। उसके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट और रेड कॉर्नर नोटिस जारी हो चुका है।

तीन दशक लंबी कानूनी प्रक्रिया में अधिकारी बदलते रहे, पीड़िताओं ने बदनामी से बचने के लिए शहर छोड़ दिया, तो राजनीतिक-रसूख के दबाव में कमजोर पैरवी का असर यह हुआ कि मात्र 17 पीड़िताओं ने अपने बयान दर्ज किए, जिनमें से अधिकांश अंततः अपनी बात से पलट गईं। कम-से-कम तीन पीड़िताओं ने अदालत में अपना बयान दर्ज कराने के बाद आत्महत्या की कोशिश की। पीड़िताओं में से कई अब दादी-नानी भी हैं, और उन्हें न्याय की उम्मीद भी नहीं रही।

4. मैं एक दादी हूं

बोले तो, किसी आरोपी के आत्मसमर्पण करने या उसके गिरफ्तार होने पर अदालतों ने हर बार इन पीड़िताओं को तलब किया। दरअसल, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 273 के तहत, अदालत को आरोपी की उपस्थिति में पीड़िता की गवाही दर्ज करनी होती है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो दादी-नानी की उम्र में पहुंची इन महिलाओं को फिर से आघात पहुंचाती है। इस बात की पूरी संभावना है कि कुछ बातें कभी सामने नहीं आईं।

दिसंबर 2021 में तो एक गैंगरेप पीड़िता का गुस्सा पॉक्सो कोर्ट में फूट पड़ा था। वह जज, वकीलों और अदालत में मौजूद आरोपियों पर चिल्लाते हुए बोल उठी, ‘आप लोग मुझे अब भी बार-बार कोर्ट क्यों बुला रहे हो? 30 साल हो गए… मैं अब एक दादी हूं, मुझे अकेला छोड़ दो।’ सारी अदालत सन्न रह गयी। उसने नाराजगी जताते हुए कहा, ‘हमारे पास अब परिवार हैं। हम उन्हें क्या कहेंगे?’

इस केस की पीड़िताएं तीन दशक बाद अब भी हक की लड़ाई लड़ रही हैं तो, ‘अजमेर 92’ फिल्म के प्रदर्शन को लेकर बवाल क्यों? फिल्म उन तमाम सवालों को उठाएगी जो 1992 सेक्स कांड के दौरान पूछे नहीं जा सके थे, या किसी ने बोलने की हिम्मत नहीं जुटाई। इसी प्रकार, फिल्म ’72 हूरें’ के प्रदर्शन का विरोध भी मायने नहीं रखता है।

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ये फिल्में समाज को किस तरह जागरूक करती हैं, इसका एक उदाहरण है, खजराना की यह घटना। फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ देखकर एक छात्रा ने लव जिहाद के खिलाफ अवाज उठाई और धर्मांतरण का दबाव बना रहे मुस्लिम युवक मोहम्मद फैजान को गिरफ्तार करवाया। आरोपित चार साल से शोषण कर रहा था। छात्रा तीन दिन पूर्व ही फिल्म देख कर आई थी। फैजान से हिंदू युवतियों के साथ हुए शोषण की चर्चा की तो वह भड़क गया।

और ये भी गजबः

वर्ष 2015 में अहमदाबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर धीरज शर्मा ने एक अध्ययन में पाया कि कैसे बॉलीवुड की फिल्में हिंदू धर्म के खिलाफ लोगों के दिमाग में धीमा जहर भरने का प्रयास कर रही हैं। रिसर्च के अनुसार बॉलीवुड फिल्मों में 58 प्रतिशत भ्रष्ट नेताओं को एक ब्राह्मण के तौर पर दिखाया जाता है। वहीं, इन फिल्मों में 62 फीसदी बेईमान कारोबारी के तौर पर वैश्य सरनेम वाले को दिखाया जाता रहा है। 74% सिखों को इन फिल्मों में मजाक का पात्र बनाया गया। जबकि 84 प्रतिशत मुस्लिम किरदारों को अपने धर्म में पूर्ण विश्वास रखने वाला, ईमानदार और उसूलों का पक्का जैसा दिखाया गया।

झूठ बोले कौआ काटे! हंगामा है क्यों बरपा? सच ही तो दिखाया है

इससे पता चला कि फिल्मों के माध्यम से बॉलीवुड हिंदू धर्म को बदनाम करने में कोई कमी नहीं छोड़ता। जैसे कि आमिर खान की ‘पीके’ और अक्षय कुमार की ‘ओ माई गॉड’ जैसी फिल्में। शाहरुख, काजोल और रानी मुखर्जी की ‘कुछ कुछ होता है’, तो आप सभी ने जरूर देखा होगा। फिल्म का एक दृश्य है, जिसमें छोटी अंजली का किरदार निभाने वाली बच्ची जब नमाज पढ़ती है, तो तुरंत ही उसकी दुआ कुबूल हो जाती है। जबकि इसी फिल्म में दिखाया गया है कि जब उस बच्ची की दादी उसे पूजा-पाठ करने के लिए कहती है, तो वो कैसे इसका मजाक बनाती है। कुछ इस तरह बड़ी ही चालाकी से बॉलीवुड दशकों से हिंदू समाज के विरुद्ध एजेंडा चलाता रहा है। ढेरों उदाहरण हैं।

बागेश्वर धाम के मुखिया पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री रायपुर में कथा वाचन कर रहे थे और इस दौरान उनसे किसी ने बॉलीवुड के बायकॉट ट्रेंड को लेकर सवाल किया। तब, उन्होंने फिल्म निर्माताओं को चुनौती दी कि ‘मैं फिल्म बनाने वालों को कहना चाहता कि अगर उनके बाप में दम हो तो किसी दूसरे धर्म पर फिल्म बनाकर