Jhuth Bole Kaua Kaate: बजा डमरू, तो बंसी तान छेड़ने को तैयार

Jhuth Bole Kaua Kaate: बजा डमरू, तो बंसी तान छेड़ने को तैयार;

मथुरा भी काशी की राह पर है। काशी में डमरू बजने लगा है तो मथुरा बंसी की तान के लिए तैयार है। जिला जज की अदालत ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की 13.37 एकड़ जमीन के एक हिस्से पर बनी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने और मस्जिद परिसर में वीडियो सर्वेक्षण की मांग वाली याचिकाओं को स्वीकार कर लिया है। दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट वाराणसी ज्ञानवापी मस्जिद मामले की सुनवाई आज 20 मई, 2022 को स्वयं करेगा और तबतक सिविल कोर्ट की सुनवाई टाल दी है।

शाही ईदगाह मस्जिद संबंधी मुकदमा हिंदू संगठनों द्वारा कटरा केशव देव मंदिर से 17वीं शताब्दी की शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग में से एक है, जिसमें दावा किया गया है कि मस्जिद भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान पर बनाई गई है। बता दें कि सिविल जज की अदालत से 30 सितंबर 2020 को वाद खारिज हुआ था।

लोअर कोर्ट से खारिज होने के बाद जिला जज की अदालत में अपील हुई थी। अयोध्या के राम मंदिर के मामले का केस भी हरिशंकर जैन ने लड़ा था और फैसला हिंदुओं के पक्ष में आया था। अदालत ने शाही ईदगाह मस्जिद परिसर में वीडियो सर्वेक्षण की मांग वाली याचिका को भी स्वीकार कर लिया है। हिंदू पक्ष के याचिकाकर्ता मनीष यादव, महेंद्र प्रताप सिंह और दिनेश शर्मा ने मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद परिसर में वीडियोग्राफी सर्वेक्षण करने के लिए एक अधिवक्ता आयुक्त नियुक्त करने की मांग की, जिस पर सुनवाई एक जुलाई को होगी।

Jhuth Bole Kaua Kaate: बजा डमरू, तो बंसी तान छेड़ने को तैयार

इससे पहले 12 मई को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने मथुरा कोर्ट को निर्देश दिया था कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद से जुड़े सभी मामले चार महीने के भीतर निपटाए जाएं। न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य पक्ष सुनवाई में शामिल नहीं होते हैं या मामले को लटकाने का प्रयास किया जाता है तो अदालत एकतरफा आदेश जारी कर सकती है।

उधर, वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर वीडियो सर्वे रिपोर्ट कोर्ट में 18 मई को जमा करा दी गई। बताया जाता है कि रिपोर्ट तीन फोल्डरों में है और उसमें फोटो और कई घंटों की वीडियोग्राफी है। रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में कोर्ट में जमा कराई गई है। ज्ञानवापी मस्जिद का दूसरा सर्वे 14, 15 और 16 मई को हुआ था। पहला सर्वे 6 और 7 मई को एडवोकेट कमिश्नर अजय मिश्र द्वारा किया गया था। हालांकि, उन्हें कोर्ट ने बाद में सर्वे से से हटा दिया था।

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मीडिया में सूत्रों के हवाले से बताया जा रहा है कि 19 पन्नों की दूसरी रिपोर्ट में वजूखाने में शिवलिंग मिलने का जिक्र है। रिपोर्ट में दीवारों पर कमल, डमरू के निशान मिलने का जिक्र है। साथ ही सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि तहखाने में त्रिशूल मिलने का जिक्र भी दूसरी रिपोर्ट में किया गया है। वहीं, पहली रिपोर्ट में खंडित देव विग्रह, दीवारों पर हिंदू चिन्हों का जिक्र, मलबे में खंडित मूर्तियों का जिक्र और दीया जलाने की जगह मिलने की बात कही गई है।

Supreme Court

उधर, सुप्रीम कोर्ट में 19 मई को हिंदू पक्ष ने करीब 250 पेज के जवाब में कहा है कि औरंगजेब ने मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई और समूची संपत्ति पर भगवान विश्वेश्वर का मालिकाना हक है। विवादित जगह पर पहले मस्जिद नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत शुक्रवार तक कोई आदेश जारी नहीं करेगी। इसके पहले, 17 मई को सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी को लेकर सुनवाई हुई थी। साथ ही कोर्ट ने वाराणसी के जिला मजिस्ट्रेट से उस क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए कहा था जहां वीडियो सर्वे के दौरान कथित शिवलिंग पाए जाने का दावा किया गया था। कोर्ट ने साथ ही मस्जिद में नमाज अदा करने की छूट दी थी।

झूठ बोले कौआ काटेः क्या आपने गौर किया है कि मुसलमान आक्रांताओं ने भारत पर अनगिनत हमले किए लेकिन वे दक्षिण भारत पर अपनी छाप उस तरह से नहीं छोड़ पाए, जिस तरह से उत्तर भारत में छोड़ा। जैसे, 500 वर्ष पहले हिंदुओं की आस्था के केंद्र अयोध्या में श्रीराम मंदिर की जगह बाबरी मस्जिद बना दी गई लेकिन, तेलंगाना में भगवान श्रीराम और उनकी पत्नी सीता को समर्पित सैंकड़ों वर्ष पुराने श्री सीता राम चंद्र स्वामी मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। इसी तरह दावा है कि काशी विश्वनाथ मंदिर में भगवान शिव के जिस ज्योतिर्लिंग के दर्शन आप करते हैं, उसका मूल स्वरूप वहां नहीं बल्कि उस जगह पर मौजूद है, जहां साढ़े तीन सौ साल पहले मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर मस्जिद बना दी गई थी। लेकिन इसके विपरीत तमिलनाडु में भगवान शिव को समर्पित 800 वर्ष पुराने रामेश्वर मंदिर को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा।

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इतिहास पर लिखी तमाम किताबों से लेकर सरकारी गजेटियर तक में इस बात का उल्लेख है कि औरंगजेब के आदेश पर काशी में मंदिर का ध्वस्तीकरण कराया गया। सितंबर 1669 में औरंगजेब के सूबेदार अब्दुल हसन की औरंगजेब को लिखी एक चिट्ठी इस बात की तस्दीक भी करती है। औरंगजेब के फरमान का प्रमाण 1965 में प्रकाशित काशी के गजेटियर में भी मिलता है। इसके अतिरिक्त इतिहास की किताबों में भी औरंगजेब के फरमान का उल्लेख मिलता है। यही नहीं, किसी भी मस्जिद का नाम संस्कृत में सुनने को नहीं मिलेगा।

Jhuth Bole Kaua Kaate: बजा डमरू, तो बंसी तान छेड़ने को तैयार

तो फिर मस्जिद का ज्ञानवापी संस्कृत नाम कैसे? औरंगजेब ने केवल मंदिर ही नहीं तोड़े, कई जगहों के नाम भी बदल दिए थे। ऐसे ही काशी का नाम औरंगाबाद भी कर दिया था। मंदिर को आनन-फानन में मस्जिद बनाने के क्रम में उसी के गुंबद को मस्जिद के गुंबद जैसा बना दिया गया। नंदी वहीं रह गए। शिव के अरघे और शिवलिंग भी आक्रांता नहीं तोड़ सके। यह भी स्थापित तथ्य है कि नंदी महाराज का मुख किसी भी शिवालय में शिवलिंग की ओर रहता है। दूसरे, मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं के चिह्न होते हैं जबकि मस्जिदों पर चित्रकारी करना जायज नहीं है।

मथुरा के श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान पर भी आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने हमला किया था। लूटकर इस धर्मस्‍थल को भी तोड़ डाला था। यह मंदिर तीन बार तोड़ा और चार बार बनाया जा चुका है। अंतिम बार औरंगजेब ने सन् 1669 में इसे तुड़वा दिया और इसके एक भाग पर ईदगाह का निर्माण करा दिया। जिस जगह पर आज श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान है, वह पांच हजार साल पहले मल्‍लपुरा क्षेत्र के कटरा केशव देव में राजा कंस का कारागार हुआ करता था। इसी कारागार में रोहिणी नक्षत्र में आधी रात को भगवान कृष्‍ण ने जन्‍म लिया था।

बोले तो, मुस्लिम पक्षकारों ने उपासना स्थल कानून 1991 का सहारा लेते हुए ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण को चुनौती दी है। ये कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947 के दिन देश में जो भी धार्मिक स्थल और महत्व की इमारतें जिस स्थिति में हैं, उसी स्थिति में रहेंगी। उनका नियंत्रण जिसके पास है, उसी के पास रहेगा। उनके धार्मिक स्वरूप और संरचना में किसी भी तरह का बदलाव नहीं हो सकता। इस कानून में बस धारा 05 के जरिए अय़ोध्या के मामले को अलग रखा गया था, इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट इस पर कोई फैसला कर सका।

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यानि, ज्ञानवापी और मथुरा जैसे मामलों में धार्मिक स्थलों के मौजूदा स्वरूप और ढांचे में कोई तब्दीली करने में ये कानून अड़ंगा बन सकता है। ऐसी स्थिति में अगर केद्र सरकार चाहे तो इस कानून में संशोधन कर सकती है जिसके लिए उसे संसद में प्रस्ताव लाकर इसे पास करना होगा और कानून की शक्ल देनी होगी। या, फिर विवादों की गंभीरता और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट कानून की व्याख्या तद्नुसार करे।

और ये भी गजबः आपको जानकर हैरानी होगी कि कुछ मुस्लिम शासक ऐसे भी थे जिन्होंने हिंदू धर्म स्थलों के निर्माण के लिए अपना खजाना खोल दिया था और दिल खोलकर दान किया था। इसमें सबसे पहला नाम आता है हैदराबाद के शासक सातवें निजाम उस्मान अली का। उस्मान अली के धन दौलत के किस्से जितने विख्यात थे, उतने ही ज्यादा उनकी कंजूसी के बारे में कहा जाता था। हालांकि, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना स्टेट आर्काइव्स एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट्स से मिलने वाले रिकार्ड बताते हैं कि हैदराबाद निजाम ने कई बार हिंदू मंदिरों को मोटा दान दिया था। यही नहीं उन्होंने उस जमाने में पुणे से छपने वाली एक धार्मिक पत्रिका को आर्थिक मदद दी। साथ ही हिंदू प्रबंधन वाले कई शिक्षा संस्थानों को भी दान दिया था।

बताया जाता है कि सातवें निजाम ने तिरुपति के प्रसिद्ध तिरुमला बालाजी मंदिर के लिए आजादी से पहले 8000 रुपये दान में दिए थे जो उस दौर में बहुत बड़ी रकम थी। हैदराबाद के सबसे पुराने मंदिरों में एक है सीताराम बाग मंदिर, बताया जाता है कि इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए हैदराबाद के निजाम ने 50,000 रुपये दिए थे। दक्षिण भारत का प्रसिद्ध मंदिर श्री सीता रामचंद्र स्वामी. ये मंदिर भद्राचलम में गोदावरी नदी के किनारे है। इसकी मान्यता दक्षिण अयोध्या के रूप में भी है। इस भव्य मंदिर के लिए निजाम ने 29,999 रुपये दान स्वरूप दिए थे। वहीं तेलंगाना में यादाद्री भुवनगिरी जिले स्थित श्री लक्ष्मी नरसिंहा मंदिर, जिसे यादगिरीगुट्टा मंदिर के नाम से भी जानते हैं,  निजाम ने 82,225 रुपये दान दिया था।