Jhuth Bole Kauva Kaate: नेता-नौकरशाही चर्चा में और नई वर्ण व्यवस्था

‘आईएएस के बनाए नियमों को आईपीएस नहीं मानते और आईपीएस के बनाए नियमों को स्टेट कैडर के अफसर लागू नहीं करते। आईएएस, आईपीएस और स्टेट कैडर के अफसरों की अलग ही दुनिया है। देश में यह एक नई तरह की वर्ण व्यवस्था बन गई है।’ कुछ दिनों पूर्व, जयपुर में नॉर्दर्न जोनल काउंसिल की बैठक में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के इस बयान के बाद उत्तर प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री जितिन प्रसाद के ओएसडी की यूपी से छुट्टी और जलशक्ति विभाग मे राज्य मंत्री दिनेश खटीक के कथित इस्तीफे के घटनाक्रम से नौकरशाही और नेता दोनों खूब चर्चा में हैं।

उप्र के पीडब्ल्यूडी मंत्री जितिन प्रसाद के ओएसडी अनिल कुमार पांडेय को पिछले दिनों राज्य सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप में केंद्र को लौटा दिया। यहां पैसे के बदले इंजीनियरों और अधिकारियों के तबादले किए गए। योगी आदित्यनाथ सरकार ने गड़बड़ी की बू लगते ही लोक निर्माण विभाग पर नकेल कसा। तीन सदस्यीय जांच समिति की रिपोर्ट में अनिल कुमार पांडे को दोषी पाया गया। अब जितिन प्रसाद इसी बात पर नाराज बताए जा रहे।

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उधर, मंत्री दिनेश खटीक अपने विभाग में तबादलों और हस्तिनापुर में अपने समर्थकों पर एफआईआर से नाराज बताए जाते हैं। विभाग का नेतृत्व मंत्री स्वतंत्र देव सिंह कर रहे हैं। खटीक ने ट्रांसफर के मामलों में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। तबादलों में गड़बड़ी को लेकर जब उन्होंने अधिकारियों से जानकारी मांगी तो उन्हें इसकी सूचना नहीं दी गई। राज्यमंत्री ने प्रमुख सचिव सिंचाई पर बिना पूरी बात सुने ही फोन काट देने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि उनके पत्रों का भी जवाब नहीं दिया जाता, कार्यवाही नहीं होती। विभागीय अधिकारी उनकी सुन ही नहीं रहे। उनकी मुख्यमंत्री या सरकार के अन्य किसी भी मंत्री से कोई नाराजगी नहीं है।

हांलाकि, खटीक भी दूध के धुले नहीं हैं। सन 2017 में प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद एसएसपी मेरठ ने 62 दागी सिपाहियों को लाइन हाजिर कर दिया था। तब भाजपा विधायक दिनेश खटीक चार सिपाहियों की पैरवी करने एसएसपी के पास उनके आफिस पहुंचे थे। उन सिपाहियों की पर्ची भी इंटरनेट मीडिया पर वायरल हुई थी। 16 अगस्त 2018 को खटीक मवाना थाने पहुंचे थे। यहां एक महिला की शिकायत पर पुलिस ने महिला के पति को हिरासत में लिया था। भाजपा विधायक आरोपित को छुड़ाने थाने पहुंचे थे। वायरल आडियो में यह भी सामने आया था कि यदि वह इंस्पेक्टर का बलिया ट्रांसफर नहीं करा पाए तो राजनीति छोड़ देंगे। इसके पूर्व, डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने भी आरोप लगाया था कि विभागीय अधिकारी उनकी सुन ही नहीं रहे। ऐसे में विभागीय स्तर पर हुए तबादलों के बाद उनका गुस्सा साफ दिखा था। अधिकारियों के स्तर पर उनसे बिना राय लिए तबादले कर दिए गए।

नौकरशाही और नेताओं की रस्साकसी के बीच नौकरशाही की नई वर्ण व्यवस्था की बात करें तो हरियाणा में आईपीएस अधिकारी कला रामचंद्रन की परिवहन विभाग के प्रधान सचिव के रूप में नियुक्ति का मामला हो, या मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू होने की अंतर्कथा, इसकी झलक हमेंशा देखने को मिली। रामचंद्रन के मामले में आईएएस लॉबी ने नियम-कायदों का तर्क देते हुए विरोध किया कि इस पद को कोई वरिष्ठ आईएएस ही सुशोभित कर सकता है। इसी तरह, कुछ साल पहले वरिष्ठ आईआरएस अधिकारियों की पदोन्नति संबंधी केंद्रीय कैबिनेट के निर्णय को आईएएस अधिकारियों द्वारा 3 साल के लिए बाधित करने का आरोप लगा था।

Police Commissionerate System

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में तो कई दशक के इंतजार के बाद अंततः पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लागू करने में सफलता मिली। मुद्दा यहां भी वर्चस्व का ही था। 4 साल पहले, नोएडा (गौतम बुद्ध नगर) के जिलाधिकारी द्वारा एसएसपी द्वारा सात एसएचओ की पोस्टिंग को रद्द कर देने के मामले ने काफी तूल पकड़ा था, जब राज्य सरकार ने पुलिस अधीक्षकों को एसएचओ की पोस्टिंग और स्थानांतरण के लिए जिलाधिकारियों की मंजूरी लेने का आदेश जारी किया था। इस आदेश से पहले यह प्रथा थी कि एसएसपी एसएचओ का तबादला करते थे और रिपोर्ट की एक प्रति कलेक्टर को उनकी जानकारी के लिए भेजी जाती थी।

आईपीएस एसोसिएशन के विरोध के बाद आदेश “एसएसपी को एसएचओ को स्थानांतरित करने से पहले डीएम से अनुमति लेनी होगी” को “एसएसपी को एसएचओ को स्थानांतरित करने से पहले डीएम से परामर्श करना होगा” में बदल दिया गया। इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई क्योंकि “परामर्श” शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं थी। डीएम और एसएसपी ने अलग-अलग तरीकों से “परामर्श” शब्द की व्याख्या की। एसएसपी ने एसएचओ का तबादला करना शुरू कर दिया और स्थानांतरण के संबंध में कागजात डीएम को उनकी मंजूरी के लिए भेजे गए। दूसरी ओर, डीएम ने यह कहते हुए कागजात पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया कि उन्हें इन तबादलों के बारे में पहले से सूचित क्यों नहीं किया गया। उधर, प्रभावित एसएचओ को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। एसएसपी ने उनका तबादला किया, डीएम ने नहीं। तो उनका तबादला हुआ या नहीं?

आईएएस अधिकारियों ने तर्क दिया कि डीएम कानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। एसएचओ का स्थानांतरण कानून और व्यवस्था की स्थिति को प्रभावित कर सकता है, इसलिए एसएचओ को स्थानांतरित करने की शक्ति डीएम में निहित होनी चाहिए। आईपीएस अधिकारियों ने तर्क दिया कि एसएसपी जिला पुलिस प्रमुख है और वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों की क्षमता और कार्यशैली को ठीक से समझता है इसलिए एसएचओ को स्थानांतरित करने की शक्ति का उपयोग करने के लिए अधिक सक्षम है। यह भी कहा कि एसएसपी से यह शक्ति छीनने से पुलिस विभाग का मनोबल गिर जाएगा।

कई आईएएस अधिकारियों ने पुलिस आयुक्त प्रणाली पर सवाल उठाया और तर्क दिया कि पुलिस के पास मजिस्ट्रियल शक्तियां कैसे हो सकती हैं, लोकतंत्र के लिए पुलिस को सिविल ऑफिसर्स के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। आईपीएस अधिकारियों ने यह कहकर पलटवार किया कि आईएएस सभी शक्तियों को हथियाना चाहते हैं और उनसे सवाल किया कि वे इस तथ्य पर चुप क्यों हैं कि डीआईजी रैंक के अधिकारियों को जिला पुलिस प्रमुख के रूप में तैनात किया जा रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि डीआईजी एक वरिष्ठ आईपीएस रैंक है और जिला पुलिस प्रमुख के रूप में तैनात होने के कारण उन्हें डीएम के अधीन काम करना पड़ता है। एक ऐसा आईएएस जो शायद उनसे दशकों जूनियर है।

स्थिति को मधुर बनाने के लिए आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के बीच एक फुटबॉल मैच का आयोजन किया गया। आईपीएस अधिकारियों ने मैच जीता और फिर आईपीएस एसोसिएशन ने पोस्ट किया “यह हमारे जीन में है”। आईएएस एसोसिएशन ने जवाब दिया “हमें नहीं लगता कि जेनेटिक्स का इससे कोई लेना-देना है”।

आईएएस अधिकारियों द्वारा पीसीएस अधिकारियों से बुरे बर्ताव करने की घटनाएं भी कोई नई नहीं  हैं, तो पीसीएस द्वारा आईएएस को नजरअंदाज करने के मामले भी कम नहीं। कुछ साल पहले, कानपुर में एक पीसीएस अधिकारी को यूपीका के प्रबन्ध निदेशक के साथ सीडीओ का भी चार्ज दिया गया था। कुछ समय बाद जब नया सीडीओ तैनात हो गया तो उनसे सीडीओ का चार्ज ले लिया गया, हांलाकि एमडी के पद पर तैनात वह तैनात रहे। लेकिन, सीडीओ आईएएस अधिकारी बना था तो वहां तैनात जिले की मुखिया जिलाधिकारी के इशारे पर बच्चों व परिवार के सामने उक्त पीसीएस अधिकारी का सामान सडक पर फिकवा दिया गया। कानपुर के नगर आयुक्त ने इसका विरोध किया तो प्रशासन ने उनकी सुरक्षा वापस ले ली। इसके उलट, पिछले महीने ही कानपुर के जिला खनन अधिकारी ने दो-दो जिलाधिकारियों का आदेश नहीं माना, तो जवाब तलब किया गया।

झूठ बोले कौआ काटेः

आईएएस बनाम आईपीएस की बहस भी सदियों पुरानी है। भारत में योग्यता आधारित सिविल सेवा की अवधारणा 1854 में ब्रिटिश संसद की प्रवर समिति की लॉर्ड मैकाले की रिपोर्ट के उपरांत साकार हुई। उसी साल लंदन में सिविल सेवा आयोग की स्थापना के बाद 1855 से प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाएं प्रारंभ हुईं। प्रथम विश्व युद्ध तथा मान्टेग्यू चैम्सफोर्ड सुधारों के बाद 1922 से भारतीय सिविल सेवा परीक्षा भारत में आयोजित होने लगी। इसी प्रकार, स्वतंत्रतापूर्व भारतीय (शाही) पुलिस के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति के लिए प्रथम खुली प्रतियोगिता का आयोजन जून 1893 में इंग्लैंड में हुआ था। 1867 में भारतीय ब्रिटिश सरकार ने शाही वन सेवा का गठन किया। स्वतंत्रता पश्चात 1966 में अखिल भारतीय वन सेवा अधिनियम 1951 के अंतर्गत भारतीय वन सेवा की स्थापना  की गई।

विभिन्न सुधारों से गुजरते हुए भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रावधानों के अंतर्गत भारत में पहली बार लोक सेवा आयोग की स्थापना 1 अक्टूबर, 1926 को की गई। फिर, भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रावधानों के अनुसार लोक सेवा आयोग 1 अप्रैल, 1937 से फेडरल लोक सेवा आयोग बन गया। और अंततः 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान के अस्तित्व में आने के साथ ही फेडरल लोक सेवा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग में बदल गया। आयोग भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS), भारतीय विदेश सेवा (IFS), भारतीय राजस्व सेवा (IRS), भारतीय वन सेवा (IFS), आदि-इत्यादि परीक्षाएं आयोजित करता है।

बोले तो, आईएएस एक डीएम/ सेक्रेटरी के रूप में कहीं अधिक शक्तिशाली है। एक आईपीएस के पास केवल अपने विभाग की जिम्मेदारी होती है, लेकिन एक आईएएस (डीएम) के पास जिले के सभी विभागों की जिम्मेदारी होती है। डीएम के रूप में एक आईएएस अधिकारी पुलिस विभाग और अन्य विभागों का प्रमुख होता है। एक प्रोटोकॉल के अनुसार, आईपीएस अधिकारी को अपने से वरिष्ठ होने पर आईएएस को सैल्यूट करने की आवश्यकता होती है। यह भी एक प्रोटोकॉल है कि आईएएस के आसन ग्रहण करने के बाद ही अपनी वर्दी की टोपी उतारेंगे।

शायद यही कारण है कि सिविल सेवा परीक्षा की एक टॉपर ने पिछले साल आईएएस कैडर इसलिए चुना क्योंकि उसका मानना था कि तभी वह हरियाणा के लिंगानुपात में सुधार कर सकती है। अब मुद्दा तो यह है कि यदि उसे सचिवालय या किसी बोर्ड में बैठकर काम करना पड़ा तो वह बेहतर लिंगानुपात को आगे बढ़ाने के इरादे को कैसे अंजाम देगी? दूसरी ओर, एक आईपीएस अधिकारी की भूमिका पर विचार करिय़े। वह उन लोगों को गिरफ्तार कर सकता है जो महिलाओं को गर्भपात के लिए प्रेरित करते हैं। वह लिंग निर्धारण केंद्रों को ट्रैक और बंद कर सकता है, और भी बहुत कुछ! लेकिन, टॉपर महिला ने भी निहित शक्तियों के कारण आईएएस होना ही सही समझा।

विशेषज्ञता और डिजिटलीकरण के युग में, आईएएस या आईपीएस स्वयं हर चीज का विशेषज्ञ होने की उम्मीद नहीं कर सकता। कानून व्यवस्था की समीक्षा के बहाने जिला मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस लाइन में थानाध्यक्षों की बैठक आयोजित करना तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता। दूसरी ओर, अन्य सेवाओं के अधिकारियों द्वारा आईएएस कैडर के पदों को हड़पने की भी शिकायते हैं, जैसा कि हरियाणा में हुआ। एक आईपीएस अधिकारी को प्रमुख सचिव, जबकि दूसरे को विद्युत उपयोगिताओं में से एक के प्रबंध निदेशक का पद दे दिया गया और एक अन्य आईएफएस अधिकारी को प्रमुख सचिव का पद दे दिया गया। वैसे ही, वेतन समानता, पदोन्नति, प्रतिनियुक्ति आदि मुद्दों पर आईएएस और आईपीएस के बीच काफी खटास है।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शायद, इन्हीं कारणों से नौकरशाही की नई वर्ण व्यवस्था शब्दावली का प्रयोग किया। हांलाकि, इस वर्ण व्यवस्था में हितों के टकराव को उकसाने-उलझाने में मूल्यविहीन राजनीति की भूमिका भी कम नहीं है। भारत की नौकरशाही अंग्रेजी औपनिवेशिक राज की देन है। तब नौकरशाही पर राजनीतिक दबाव बहुत कम था। लेकिन आजादी के बाद जैसे-जैसे राजनीति में मूल्यों का क्षरण होता गया, भ्रष्ट नेता विधानसभाओं और संसद में चुन कर आना शुरू हुए और मंत्री आदि बने, वैसे-वैसे नौकरशाही का भी राजनीतिकरण होता गया। ऊपर से नीचे तक सरकारी सिस्टम में तबादलों व पदस्थापन में राजनीतिक दखल बड़ी समस्या है। उप्र के ताजा मामले इसके गवाह हैं।

स्थिति यह है कि अधिकारी खुलेआम राजनीतिक नेताओं के साथ जुड़े हुए हैं। वे कानून और संविधान के मुताबिक नहीं, अपने राजनीतिक संरक्षक की इच्छा के मुताबिक काम करते हैं। इस द़ष्टि से पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय का मामला बहुचर्चित है। आरोप है कि पीएम नरेंद्र मोदी कलाइकुंडा में कोविड समीक्षा बैठक के दौरान 15 मिनट तक इंतजार करते रहे, उसके बाद मुख्य सचिव और सीएम ममता बनर्जी हाजिर हुए। इस मामले में पहले केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय ने अलपन को दिल्ली तलब किया था, किन्तु ममता बनर्जी ने उन्हें दिल्ली नहीं भेजा। बाद में ममता बनर्जी ने उन्हें मुख्य सचिव के पद से हटाकर अपना सलाहकार नियुक्त कर दिया।

और ये भी गजबः

बोले तो, 2015 में सिविल सेवा दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि लोकतंत्र में नौकरशाही में राजनीतिक हस्तक्षेप जरूरी है। नौकरशाह इसे सुशासन में बाधक नहीं समझें। उन्होंने हस्तक्षेप और अड़चन में फर्क बताते हुए कहा कि हस्तक्षेप आवश्यक और अवश्यंभावी है, जबकि अड़ंगेबाजी व्यवस्था को बिगाड़ देती है। मोदी ने अफसरों को सलाह दी कि वह फाइलों में जीवन बर्बाद न करें और तनाव से बचें। प्रधानमंत्री मोदी ने सभी सिविल सेवा के अधिकारियों से कहा कि नौकरशाही के नजरिये और राजनीतिक दखलंदाजी की अक्सर चर्चा होती है। इसे लोकतांत्रिक प्रणाली में बाधक माना जाता है। जबकि लोकतंत्र में नौकरशाही व राजनीतिक हस्तक्षेप साथ-साथ चलते हैं। यही लोकतंत्र की विशेषता है। यदि देश चलाना है तो हमें राजनीतिक अड़चन की जरूरत नहीं है बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप करना होगा। अन्यथा लोकतंत्र प्रणाली चल नहीं सकेगी।

जनप्रतिनिधि जनता के नुमाइंदे हैं इसलिए उनका हस्तक्षेप जरूरी है। प्रधानमंत्री ने कहा कि नौकरशाही को अपनी शब्दावली से रुकावट और कठिनाई जैसे शब्दों को हटाना होगा। उन्होंने कहा, “अगर कोई विभाग किसी काम में अटक गया तो पूछने पर बताया जाता है कि नौकरशाहों के काम करने का यही तरीका है। इसी तरह जब कोई काम रुकता है तो कहा जाता है ये राजनीतिक अड़ंगेबाजी का नतीजा है।”

अफसरों की जिम्मेदारी पर जोर देते हुए मोदी ने कहा कि हर समस्या का समाधान मौजूद है। बस उसे तलाशा जाना चाहिए। अकाउंटेबिलिटी, रिस्पांसिबिलिटी और ट्रांसपेरेंसी यानी “आर्ट” (जवाबदेही, जिम्मेदारी व पारदर्शिता) को प्रधानमंत्री ने सुशासन के लिए अति आवश्यक बताया। मोदी ने नौकरशाही में सुधार की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि वह दिन दूर नहीं जब दुनिया एम गवर्नेंस या मोबाइल गवर्नेंस पर काम करने लगेगी।