उत्तर प्रदेश में जात-पांत, क्षेत्रवाद, धर्म और आयाराम-गयाराम की राजनीति के बीच जहां बहुजन समाज पार्टी को अपने नेताओं की भगदड़ से लगातार झटके लग रहे वहीं, सपा-भाजपा अपनी सियासी चालों पर मटक रहे हैं। मटकना यानि इतराना!
मोदी सरकार ने किसान कानूनों की अकाल मृत्यु का धमाका करके विपक्ष का सियासी गणित गड़बड़ा दिया है तो, योगी सरकार में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने अब जिन्ना के जवाब में ‘मथुरा की तैयारी है’ वाला ट्वीट करके सियासी पारा गरमा दिया है। ऐसे में, सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव क्षेत्रीय दलों, दल-बदलुओं और अपनी ताबड़तोड़ विजय रथ यात्राओं में उमड़ रही भीड़ पर क्यों न इतराएं।
सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव, जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल, ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, केशव देव मौर्य के महान दल, संजय चौहान की जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट), गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और अपना दल कमेरावादी से हाथ मिला चुके हैं। सपा आम आदमी पार्टी से भी हाथ मिलाने की तैयारी में है। वहीं, केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल की पार्टी अपना दल ने भी सपा से गठबंधन का ऐलान कर दिया है।
सपा ने बसपा-कांग्रेस में ठीक-ठाक सेंधमारी भी की है। बसपा से तो पूर्व प्रदेश अध्यक्षों आर एस कुशवाहा और राम अचल राजभर सहित लालजी वर्मा, सुखदेव राजभर के बेटे अखिलेश राजभर इत्यादि को साइकिल पर बैठा लिया। इसके पहले, पीलीभीत के पूर्व सांसद की बेटी बसपा नेता दिव्या गंगवार आदि सपा में शामिल हो चुके थे। इसके साथ ही भाजपा को भी सपा ने झटका दिया। पूर्व मंत्री हरिओम ने भी सपा की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। सिलसिला जारी है।
उधर, भाजपा ने पिछला इतिहास दोहराते हुए पुराने सहयोगियों और विभिन्न समूहों के बीच जातिगत आधार रखने वाले सात छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन कर लिया है। ये पार्टियां हिस्सेदारी मोर्चा का हिस्सा हैं। इसमें बिंद, गडरिया, कुम्हार, धीवर, कश्यप और राजभर सहित विभिन्न ओबीसी समूहों का प्रतिनिधित्व है।
भाजपा ने एनडीए के पूर्व सहयोगी ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा के साइकिल की सवारी कर लेने से हुए नुकसान की भरपाई सपा-बसपा गठबंधन से निषाद पार्टी को निकाल कर की है। अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल साथ है ही।
दूसरी ओर, भाजपा ने सपा-बसपा को एक बार फिर झटका देते हुए कई नेताओं को पार्टी में शामिल कर लिया। इनमें सबसे बड़ा नाम चार बार के पूर्व विधायक बसपा नेता जगपाल सिंह का है। भाजपा ने पूर्वी उप्र से लेकर पश्चिमी यूपी तक के कई नेताओं को पार्टी में शामिल किया है। पूर्वी उप्र के बलिया, मऊ, गाजीपुर, देवरिया से लगभग एक दर्जन नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ली है।
8 बीएसपी नेताओं ने भाजपा का दामन थामा है। इससे पहले सपा सरकार में मंत्री रहे गाजीपुर के पूर्व मंत्री विजय मिश्रा सहित कई नेताओं ने भाजपा का दामन थामा था। जो लोग भाजपा में शामिल हुए उनमें पूर्व मंत्री सपाई जय नारायण तिवारी, पूर्व आईएएस अशोक कुमार सिंह, कांग्रेस के पूर्व विधायक राम शिरोमणि शुक्ला, बसपा के पूर्व विधायक मदन गौतम आदि शामिल हुए थे। बसपा के गढ़ सहारनपुर में हरौड़ा (वर्तमान में सहारनपुर देहात) से तीन बार विधायक चुने गए जगपाल सिंह भाजपा में शामिल हो गए।
बसपा अकेले दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। 2017 में बसपा के 19 विधायक जीते थे, हालांकि उसके विधायकों के लगातार दूसरे दलों में जाने से अब उनके पास केवल चार विधायक बच गए हैं। मायावती का दावा है कि उनकी पार्टी 2007 की तरह बहुमत से सत्ता में आएगी, क्योंकि उनका गठबंधन प्रदेश की जनता के साथ हो चुका है।
कांग्रेस 1989 के बाद से उत्तर प्रदेश की सत्ता से साफ है। कांग्रेस ने 2017 का विधानसभा चुनाव सपा के साथ लड़ा था। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के इस गठबंधन को जनता ने नकार दिया था। सपा 47 और कांग्रेस 7 सीटों पर सिमट गई थी।
2019 के लोकसभा चुनाव तो और बुरा हाल हुआ, यहां तक कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने परंपरागत गढ़ अमेठी में पटखनी खा गए। इस बार, कांग्रेस के सिंबल पर कुछ छोटे दल बैकडोर से चुनाव लड़ सकते हैं। कांग्रेस ने प्रियंका गांधी वाड्रा को चुनाव प्रचार प्रमुख बनाया है।
झूठ बोले कौआ काटे
किसान कानूनों के संसद में निरस्त होने के बाद सवाल यह है कि पश्चिमी उप्र की 136 विधानसभा सीटों पर सपा की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के खिलाफ एकजुट होकर भाजपा को समर्थन देने वाला जाट समुदाय क्या जयंत चौधरी के नाम पर अखिलेश यादव के साथ आने को तैयार होगा? कृषि कानूनों की अकाल मृत्यु के बाद जाट खाप पंचायतों में सामने आ रहे मतभेद अखिलेश और जयंत चौधरी के लिए चिंता बढ़ाने वाले है।
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पूर्वी उप्र की 164 सीटों में 115 पर कब्जा किया था। पूर्वी उप्र भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का विषय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी और गोरक्षपीठाधीश्वर सीएम योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर इसी का हिस्सा हैं।
ओमप्रकाश राजभर के सपा से हाथ मिला लेने के बाद पूर्वी उप्र में भाजपा के सियासी समीकरणों को धक्का लगा है। पूर्वी उप्र की करीब चार दर्जन सीटों पर राजभर मतदाता सियासी गणित बना-बिगाड़ सकता है। वहीं, 20 से ज्यादा ऐसी सीटें हैं, जिन पर 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा दूसरे नंबर पर रही थी। इन सीटों का राजभर मतदाता भाजपा के साथ गया था।
बदले हालात में ओमप्रकाश राजभर, रामअचल राजभर और पप्पू राजभर की तिकड़ी राजभर मतदाताओं को एकजुट करने में कामयाब हो जाती है, तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। वैसे भाजपा ने हरिनारायण राजभर जैसे नेताओं को चुनावी राजनीति में उतारकर इस बिरादरी के साथ संगठनात्मक संपर्क व संवाद पर काम बहुत पहले ही शुरू कर दिया था।
यही नहीं, प्रदेश में सरकार बनने के बाद भाजपा ने अनिल राजभर को मंत्री बनाकर और सकलदीप राजभर को राज्यसभा भेजकर भी राजभर बिरादरी के बीच पार्टी की सीधे पकड़ व पहुंच बढ़ाने का काम किया है। भाजपा ने अपना दल (एस) और संजय निषाद की निषाद पार्टी के सहारे भी पूर्वी उप्र के सियासी समीकरणों को साधने की कोशिश की है।
झूठ बोले कौआ काटे, उप्र का ताज एक बार फिर गोरक्षपीठाधीश्वर और सीएम योगी आदित्यनाथ के सिर पर सजाने के लिए मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार ने पूरी ताकत झोंक दी है। पूर्वी उप्र की 156 सीटों पर भाजपा का परचम लहराने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों काशी को काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का तोहफा दिया।
600 करोड़ रुपए के इस प्रोजेक्ट के तहत काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर का जीर्णोद्धार किया गया है। पीएम 13 दिसंबर को इसका उद्धाटन करेंगे। कुशीनगर में एयरपोर्ट, गोरखपुर में खाद कारखाने और एम्स की सौगात दी। सुल्तानपुर में पूर्वी उप्र एक्सप्रेस का उद्घाटन किया। मात्र एक साल के अंदर मां अन्नपूर्णा की मूर्ति को कनाडा से वापस लाकर पीएम नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में स्थापित किया गया। सौगातों का यह सिलसिला जारी है।
उधर, केंद्रीय गृहमंत्री और पार्टी के चाणक्य अमित शाह भाजपा के 2022 के चुनावी मिशन मोड को अंजाम देने के लिए रणनीति को अंतिम रूप दें रहे हैं। सीएम योगी आदित्यनाथ के चहुंमुखी विकास के साथ अपराधमुक्त उत्तम प्रदेश के अभियान को व्यापक जनसमर्थन मिला है।
कोरोना काल में प्रदेश की जिम्मेदारी छोड़ कर अपने पिता की अंतिम यात्रा में न जाने की बात भी लोगों को याद हैं। योगी ने इतिहास में आक्रांताओं द्वारा स्थानों के नाम बदलने के लिए की गई छेड़छाड़ को सुधारने का काम करके भी हिंदुओं के विश्वास को और पुख्ता किया है।
भाजपा अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के साथ ही काशी और मथुरा के एजेंडे को लेकर भी सजग है। सीएम योगी के दौरों से इसकी झलक मिलती है। चुनावी माहौल में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का कहना कि अब मथुरा की तैयारी है, सियासी मायने रखता है। इससे कुछ घंटे पहले एक न्यूज चानल से बातचीत में उन्होंने कहा था, “जिस प्रकार से अयोध्या में श्रीरामलला की जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण होने से पूरे देश में ही नहीं, पूरी दुनिया के रामभक्तों में खुशी है, वैसे ही त्रिलोकी के नाथ यानी बाबा विश्वनाथ का काशी में भव्य मंदिर का कॉरिडोर बना है।
हम लोग राम जन्म भूमि आंदोलन के समय और 6 दिसंबर के बाद नारे लगाते थे कि अयोध्या हुई हमारी, अब काशी-मथुरा की बारी, तो काशी और अयोध्या अब हमारी है और अब कृष्णजन्मभूमि की बारी है।” हालांकि, उन्होंने आगे ये भी जोड़ा कि चुनाव और अयोध्या-मथुरा काशी दोनों अलग-अलग बातें हैं। उधर, सपा भी जिन्ना के जिन्न को जगा कर सियासी चाल चुकी है।
बसपा सुप्रीमो मायावती सपा मुखिया अखिलेश यादव के पश्चिमी उप्र में जाट-मुस्लिम समीकरण के दांव के जवाब में जाट-मुस्लिम-दलित समीकरण बैठाने में लगी हैं। मायावती ने जाट और मुस्लिम नेताओं को सुरक्षित विधानसभा सीटों पर अपने-अपने समाज के लोगों को बसपा में जोड़ने का जिम्मेदारी सौंपी है।
कभी, मायावती दलित-मुस्लिम समीकरण के जरिए पश्चिमी उप्र में झंडा गाड़ती रही हैं, लेकिन इस बार बसपा के तमाम मुस्लिम नेता मायावती का साथ छोड़कर सपा और रालोद में शामिल हो गए हैं। इनमें हैं, कादिर राणा, असलम अली चौधरी, शेख सुलेमान, पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी, चौधरी मोहम्मद इस्लाम, मीरापुर से पूर्व विधायक मौलाना जमील और पूर्व विधायक अब्दुल वारिस राव। इसलिए बसपा मुस्लिम और जाट प्रत्याशियों को टिकट देने में प्राथमिकता दे रही है।
पिछले दिनों मायावती ने यह भी कहा था कि पार्टी छोड़ने वाले अकेले जाते हैं। अर्थात, नेताओं के दलबदल से उनके वोट बैंक को कोई खतरा नहीं है। हांलाकि, पूर्वी उप्र की ब्राहमण राजनीति में मजबूत पकड़ रखने वाले पूर्व मंत्री व बाहुबली नेता हरिशंकर तिवारी के बेटे व गोरखपुर की चिल्लूपार सीट से बसपा विधायक विनय शंकर तिवारी के पाला बदलने की चर्चा भी जोरों पर है।
ऐसे में खासकर, गोरखपुर और संत कबीर नगर जिले की सीटों पर बसपा को सियासी नुकसान हो सकता है। बसपा की रणनीति सुरक्षित सीटों पर जीत दर्ज कर यूपी में सत्ता पाने की है। अखिलेश की चाचा शिवपाल यादव से नहीं बनी तो उसका फायदा भी बसपा को मिल सकता है।
कांग्रेस प्रियंका गांधी वाड्रा के भरोसे उप्र में संजीवनी पाने की आस में है। सपा-बसपा कांग्रेस से किनारा कर चुकी हैं। बाद में रालोद ने भी गठजोड़ करने से पल्ला झाड़ लिया। न कांग्रेस के पास कोई और बड़ा चेहरा है, न ही उप्र में खोने के लिए उसके पास बहुत कुछ है।
अरविंद केजरीवाल की की आप और असदुद्दीन ओवैसी की एआईआईएम की उपस्थिति कई सियासी समीकरण बनाएगी-बिगाड़ेगी। फिलहाल तो आमने-सामने मुकाबले में सपा-भाजपा ही दिखते हैं। लेकिन असल खेला तो तब होगा जब सीटों के बंटवारे पर खींचतान होगी। तब बहुतों के टिकट भी कटेंगे, फिर घमासान होगा। देखते जाइये, पिक्चर अभी बाकी है।