Jhuth Bole Kauva Kaate: दाम्पत्य पर लटकी वैवाहिक बलात्कार की तलवार!

Jhuth Bole Kauva Kaate: दाम्पत्य पर लटकी वैवाहिक बलात्कार की तलवार!

क्या पति-पत्नी के बीच यौन संबंधों को बलात्कार कहा जा सकता है? दिल्ली हाईकोर्ट इन दिनों वैवाहिक बलात्कार की संवैधानिकता पर सुनवाई कर रहा है। भारत में अगर पति अपनी पत्नी की मर्जी के बिना उसके साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे अपराध नहीं माना जाता यानी कि भारतीय कानून की नज़र में वैवाहिक बलात्कार कोई अपराध नहीं है, जब तक कि उसमें हिंसा न शामिल हो।

Jhuth Bole Kauva Kaate: दाम्पत्य पर लटकी वैवाहिक बलात्कार की तलवार!

दरअसल, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 375 में निहित अपवाद – वह खंड जो भारत में बलात्कार के अपराध को परिभाषित करता है – कहता है कि “अपनी पत्नी के साथ एक पुरुष द्वारा यौन संभोग, पत्नी की उम्र पंद्रह वर्ष से कम नहीं है, बलात्कार नहीं है”। इसी अपवाद को आरआईटी फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेन एसोसिएशन और दो व्यक्तियों ने चुनौती दी है। याचिकाकर्ता जोरदार तरीके से अपवाद को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। जबकि, प्रतिवादी तर्क दे रहे हैं कि एक विवाहित महिला को यौन शोषण के खिलाफ उपचार प्रदान करने वाले आपराधिक और नागरिक कानूनों के तहत पहले से ही प्रावधान मौजूद हैं।

इस मामले में हस्तक्षेप करने वाले एक एनजीओ ‘हृदय’ की दलील थी कि पति-पत्नी के बीच यौन संबंधों को बलात्कार नहीं कहा जा सकता है और इस संबंध में गलत काम को अधिक से अधिक यौन उत्पीड़न कह सकते हैं। ‘हृदय’ के वकील ने इस बात पर जोर दिया कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद में इसलिए रखा गया है क्योंकि इसका लक्ष्य विवाह संस्था की रक्षा करना है और यह मनमाना या संविधान के अनुच्छेद 14, 15 या 21 का उल्लंघन नहीं है।

वकील ने कहा, संसद यह नहीं कहता है कि ऐसा काम यौन उत्पीड़न नहीं है, लेकिन उसने विवाह की संस्था को बचाने के लिए इसे दूसरे धरातल पर रखा है। उन्होंने कहा पत्नी अपने अहम की तुष्टि के लिए संसद को पति के खिलाफ कोई खास सजा तय करने पर मजबूर नहीं कर सकती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और घरेलू हिंसा कानून में एकमात्र फर्क सजा की अवधि का है, दोनों ही मामलों में यौन उत्पीड़न को गलत माना गया है।

दिल्ली सरकार ने भी वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण का विरोध करते हुए कहा कि अदालत नए कानून नहीं बना सकती है और वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण बुरा कानून होगा। महिला के पास कई अन्य कानूनी प्रावधान हैं, जिनकी जरिये वह मदद ले सकती है कि उसके साथ वैवाहिक दुर्व्यवहार किया जा रहा है।

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दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मुद्दे पर सैद्धांतिक रूप से अपनी स्थिति स्पष्ट करे। याचिकाओं की सुनवाई कर रही खंडपीठ का नेतृत्व कर रहे न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने कहा कि केंद्र को हां या नहीं में जवाब देना होगा, क्योंकि ऐसे मामलों में विचार-विमर्श कभी समाप्त नहीं होता है। पीठ में न्यायमूर्ति सी हरि शंकर भी शामिल थे।

केंद्र सरकार ने जवाब में कहा कि वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप को अपराध बनाने में ‘परिवार के मामले’ के साथ-साथ महिला के सम्मान का भी मुद्दा जुड़ा हुआ है। केंद्र ने कहा कि उसके लिए इस मुद्दे पर तत्काल अपना रुख बताना संभव नहीं है। केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अगर सरकार आधे मन से मामले पर अपना पक्ष रखेगी तो नागरिकों के साथ अन्याय होगा। उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि वह सभी हितधारकों से परामर्श कर अपना रुख रखने के लिए तर्कसंगत समय दें, खासतौर पर तब जब इस बीच किसी को बहुत खतरा नहीं है।

दूसरी ओर, राहुल गांधी ने ट्विट करके वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण का समर्थन किया, जबकि 2013 में, जब कांग्रेस सरकार सत्ता में थी, मनमोहन सिंह सरकार ने जस्टिस जेएस वर्मा पैनल की सिफारिश को सरसरी तौर पर खारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने सुझाव दिया था कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाया जाना चाहिए। कांग्रेस सरकार ने कहा था कि वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण भारत में पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों को कमजोर करेगा। यह भी तर्क दिया था कि वैवाहिक बलात्कार के मामले में सबूत का बोझ पूरा करना लगभग असंभव होगा।

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मेन वेलफेयर ट्रस्ट (MWT) नामक एक समूह के अधिवक्ता जे साई दीपक ने कल 27 जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में दलील दी कि वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे को अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि अदालत को निर्णय लेने के लिए कहा जा रहा है क्योंकि विधायिका ने इस मुद्दे पर कार्रवाई नहीं की है, लेकिन अगर यह न्यायपालिका के लिए “एक रेखा को पार करने” का कारण बन जाता है, तो यह एक बहुत ही खतरनाक उदाहरण बन जाएगा। दीपक ने कहा कि एक ट्रिकल-डाउन प्रभाव होगा क्योंकि अन्य अदालतों को इसी तरह के मामलों को लेने से कोई रोक नहीं पाएगा।

उन्होंने आगे तर्क दिया कि आईपीसी की धारा 375, 376B, 376C और 498A के अवलोकन से पता चलता है कि विधायिका ने चार अलग-अलग स्थितियों की पहचान की है जहां एक महिला की शारीरिक अखंडता को चुनौती दी जाती है। इसलिए, इन अपराधों के साथ व्यवहार करने के तरीके में एक स्पष्ट अंतर है।

उन्होंने कहा, “मैं जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि यौन अपराधों के चार क्रम हैं। प्रथम श्रेणी अजनबी द्वारा है और 375 उसके संबंध में प्रावधान है। दूसरा वह व्यक्ति है जो अधिकार के संबंध का आनंद लेता है और वह 376C के अंतर्गत है। तीसरा है 376B जहां एक पूर्व पति अपराध करता है। और फिर 498A है, जहां पति रहते हुए पति द्वारा किया गया अपराध है। ये चार अलग-अलग स्थितियां हैं। इसलिए, इन अपराधों के साथ व्यवहार करने के तरीके में एक स्पष्ट अंतर है।”

विद्वान अधिवक्ता ने कहा, “विधायिका ने इच्छा और सहमति के बीच अंतर किया है। धारा 376B ‘उसकी सहमति के बिना’ की बात करती है। बात यह है कि जब पति को अजनबी बना दिया जाता है, तब भी विधायिका सहमति शब्द का प्रयोग करने से हिचकिचाती है। कुछ मामलों में, भले ही कोई इच्छा न हो, सहमति एक रिश्ते के परिणाम के रूप में प्रकट होती है। जैसे धारा 376सी वह स्थिति है जहां इच्छा अनुपस्थित है लेकिन सहमति मौजूद है। वास्तव में, निर्णय कहते हैं कि वे ओवरलैप हो सकते हैं, लेकिन वे समान नहीं हैं।”

Jhuth Bole Kauva Kaate

भारत में विवाह को अनुबंध नहीं समझा जाता है, जैसा अन्य लोकतांत्रिक देशों में होता है। जब पत्नी अपने पति से अलग होती है और तब उसका यौन उत्पीड़न किया जाता है तो उसके खिलाफ मामला दर्ज करने का प्रावधान है। प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन हिंदू विवाह में संबंध विच्छेद जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी, ‘तलाक’ शब्द मुस्लिम लॉ में प्राप्त होता है तथा रोमन लॉ में ‘डायवोर्स’ शब्द प्राप्त होता है परंतु शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन विवाह विच्छेद जैसी कोई उपधारणा नहीं रही है, क्योंकि हिंदुओं में विवाह एक पवित्र संस्कार है जो अग्नि को साक्षी मानकर किया जाता है। यह नाता जन्म जन्मांतर का नाता होता है।

जबकि, वैवाहिक बलात्कार को कानूनी जामा पहनाने के पक्ष में दलील है कि न्याय प्रणाली में सुरक्षा उपाय मनगढ़ंत या झूठी वैवाहिक शिकायतों की जांच करने के लिए हैं, और कोई भी व्यक्ति जो असत्य और दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाता है, कानून के अनुसार जवाबदेह बनाया जा सकता है।

बोले तो, समय के साथ विवाह की अवधारणा में संविदा का प्रवेश हो गया। वर्ष 1955 में आधुनिक हिंदू विवाह अधिनियम बनाया गया तथा इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह के स्वरूप को संस्कार के साथ ही संविदा का भी रूप दिया गया। फिर भी, आए दिन विवाह टूटने की खबरें और अनेक वजहें पढ़ऩे को मिलती है। और तो और, कहीं वर पक्ष तो कहीं वधु पक्ष शोषण का झूठा मुकदमा दर्ज करा रहा है।

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पति न्यायाधीश और वकीलों तथा रिश्तेदारों की उपस्थित में अपनी पत्नी के चाल चरित्र से लेकर स्वभाव तक का गलत सही आरोप लगाता है, उसे कुलटा-कलमुही और कुलच्छनी साबित करता है, गैर मर्द के साथ उसके हमबिस्तर होने की झूठी-सच्ची गवाही दिलाता है। यही पत्नी भी करती है, वह अपने पति को नामर्द और शारीरिक संतुष्टि ना देने वाला सिद्ध करती है, अलग अलग महिलाओं से उसके नाजायज़ संबंध सिद्ध करती है, मारपीट करने वाला सिद्ध करती है। फिर जज साहब भी उकता कर दोनों को अलग होने का फैसला सुना देते हैं। दोनों अलग हो जाते हैं पर उनको मिलता क्या है? उन दोनों पर एक दूसरे के लगाए झूठे सच्चे आरोप उनके अगले वैवाहिक जीवन की संभावना को समाप्त कर देते हैं।

तभी तो, 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दहेज कानूनों विशेषकर आईपीसी की धारा 498ए के दुरुपयोग को “कानूनी आतंकवाद” करार दिया। 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने पतियों की तत्काल गिरफ्तारी के खिलाफ दिशानिर्देश पारित किए। इस तरह के विवादों में दर्ज की गई शिकायतें पूरे परिवार के खिलाफ दहेज और घरेलू हिंसा, पति के खिलाफ अप्राकृतिक यौन संबंध, ससुर के खिलाफ बलात्कार के मामले और साले के खिलाफ छेड़छाड़ के आरोपों का मिला-जुला मिश्रण हैं। ऐसा भी हुआ कि शिकायतकर्ता द्वारा कथित घटना की तारीख या समय या स्थान का उल्लेख किए बिना एक-पंक्ति के आरोप में पति और उसके पूरे परिवार को कैद कर दिया गया, भले ही ऐसा कोई अपराध कभी नहीं हुआ था।

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महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम किसी भी प्रकार की घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए 2005 में पारित किया गया था। इस अधिनियम के तहत वैवाहिक बलात्कार को महिलाओं की गरिमा के खिलाफ घरेलू हिंसा माना जाता था। इस अधिनियम के तहत, एक महिला न्यायालय तक पहुंच सकती है और वैवाहिक बलात्कार के लिए अपने पति से कानूनी विच्छेद प्राप्त कर सकती है।

झूठ बोले कौआ काटे, ऐसी स्थिति में क्या भारत में पति-पत्नी के बीच यौन संबंधों को बलात्कार के दायरे में लाना चाहिए? एक चिंता यह है कि असंतुष्ट पत्नियों द्वारा पतियों के खिलाफ उन्हें और उनके परिवारों को परेशान करने के लिए झूठे आरोप लगाए जा सकते हैं। भले ही यह एक वैध चिंता है, इसे याचिकाकर्ताओं और यहां तक ​​कि मामले की सुनवाई कर रही पीठ द्वारा भी माना गया है।  पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि “हर कानून का दुरुपयोग किया जा सकता है लेकिन यह कानून नहीं लाने का आधार नहीं हो सकता।” यह तर्क देखने में तो जायज लगता है, लेकिन एक नया कानून लाते समय जमीनी हकीकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है अगर हम वास्तव में हर नागरिक के समान अधिकारों के बारे में चिंतित हैं।

ऐसे मामले हैं जहां 75-80 वर्षीय ससुर को बहू द्वारा बलात्कार के आरोप में सलाखों के पीछे डाल दिया गया है, फिर बड़ी रकम के भुगतान के बाद मामलों का निपटारा किया गया है। अब, अगर वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित कर दिया जाए, तो एक आदमी कैसे साबित करेगा कि उसने पांच साल पहले हुई एक घटना की शिकायत करने पर अपनी पत्नी का बलात्कार नहीं किया? अगर कोई महिला रेप की शिकायत करती है तो पुलिस एफआईआर दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकती है। अपराध हुआ है या नहीं, यह पता लगाने के लिए वे क्या प्रारंभिक जांच करेंगे? आज एक महिला को रेप का केस दर्ज करने के लिए अपने बयान के अलावा और कुछ नहीं चाहिए। आरोपी द्वारा पेश किए गए किसी भी सबूत पर पुलिस शायद ही कभी विचार करती है। 2013 से बलात्कार कानूनों का घोर दुरुपयोग हुआ है और यह किसी का भी अनुमान नहीं होगा कि इस तरह के आरोपों ने वैवाहिक विवादों में अपनी जगह क्यों नहीं बनाई।

अगर हम महिलाओं की गरिमा की रक्षा करने की बात कर रहे हैं, तो हमें झूठे आरोपों से पुरुषों की गरिमा की रक्षा करने की भी बात करनी होगी। संविधान लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता है। सौ बात की एक बात, वैवाहिक बलात्कार का कानून अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। हिंदू दाम्पत्य जीवन की व्यवस्था और विवाह नामक संस्था के छिन्न-भिन्न होने का पूरा खतरा है। सबको इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। फिलहाल, सुनवाई जारी है, आज भी होगी।

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रामेन्द्र सिन्हा
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