मोदी-योगी की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में भाजपा का डबल इंजन सत्ता की सरपट भाग रही रेल को ब्रेक देने के मूड में नहीं है। तो, सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव इस बार जातीय आधार वाले छोटे दलों के साथ दोबारा सत्ता की टोंटी वापस पाने की जद्दोजहद में हैं। वहीं, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी उप्र में तीन दशक से कांग्रेस की सूखी पड़ी सियासी जमीन को उपजाऊ बनाने की कवायद में हैं। बसपा मुखिया मायावती 2007 की तर्ज पर एक बार फिर जीत के लिए सोशल इंजीनियरिंग और सोशल मीडिया के सहारे मैदान मारना चाहती हैं। तो, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM और अरविंद केजरीवाल की ‘आप’ सहित अन्य क्षेत्रीय दल भी राजनीतिक उलटफेर करने की कोशिश में हैं।
उत्तर प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में 3.89 करोड़ युवा मतदाताओं की भूमिका खासी रहेगी। मतदाता सूची के प्रकाशन और कोरोना तथा ओमीक्रोन पर इनपुट के साथ ही विधानसभा चुनावों की घोषणा कभी भी किये जाने का रास्ता साफ हो गया है। इस बीच, नैनीताल हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के बाद चुनाव आयोग और भारत सरकार से पूछा है कि क्या चुनावी रैलियां वर्चुअली और वोटिंग ऑनलाइन हो सकती है। जवाब 12 जनवरी तक देना है।
प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी अजय कुमार शुक्ला के अनुसार मतदाता सूची पुनरीक्षण के दौरान इस बार, 52 लाख से अधिक मतदाता जुड़े हैं। इनमें 14.66 लाख 18 से 19 साल के बीच वाले हैं। कुल नए नामों में इनकी भागीदारी 27.76% है। अगर पूरी मतदाता सूची की बात करें तो उसमें 3.89 करोड़ वोटर 30 साल से कम उम्र के हैं। कुल मतदाताओं में इनका आंकड़ा करीब 26% है। 80 साल से अधिक उम्र के मतदाता 24 लाख से अधिक हैं। अभियान शुरू होने के समय प्रदेश में कुल 14.71 करोड़ मतदाता थे, जो अब बढ़कर 15,02,84,005 हो गए हैं। ऐसे में कुल 31.40 लाख मतदाताओं की बढ़ोतरी हुई है। सूची में कुल पुरुष मतदाता 8.45 करोड़ और महिला मतदाता 6.80 करोड़ हैं। 8,853 थर्ड जेंडर हैं।
चुनाव की घोषणा और आचारसंहिता लागू होने के पहले भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी दृष्टि से पहले पूर्वांचल को साधा और फिलहाल पश्चिमी उप्र पर सारा जोर लगा दिया है। चर्चा तो यहां तक है कि सीएम योगी आदित्यनाथ कृष्ण जन्मभूमि मथुरा से चुनाव मैदान में उतर सकते हैं। हालांकि, गाजियाबाद या अयोध्या से भी योगी के चुनाव लड़ने की अटकलें तेज हैं।
माना जा रहा है कि पूर्वी उप्र को लेकर भाजपा ज्यादा आश्वस्त है, क्योंकि पीएम नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र और गोरक्षपीठाधीश्वर तथा सीएम योगी आदित्यनाथ के दबदबे वाले इलाके यहीं हैं। पीएम मोदी ने पिछले दो महीनों में पूर्वांचल के ताबड़तोड़ दौरे कर कई विकास परियोजनाओं की शुरुआत की है और कई की आधारशिला रखी है। चर्चा ये भी है कि चुनाव आयोग के उप्र दौरे के दौरान भाजपा ने चुनाव आयोग से आग्रह किया है कि राज्य में इस बार विधानसभा चुनाव की शुरुआत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बजाए पूर्वी उत्तर प्रदेश से की जाए।
जानकारों का मानना है कि इसका मुख्य कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के चलते जाट वोटों की नाराजगी और समाजवादी पार्टी तथा राष्ट्रीय लोक दल का साथ आना है। दरअसल, मुजफ्फरनगर दंगों के बाद 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में पश्चिमी उप्र में भाजपा को जबर्दस्त सफलता मिली थी। पूर्वी उप्र से मतदान शुरू होने पर जाट मतदाताओं को दोबारा जोड़ने की कवायद के लिए पार्टी को एक महीने का समय और मिल जाएगा।
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 312 सीटें जीतकर पहली बार उप्र विधानसभा में तीन चौथाई बहुमत हासिल किया था। तब सपा-कांग्रेस गठबंधन 54 और बसपा 19 सीटों पर सिमट गई थी। पूर्वांचल के 25 जिलों में से 11 जिलों की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा का परचम लहराया था। 141 में से 111 सीटों पर कमल खिला था। अब विकास, कानून-व्यवस्था, राम मंदिर और काशी-मथुरा भाजपा के पत्ते हैं। जातीय समीकरण भी साधने की कोशिश है।
दूसरी ओर, यादव और मुस्लिम वोटों को अपने पाले में मानने वाले अखिलेश यादव को पूर्वी उप्र में जातिगत गठजोड़ और पश्चिमी उप्र में किसान आंदोलन से उपजी नाराजगी को भुना लेने का भी भरोसा है। यही नहीं, अगर भाजपा अयोध्या, काशी और मथुरा की बात कर रही तो अखिलेश भी पीछे नहीं हैं। जिन्ना और ब्राह्मण राजनीति का कार्ड चलने के बाद, कुछ दिन पहले ही अखिलेश यादव ने कहा कि अगर उनकी सरकार होती तो एक साल में राम मंदिर बन कर तैयार हो गया होता। यही नहीं, हाल ही में अखिलेश ने कहा था कि भगवान श्रीकृष्ण रोज उनके सपने में आते हैं और कहते हैं कि राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार आने वाली है। सपा ही उप्र में राम राज्य लाएगी।
उधर, कांग्रेस ने इस बार अकेले ही दो-दो हाथ करने का फैसला किया है। वह सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है। दरअसल, कांग्रेस पार्टी पिछले 30 सालों से उत्तर प्रदेश में 50 सीटों का आंकड़ा तक नहीं पा सकी है। आखिरी बार 32 साल पहले उसने 1989 में 94 सीटें जीती थीं। गठबंधन को लेकर इस दौरान पार्टी ने खूब प्रयोग किए लेकिन वह और नीचे खिसकती चली गई। आखिरी बार 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन किया और वह मात्र 7 सीटें ही जीत सकी। अब 2022 चुनाव से पहले कांग्रेस छत्तीसगढ़ मॉडल पर काम कर रही है और लुभावने वादों के साथ प्रदर्शन, जनसंपर्क पर काम कर रही है। ताजा रणनीति में उसने महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देने के साथ ही कई लुभावने वादे किए हैं। कांग्रेस इस बार महिलाओं के अधिकार को लेकर मुद्दा उठा रही है, जिसके अंतर्गत ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ के स्लोगन के साथ कांग्रेस लगातार मैराथन रेस भी करा रही है।
मायावती की बसपा पिछले चुनाव की तरह इस बार भी सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। वर्ष 2007 में मायावती की अगुआई में बसपा ने ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोट बैंक को एक पाले में लाने में सफलता दर्ज की थी। तब बसपा ने 86 सीटों पर ब्राह्मणों को उतारा था। ब्राह्मणों ने मायावती को भी एकजुट होकर वोट दे दिया। इसका पहला कारण था, मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का कॉन्सेप्ट रखा था और दूसरा ब्राह्मण समाजवादी पार्टी से नाराज थे। उस दौरान सपा के विकल्प में बसपा ही सबसे मजबूत पार्टी थी। कांग्रेस और भाजपा की स्थिति ठीक नहीं थी। अब वर्ष 2022 के चुनाव के लिए बसपा करीब 100 ब्राह्मणों, मुस्लिमों तथा अन्य जाति के उम्मीदवारों को टिकट देना चाहती है ।
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM इस बार के चुनाव में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान तो पहले ही कर चुकी है जबकि, 2017 के चुनाव में उसने 38 सीटों पर दांव लगाया था। ओवैसी मुसलमानों को उनके वोट के दम पर प्रदेश में पहला मुस्लिम उपमुख्यमंत्री बनाने का सब्ज़बाग़ दिखा रहे हैं।
दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी भी सभी 403 सीटों पर अकेले उतरने की घोषणा कर चुकी है। आप के उप्र प्रभारी संजय सिंह के अनुसार उनकी पार्टी भाजपा के फर्जी राष्ट्रवाद और आप के असली राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर चुनाव मैदान में उतरेगी। विधानसभा चुनाव में आप 300 यूनिट मुफ्त बिजली, अच्छी और सस्ती शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए उप्र के गांव-गांव में क्लीनिक खोलने जैसे वादों के साथ जनता के बीच जाएगी।
झूठ बोले कौआ काटे
प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव में 2014 के मुकाबले लगभग 71 लाख नए मतदाता ज्यादा जुड़े थे और इनमें भी 18 वर्ष वाले मतदाताओं की संख्या 17 लाख थी। 29 वर्ष तक के युवा मतदाता की संख्या लगभग 27 फीसदी थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी 17 लाख नए मतदाता जुड़े थे और इनमें तकरीबन 12 लाख वोटर 18 वर्ष के थे।
युवा मतदाताओं ने ही वर्ष 2007 में मुलायम सिंह यादव के शासन की राजनीतिक अस्थिरता से ऊब कर मायावती के गले में जीत का स्वर्ण हार डाला और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचाया था। 2012 में अखिलेश यादव को सत्ता की टोंटी मिली। फिर उप्र के युवा मतदाताओं ने भाजपा का साथ दिया और वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। ऐसे में भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा सहित सभी पार्टिया युवाओं को लुभाने में पीछे नहीं हैं। भाजपा को सत्ता में होने का ये लाभ है कि वो अपने वायदों को अमलीजामा पहना रही है, जबकि विपक्ष वायदों के भरोसे युवाओं का दिल जीतना चाहता है।
झूठ बोले कौआ काटे, योगी अगर मथुरा से वाकई चुनाव में खड़े हो गए तो मोदी वाला बनारस इफेक्ट पश्चिम उप्र में भी देखने को मिल सकता है। यही नहीं, पीएम नरेंद्र मोदी ने उप्र के चुनावी मैदान में ‘फर्क साफ है’ का नारा दिया है। पहले की सरकार में सरकारी पैसे के दुरुपयोग को इस स्लोगन वाले विज्ञापन के जरिए स्थापित किया गया है। वहीं, कानपुर-मथुरा आदि जगहों के हालिया आय़कर-ईडी छापों ने भी भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी सपा को कटघरे में खड़ा करके भाजपा को बढ़त दे दी है। भले ही इन छापों को कितना भी पक्षपाती बताया जाए।
दूसरी ओर, अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री बनने पर घरेलू बिजली बिल माफ करने, पूरे साल मुफ्त राशन बांटने, प्रदेश में समान शिक्षा लागू करने, गरीबों का निःशुल्क इलाज और पुलिस के लिए बॉर्डर सीमा समाप्त करने जैसी लुभावनी घोषणाएं भी की हैं। साथ ही भाजपा का जवाबी हिंदू कार्ड चल कर सपा सुप्रीमो शायद, ममता बनर्जी की रणनीति पर चल रहे। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने भरी सभा में चंडी पाठ कर अपना हिंदू चेहरा भी दिखाया और थोक के भाव में मुस्लिम वोट भी बटोरे थे। हालांकि, मौलाना मुलायम की संज्ञा वाले तत्कालीन सपा मुखिया और सीएम से मिली छवि को अखिलेश कितना धो पाएंगे यह तो वक्त की बात है। वैसे, अखिलेश यादव ने भाजपा की जनविश्वास यात्राओं के मुकाबले विजय रथ यात्राओं और दनादन रैलियां करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
वहीं, बसपा मुखिया मायावती स्वयं रैलियों से दूर रहीं। उनकी निष्क्रियता और कांग्रेस संगठन की कमजोरी से समाजवादी पार्टी गठबंधन ही सीधी लड़ाई में है। प्रियंका गांधी वाड़्रा और उनके नारे ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ मैराथन दौड़ के सहारे चर्चा में आई कांग्रेस का कुछ खास प्रभाव होता नहीं दिख रहा। फिलहाल, राहुल गांधी देश से बाहर हैं तो कोरोना के कारण प्रियंका गांधी वाड्रा आइसोलेशन में।
बोले तो, विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ाने और उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के नाम पर असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में जो प्रयोग करना चाहते हैं, वैसे प्रयोग उत्तर प्रदेश में पहले भी कई बार हो चुके हैं। असदुद्दीन ओवैसी भी उन्हीं तौर-तरीक़ों के साथ उतर रहे हैं जैसा कि उनसे पहले मुस्लिम मजलिस के डॉ. फ़रीदी, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के डॉ. मसूद और पीस पार्टी के डॉ. अय्यूब के अतिरिक्त अन्य मुस्लिम नेता उतरे थे। इसलिए, ओवैसी का भी वही हश्र होना तय लगता है, जो इन लोगों का हुआ।
झूठ बोले कौआ काटे, ओमीक्रॉन इफेक्ट में वर्चुअल रैली की बंदिश लगी तो फायदे में भाजपा, सपा और कांग्रेस ही रहेंगे क्योंकि तीनों पार्टियों ने कमोबेस जनता से सीधा-संवाद का अवसर भुना लिया है। वर्चुअल रैली होगी तो फायदे में भाजपा ही अधिक रहेगी। चुनावी फायदा तो वक्त की बात है।