भारत में न्याय व्यवस्था: मुख्य न्यायाधिपति तथा कोलेजियम व्यवस्था

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सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे कई अवसर रहे हैं जब भारत के मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल एक साल से भी कम रहा। इन मुख्य न्यायाधीश पतियों ने देश की सर्वोच्च न्यायपालिका में इस सर्वोच्च पद को ग्रहण तो किया लेकिन एक वर्ष की अवधि भी पूर्ण नहीं की। लेकिन साल 2022 सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के बाद से केवल एक ऐसा दूसरा ऐसा साल होगा जब तीन महीने से कम समय में इसमें तीन अलग-अलग मुख्य न्यायाधिपति होंगे। न्यायमूर्ति एनवी रमना 16 महीने के कार्यकाल के बाद 26 अगस्त को रिटायर हो गए।

अभी हाल ही में न्यायमूर्ति नुतलपति वेंकट रमना जस्टिस उदय यू ललित को अपना कार्यकाल सौंपा। उन्हें न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में केवल दो माह का समय प्राप्त होगा। न्यायमूर्ति ललित के रिटायर होने के बाद न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ सीजेआई के रूप में दो साल के लिए कार्यकाल संभालेंगे। 26 अगस्त से शुरू होने वाला उत्तराधिकार, सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में केवल दूसरी मिसाल के रूप में दर्ज होगा। देश में 76 दिनों की समयावधि में तीन अलग-अलग मुख्य न्यायाधिपति होंगे। इससे पहले 1991 में नवंबर और दिसंबर के बीच देश में तीन अलग-अलग मुख्य न्यायाधिपति थे। मुख्य न्यायाधिपति रंगनाथ मिश्रा 24 नवंबर 1991 को रिटायर हुए थे। न्यायमूर्ति कमल नारायण सिंह ने 25 नवंबर से 12 दिसंबर 1991 तक सत्रह दिनों के लिए सबसे छोटे कार्यकाल का रिकॉर्ड बनाते हुए सीजेआई के रूप में पदभार संभाला था। न्यायमूर्ति एमएच कानिया ने न्यायमूर्ति सिंह का स्थान लिया और 13 दिसंबर 1991 से 17 नवंबर तक इस पद पर बने रहे।

न्यायमूर्ति एमएच कानिया न्यायमूर्ति सिंह के उत्तराधिकारी बने और 13 दिसंबर 1991 से 17 नवंबर 1992 तक इस पद पर रहे। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सामान्यतः अपनी वरिष्ठता के आधार पर मुख्य न्यायाधिपति के रूप में कार्यभार संभालते हैं। जबकि मुख्य न्यायाधिपति के लिए कोई कार्यकाल निर्धारित नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीषों की सेवानिवृत्ति की आयु संविधान के तहत 65 वर्ष निर्धारित की गई है। अनेक न्यायविदों एवं न्यायाधीषों का यह मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीषों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से इस मामले में काफी मदद मिल सकती है। देष में ऐसे अनेक वकील हैं जो 75 या 80 साल की आयु तक काम कर रहे हैं। साथ ही संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु उस समय के औसत जीवन के आधार पर बहुत पहले तय की गई थी। वर्तमान समय में इसमें अब एक संशोधन की आवश्यकता महसूस की जा रही है। एक मुख्य न्यायाधिपति का कार्यकाल कम से कम तीन वर्ष का होना चाहिए।


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कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। इसने यह निर्धारित किया गया है कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश के सुझाव की प्रधानता को ठोस कारणों से ही अस्वीकार किया जा सकता है। इस निर्णय ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित कर दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की थी कि परामर्श का अर्थ वास्तव में सहमति है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह मुख्य न्यायाधीश व्यक्तिगत राय नहीं होगी। बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी। राष्ट्रपति द्वारा जारी एक प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पांच सदस्यीय निकाय के रूप में कॉलेजियम का विस्तार किया। इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधिपति द्वारा की जाती है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश भी शामिल होते हैं। उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिए अनुशंसित नाम मुख्य न्यायाधिपति और सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के अनुमोदन के बाद ही सरकार तक पहुंचते है। उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही की जाती है। इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका कॉलेजियम द्वारा नाम तय किये जाने के बाद की प्रक्रिया में ही होती है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अगले मुख्य न्यायाधीश के संदर्भ में निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करते हैं। हालांकि वर्ष 1970 के दशक के अतिलंघन विवाद के बाद से व्यावहारिक रूप से इसके लिए वरिष्ठता के आधार का पालन किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के लिए नामों के चयन का प्रस्ताव मुख्य न्यायाधिपति द्वारा शुरू किया जाता है। मुख्य न्यायाधिपति कॉलेजियम के बाकी सदस्यों के साथ-साथ उस उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से भी परामर्श करते हैं। इससे न्यायाधीश पद के लिए अनुशंसित व्यक्ति संबंधित होता है। निर्धारित प्रक्रिया के तहत परामर्शदाताओं को लिखित रूप में अपनी राय दर्ज करानी होती है और इसे कार्यवाही का हिस्सा बनाया जाना चाहिये। इसके पश्चात कॉलेजियम केंद्रीय कानून मंत्री को अपनी सिफारिश भेजता है। इसके माध्यम से इसे राष्ट्रपति को सलाह देने हेतु प्रधानमंत्री को भेजा जाता है।

उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस आधार पर की जाती है कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने वाला व्यक्ति संबंधित राज्य से न होकर किसी अन्य राज्य से होगा। यद्यपि चयन का निर्णय कॉलेजियम द्वारा लिया जाता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश मुख्य न्यायाधिपति और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है। हालांकि इसके लिये प्रस्ताव को संबंधित उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श के बाद पेश किया जाता है। यह सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है। जो इस प्रस्ताव को केंद्रीय कानून मंत्री को भेजने के लिये राज्यपाल को सलाह देते हैं।

इस प्रणाली में सुधार के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (99वें संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से) द्वारा इसे प्रतिस्थापित करने के प्रयास को वर्ष 2015 में न्यायालय ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा है। लोकतंत्र की रक्षा के लिये बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं में भारतीय न्यायपालिका को गौरवशाली स्थान प्राप्त है। अतः राष्ट्र, नागरिकों और न्यायपालिका को इसकी स्वतंत्रता को कमजोर होने से बचाना भी चाहिये। न्यायिक प्रणाली में लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिये वर्ष 1993 में कॉलेजियम प्रणाली का एक नया तंत्र स्थापित किया गया था। कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है, कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है बल्कि न्यायपालिका में सर्वोच्च सत्यनिष्ठा वाले न्यायाधीशों के एक निकाय द्वारा सामूहिक रूप से बनाई गई राय है। हालांकि कॉलेजियम प्रणाली की दक्षता को समय-समय पर इसकी स्वतंत्रता और न्यायिक नियुक्तियों तथा अन्य निर्णयों की पारदर्शिता के संदर्भ में चुनौती दी गई है।