Justice and Law: न्यायाधीश के संबोधन पर फिर छिड़ी रोचक बहस!

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न्यायालयों में न्यायाधीशों को कैसे संबोधित किया जाए यह एक दिलचस्प प्रश्न है। सामान्यतः अभिभाषकों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में ‘योर लॉर्डशिप’ शब्द का उपयोग किया जाता है। अभिभाषक अपने द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं के प्रारंभ एवं अंत में ‘योर लॉर्डशिप’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। अमेरिका में यह शब्द वहां की सर्वोच्च न्यायालय में संबोधन के लिए प्रयोग किया जाता है।
कई विदेशी न्यायालयों में ‘मिस्टर चीफ जस्टिस’ तथा ‘मे इट प्लीज द कोर्ट’ जैसे संबोधनों से संबोधित किया जाता है। आस्ट्रेलिया हायकोर्ट ने खुद के संबोधन हेतु ‘योर आनर’ शब्द के प्रयोग के लिए कहा। अमेरिका के न्याय विभाग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय, अपीलीय न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में ‘माई लार्ड’ या ‘माय लेडी’ के रूप में संबोधन हेतु कहा गया है।
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रणाली का हिस्सा ये शब्द रहे है। अंग्रेजों की न्याय प्रणाली में ‘माई लार्ड’ अथवा ‘योर लॉर्डशिप’ शब्दों का प्रयोग न्यायाधीशों को उनकी क्षमता और ज्ञान को मान्यता देने के लिए किया जाता रहा है। न्यायाधीशों को ईश्वरी गुणों से युक्त माना जाता था। अंग्रेजों के जाने के बाद आज भी न्यायालयों में इन शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
पिछले कुछ बरसों में इन शब्दों का प्रचलन कम हुआ है तथा न्यायालयों में ‘सर’ शब्द का प्रयोग बढ़ा है। आजादी के लगभग सात दशकों के बाद अब इन शब्दों के उपयोग पर देश के न्यायिक जगत में दिलचस्प बहस चल रही है। कई अभिभाषकों का यह मानना है कि न्यायाधीशों को खुश करने के लिए ऐसे औपनिवेशिक शीर्षकों का प्रयोग करना आवश्यक नहीं है।
    एक दिलचस्प किस्सा मुझे याद आ रहा है। एक उच्च न्यायालय के एक विद्वान न्यायाधीश अपनी पत्नी के साथ एक प्रसिद्ध मंदिर के दर्शन करने गए थे। उन्होंने स्वयं बताया कि वे मंदिर के अंदर दर्शन करने नहीं गए। उनकी पत्नी ने दर्शन किए। वे मंदिर के बाहर बैठे थे तो किसी ने उनसे पूछा कि आप दर्शन के लिए मंदिर में क्यों नहीं गए।
इस पर उन्होंने जवाब दिया कि मैं एक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हूॅं तथा एक लार्ड दूसरे लार्ड से मिलने कैसे जा सकता है! भले ही यह अहं का एक जीवंत उदाहरण है, लेकिन इसमें ‘माय लार्ड’ संबोधन का भी कुछ असर तो अवश्य ही रहा होगा। ऐसे ही उदाहरणों के कारण एक लोकहित याचिका में कहा गया कि लार्ड का मतलब भगवान होता है। कलियुग में भगवान की उत्पत्ति नामुमकिन है।
धार्मिक दृष्टिकोण से भी किसी मानव को ‘माय लार्ड’ या ‘योर लॉर्डशिप’ कहना उचित नहीं है। बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने सन 2000 में ही इन शब्दों से संबोधित करने से इंकार कर चुका है। लेकिन। आज भी यह परंपरा समाप्त नहीं हुई।
   हाल ही में केरल हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने जब एक कनिष्ठ अभिभाषक ने उन्हें ‘सर’ कहकर संबोधित किया, तो न्यायमूर्ति रामचंद्रन ने कहा कि आप मुझे इस संबोधन से संबोधित कर सकते है। संबोधन के लिए सामान्यतया संबोधित किए जाने वाले संबोधन ‘लॉर्डशिप’ अथवा ‘योर लॉर्डशिप’ शब्दों की आवश्यकता नहीं है।
इस युवा अभिभाषक एक मामले में न्यायालय के समक्ष एक प्रकरण में बहस कर रहे थे। उन्होंने भूलवश न्यायाधीश को ‘सर’ कहकर संबोधित किया। इसके बाद उन्होंने तुरंत न्यायाधीश से माफी भी मांगी। माफी मांगे जाने पर न्यायमूर्ति रामचन्द्रन ने कहा ठीक है, आप मुझे ‘सर’ कहकर भी संबोधित कर सकते हैं।
इस दिलचस्प वाकये ने एक बार पुनः सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों को किस प्रकार संबोधित किया जाए, इस पर एक बहस को पुनः हवा दी है। इसके पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने जुलाई 2021 में एक अभिभाषक को आश्वस्त किया था कि वे न्यायमूर्ति गणों को ‘सर’ कहकर संबोधित कर सकते हैं।
इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। इसके पहले न्यायमूर्ति ज्योति मुलीमनी ने सभी अभिभाषकों से अनुरोध किया कि वे उन्हें मैडम’ संबोधन से संबोधित करें। न्यायमूर्ति कृष्णा भाट ने भी अभिभाषकों से कहा कि वे उनके न्यायालय में लार्डशिप’ एवं ‘माय लार्ड’ के संबोधन से बचे तथा उन्हें ‘सर’ संबोधन से संबोधित करे।
कुछ समय पूर्व कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति थोट्टाथिल बी नैयर राधाकृष्णन ने तथा सन् 2011 में राजस्थान हायकोर्ट की पूर्ण पीठ ने अभिभाषकों से लगभग इसी प्रकार का अनुरोध किया था।
ऐसा ही टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 2014 में एक अभिभाषक द्वारा एक लोकहित प्रस्तुत याचिका की सुनवाई के दौरान भी की गई थी। इस याचिका में यह मांग की गई थी कि सुनवाई के दौरान न्यायालय में अभिभाषकों द्वारा न्यायाधीशों को संबोधन के दौरान ‘योर लॉर्डशिप’ तथा ‘माय लार्ड’ के संबोधन से रोका जाए।
इस याचिका को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि हमने यह कब कहा कि यह संबोधन अनिवार्य है। हमें गरिमा के साथ संबोधित करें। इस प्रकार की नकारात्मक प्रार्थना हमारे द्वारा स्वीकार नहीं की जा सकती! हमें लॉर्डशिप’ कहकर संबोधित न करें। हम कुछ नहीं कहेंगे।
हमारा केवल इतना ही कहना है कि गरिमा के साथ संबोधित करे। इस याचिका में इन शब्दों का प्रयोग करने पर प्रतिबंध की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता के अनुसार ये शब्द गुलामी के प्रतीक है। न्यायालय को इनके इस्तेमाल पर सख्ती से रोक लगाई जानी चाहिए।
13 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधिपति एसए बोबड़े तथा एक अभिभाषक के मध्य रोचक बातचीत हुई। विषय फिर यही था कि न्यायालय को कैसे संबोधित किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति की अध्यक्षता में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से एक मामले की सुनवाई चल रही थी। इस बहस में अभिभाषक ने उन्हें ‘योर ऑनर’ कहकर संबोधित किया।
इस पर मुख्य न्यायमूर्ति बोबड़े ने पूछा कि क्या आप अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में है! मुख्य न्यायाधिपति के अनुसार ‘योर ऑनर’ का प्रयोग भारतीय नहीं बल्कि अमेरिकी है। अभिभाषक ने इस पर कहा कि कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे यह तय हो कि वकील अदालत को कैसे संबोधित करे। इस पर मुख्य न्यायाधिपति न्यायमूर्ति बोबड़े ने कहा कि यह परंपरा तथा प्रेक्टिस का मामला है। न्यायालय ने कहा कि अभिव्यक्ति के उचित तरीकों को स्वीकार किया जाता है।
इस बहस का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि मई 2006 को ही बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया ने गैजेट में अपना एक रिलाॅल्यूशन प्रकाशित किया था। बार कौंसिल को एडवोकेट्स एक्ट की धारा 49 नियम बनाने की शक्ति प्रदान करती है।
बार कौंसिल ने कहा कि न्यायालय के प्रति सम्मान प्रकट करने के बार के दायित्व के अनुरूप और न्यायिक कार्यालय की गरिमा को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में ‘योर ऑनर’ अथवा ;ऑनरेबल कोर्ट’ तथा अधीनस्थ न्यायालयों एवं न्यायाधिकरणों में ‘सर’ अथवा अपनी स्थानीय भाषा में समकक्ष सम्मानजनक शब्द कहने का विकल्प अभिभाषकों के लिए खुला है। कौंसिल ने यह भी स्पष्ट किया कि ‘माई लॉर्ड’ और ‘योर लॉर्डशिप’ शब्द औपनिवेशिक काल के अवशेष है।
इस दिलचस्प बहस का एक तथ्य यह भी है कि बार कौंसिल ही वकीलों की वेशभूषा अनुशासन आदि कायदे-कानून तय करती है। लेकिन, न्यायाधीशों को संबोधन किस प्रकार करना है इस पर असमंजस अभी भी बना हुआ है।
एक बात तो तय है कि न्यायालयों के न्यायमूर्ति गणों को किसी भी शब्द से संबोधित करें, लेकिन वह शब्द निश्चित ही आदर, सम्मान एवं उनकी गरिमा के अनुकूल होना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों न हो ? हमारे देश में आज भी न्यायालय न्याय पाने का अंतिम विकल्प है। लोगों के मन में भी सर्वोच्च, उच्च एवं अधीनस्थ न्यायालयों एवं न्यायाधीशों के प्रति गहरी आस्था, सम्मान एवं श्रद्धा विद्यमान है।