कैलाश विजयवर्गीय : रिश्तों की बुनावट का आधार उनकी मानवीय संवेदनाएं

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कैलाश विजयवर्गीय : रिश्तों की बुनावट का आधार उनकी मानवीय संवेदनाएं

 

मध्य प्रदेश के नगरीय विकास एवं आवास मंत्री कैलाश विजयवर्गीय को विधानसभा चुनाव के पहले जितने विवादस्पद सियासी सवालों का सामना करना पड़ता था, वैसे सवालों का सामना उन्हें चुनाव जीतने के बाद भी करना पड़ता है। उनका सियासी कद उन्हें कभी भी सवालों से बरी नहीं होने देता है। इन सवालों का सामना किसी दूसरे भाजपा-नेता को कदाचित ही करना पड़ा होगा। चुनाव के पहले सवाल उनके मुख्यमंत्री होने या नहीं होने से जुड़े होते थे, और चुनाव के बाद सवालों का सिलसिला उनकी राजनीतिक हैसियत को टटोलने वाला होता है। बहरहाल, जैसे सवाल होते हैं वैसे ही उनके जवाब भी दिलचस्प होते हैं। (मध्य प्रदेश में कैबिनेट मंत्रियों के नामों को लेकर जिन नेताओं के बारे में सबसे ज्यादा कौतुहल था, उनमें पहला नाम कैलाश विजयवर्गीय था। अब वो नगरीय विकास और आवास मंत्री हैं।

ताजा वाकया कैबिनेट गठन के पूर्व का है। सप्ताह भर पहले 22 दिसम्बर को इंदौर में मीडिया से मुखातिब कैलाश विजयवर्गीय के इस कथन ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं कि राजनीतिक रूप से वो ‘बड़े आदमी’ हैं, लेकिन आप लोग याने मीडिया ही उन्हें ‘बड़ा आदमी’ नहीं मानता है। सवाल यह था कि अब तो आप की हैसियत विधायक के रूप में सिमट चुकी है, आगे भाजपा में आपकी भूमिका क्या होगी ?

जवाब में उलाहना देते हुए कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि ‘’मैं विधायक जरूर हूँ, लेकिन पार्टी में मेरी भूमिकाएं बड़ी हैं। मैं अभी भी ‘बड़ा आदमी’ हूँ। मैं बीजेपी का राष्ट्रीय महामंत्री भी हूँ। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जा रहा हूँ।‘ हंसते हुए कैलाशजी ने कहा कि उनकी भूमिका को सिर्फ विधायक के रूप में नहीं देखा जाए, भैया मैं ‘बड़ा आदमी’ हूँ, आप लोग मुझे हलके में ले लेते हैं, बीजेपी में अभी भी उनका कद राष्ट्रीय स्तर का है, वो रणनीतिक स्तर पर काफी प्रभावशील हैं।’’

कैलाश विजयवर्गीय का यह उत्तर भले ही हास-परिहास और कटाक्ष का हिस्सा रहा हो, लेकिन उनके इस उलाहने में सच्चाई का पुट भी है। उन्हें जानने वाले ज्यादातर लोगों के लिए वो ‘बड़े आदमी’ नहीं हैं। आम लोगों से उनकी नजदीकियां लोगों को उनका ऊंचा कद महसूस ही नहीं होने देती हैं। लोगों के नजदीक उनके अपनत्व की डोर उन दायरों को बांध देती है, जो दूरियां पैदा करते हैं। जिन लोगों के सामने वो बड़े हुए, जिन लोगों के साथ वो बड़े हुए और जो लोग उनके सामने बड़े हुए, उन सभी लोगों से उनके रिश्तों की परिभाषाएं अलग-अलग हैं। भरोसे का बंधन हैं,जो उन्हें बांधता है। लोग उन्हें उनके पद-नाम से संबोधित नहीं करते हैं। वो सबके लिए ‘अपने कैलाशजी’ हैं। शायद इसीलिए वो ‘बड़े’ होकर भी ‘बड़े’ नहीं हो पाते हैं।

कैलाश विजयवर्गीय राजनीतिक मनोविज्ञान के दक्ष खिलाड़ी हैं। आम लोगों से उनके रिश्तों की बुनावट का आधार उनकी मानवीय संवेदनाएं हैं, जो उन्हें लोगों के नजदीक ले जाकर खड़ा कर देती हैं। राजनीतिक व्यवस्थाओं में सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत क्षेत्रों में संवेदनशीलता ही लोगों से जोड़ने वाली मुख्य धूरी है। कैलाशजी में लोगों को पढ़ने और समझने की अद्भुत क्षमताएं हैं। वो लोगो के मूल्यों, मनोभावों, व्यवहार, मान्यताओं, विश्वास करने के तरीकों के बखूबी समझते और निबाहना जानते हैं। उनकी यह समझ उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग करती है।

संत कबीर ने अपने तीन दोहों में इंसान के ‘बड़ा’ होने की खूबियों की ओर इशारा किया है। ‘बड़ा’ होने के असली मायने भी बताएं हैं? आत्म-श्लाघा में जीने वाले लोगों की गलतफहमियों को भी इन दोहों में बखूबी साफ किया गया है। कबीर का पहला दोहा है ‘’बड़ा हुआ तो क्या हुआ,जैसे पेड़ खजूर, पंथी को साया नहीं फल लागे अति दूर’’ याने खजूर की भांति बड़ो होने के कोई मायने नहीं होते हैं, कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इससे न तो यात्रियों को छाया मिलती है, ना ही इसके फल आसानी से तोड़े जा सकते हैं, याने बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का लाभ नहीं होता है…।

कबीर का दूसरा दोहा है ‘’ऊँचा देखि न राचिये, ऊँचा पेड़ खजूर, पंखि न बैठे छाँयड़े फल लागा अति दूर’’…किसी का ऊंचा महल, मान-सम्मान देख कर भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए, ऊँचा तो खजूर का पेड़ भी होता है,लेकिन न तो उसकी छाया पक्षियों को आश्रय देती है, न फल सहजता से मिलते हैं।

कबीर ने तीसरे दोहे में भी अदभुत संदेश दिया है -‘’ऊँचा पानी ना टिकै, नीचै ही ठहराय, नीचा होय सो भरि पिए, ऊँच पियासा जाय’’…। पानी ऊँचे टीलों व पहाड़ों पर कभी भी नहीं ठहरता है, वह गड्ढों और नीची भूमि में ही जाकर ठहरता है,जो आदमी नीचे झुक कर अंजुली भर कर पानी ग्रहण करता है, उसकी प्यास बुझ जाती है, और जो झुकने में हीनता समझता है, वह प्यासा ही रह जाता है …।

राजनीतिक, सार्वजनिक और सामाजिक जीवन की कसौटियों को निर्धारित करने वाले कबीर के ये तीन दोहे कैलाश विजयवर्गीय को तौलने और नापने का अच्छा पैमाना हैं। वो पद और ओहदे के उस टापू पर नहीं खड़े हैं, जो उन्हें कार्यकर्ताओं की पहुंच से बाहर कर दे। अपने साथिय़ों के मददगार के रूप में उनकी कोई सानी नहीं है। एक नेता के रूप में वो कार्यकर्ताओं को भरपूर आश्रय देते हैं। कार्यकर्ताओ से घुलने मिलने की उनकी कला बेमिसाल है। वो पानी की तरह ऊपर नहीं ठहरते हैं। दौड़कर इंदौर लौट आना उनकी फितरत है। इसलिए कैलाश विजयवर्गीय की यह शिकायत जायज है कि लोग उन्हें बड़ा नहीं मानते हैं। शायद मानेंगे भी नहीं…क्योंकि वो अपनत्व की पारदर्शी डोर से बंधे हैं।