खंडवा लोकसभा उपचुनाव: न कोई उमंग है, न कोई तरंग है …!

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जय नागड़ा की ख़ास रिपोर्ट

यह सिर्फ़ किसी फ़िल्मी गाने का मुखड़ा नहीं, जमीनी हक़ीक़त है। खंडवा उपचुनाव का वास्तविक परिदृश्य है। खंडवा के संसदीय इतिहास में इतना उदासीन चुनाव पहले कभी नहीं हुआ! मतदाताओं में इतनी हताशा कभी नहीं दिखी। कांग्रेस और भाजपा के दिग्गज़ नेता भी अपने सतत दौरों ,सभाओं से भी मतदाताओं में कोई उत्साह नहीं जगा सके। चुनावी सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप की कर्कशता ही छाई रही। किसी भी गंभीर समस्या के निदान या अंचल के विकास की ठोस योजना की किसी भी स्तर पर कोई चर्चा तक नहीं हुई। इस हालात में यह चुनाव महज़ एक रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए औपचारिकता बनकर रह गया। मतदाताओं को रिझाने के नेताओं के तमाम प्रयास मीडिया में सुर्खियाँ पाने से ज़्यादा कुछ नहीं रहे। आम मतदाता अपने को हाशिये पर ही पा रहा है।

खंडवा संसदीय इतिहास में यह 19वां चुनाव है। एक उपचुनाव सहित यहाँ 18 आम चुनाव हो चुके है। यहाँ से छह बार सांसद रह चुके भाजपा के कद्दावर नेता नंदकुमार सिंह चौहान के कोरोना से हुई असामयिक मृत्यु की वज़ह से यह उपचुनाव हो रहे है। खंडवा, बुरहानपुर, खरगोन और देवास जिले की 8 विधानसभा क्षेत्रो के 19 लाख 59 हज़ार 436 मतदाताओं को 30 अक्टूबर को मतदान कर लोकसभा में अपना प्रतिनिधि भेजना है। चुनाव लड़ने वालों में ज़रूर उत्साह है, तभी यहाँ से किस्मत आजमाने 16 प्रत्याशी मैदान के कूद पड़े। इस कारण निर्वाचन आयोग को भी प्रत्येक बूथ पर दो-दो ईवीएम की व्यवस्था करने की मशक्कत करनी पड़ी।

कोरोना को लेकर दावे, जख्मों पर नमक

कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के बाद, जबकि जनजीवन पूरी तरह सामान्य भी नहीं हो पाया कि यह चुनाव घोषित हो गए। इधर, कोरोना त्रासदी ने लोगो की आर्थिक रूप से कमर ही तोड़कर रख दी। काम-धंधे पटरी पर भी नहीं आ पाए, ऐसे में दोनों पार्टियों के नेताओं के अपनी -अपनी सरकार की उपलब्धियों के दावे ही बेमानी लगते हैं। नए सपने देखने-दिखाने के लिए तो कोई उत्कंठा ही नहीं बची। जब केन्द्र और प्रदेश में सत्तासीन भाजपा कोरोना को लेकर 100 करोड़ लोगों को मुफ्त वेक्सीन का ढिंढोरा पीटती है, तो कोरोना में अव्यवस्थाओ की बलि चढ़े लोगो के परिजनों के ज़ख्म हरे हो जाते हैं। कैसे मरीजों को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए जद्दोज़हद करनी पड़ी, ऑक्सीजन की कमी से कैसे तड़प कर मरीजों ने जान दी, कैसे रेमडेसिवर इंजेक्शन के नाम पर आम आदमी छला गया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कोरोना से जंग जीतने का दावा करने वाले लोग यह भी भूल जाते है कि निमाड़ के सबसे कद्दावर नेता नंदकुमार सिंह चौहान भी मांधाता विधानसभा उपचुनाव में प्रचार के दौरान ही संक्रमित हुए और उसके चलते ही उनकी जान गई। सरकार के तमाम प्रयास भी उन्हें नहीं बचा सके। तब आम लोगों की क्या स्थिति रही यह किसी से छुपा नहीं है।

कोरोना प्रोटोकॉल को लेकर दोहरे मापदंड

प्रशासन की भी भूमिका पर सवाल उठे जिसके दोहरे मापदंड कोरोना प्रोटोकॉल में दिखे। एक ओर धार्मिक-सामाजिक आयोजनों में प्रशासन कोविड प्रोटोकॉल की दुहाई देते हुए सख़्ती दिखाता रहा, वहीं नेताओं के सामने वह बेबस दिखा। राजनीतिक आयोजनों में बढ़ती भीड़ और कोविड प्रोटोकॉल की जमकर धज्जियाँ उड़ी तो प्रशासन ने अपना मुंह फेर लिया। प्रशासन के इस दोहरेपन ने आम नागरिको को और कुंठित कर दिया। इसके चलते वह अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। कोरोना लॉकडाउन के दौरान ही मास्क न पहनने पर पुलिस ने आम जनता के तो खूब चालान बनाए, लेकिन प्रभावशालियों के सामने वे सलाम ठोकते नज़र आए। लॉकडाउन के दौरान एक घरेलू कामकाज करने वाली एक ग़रीब और विधवा महिला का पुलिस ने चालान बनाया तो उसका गुस्सा फूट पड़ा। उसने एक जवान को ही सार्वजानिक रूप से चांटा जड़ दिया। उस चांटे की गूंज मीडिया के माध्यम से पूरे देश में सुनाई दी।

बेरोजगारी, महंगाई पर सब चुप

कोरोना संक्रमण ने जहाँ मध्यमवर्गीय परिवारों को गहरे आर्थिक संकट में डाल दिया। वहीं, बढ़ती महंगाई ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। गाड़ी के तेल से लेकर खाने तक का तेल उसकी पहुंच से बाहर निकल गया। कोरोना संक्रमण के दौरान जहाँ सार्वजनिक परिवहन के साधन बन्द हो गए, तब लोगों के लिए बाईक ही एकमात्र सहारा बनी। इसलिए लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद सबसे ज्यादा दुपहिया वाहनों की बिक्री में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। अब इन वाहनों का कंठ तर करने में लोगो के कंठ सूख रहे है। आज पेट्रोल का भाव खंडवा में 118 रूपए 27 पैसे हो गया है।

महंगाई को लेकर जहाँ कांग्रेस इसे चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है, तो भाजपा राष्ट्रवाद के प्रवचन जनता को सुनाने लगती है कि देश की सुरक्षा के लिए कोरोना टीकाकरण के लिए यह जरूरी है। भाजपा के उत्साही नेता जब यह कहते है कि पेट्रोल दो सौ रूपए हो जाए तब भी वोट मोदीजी को …  आम जनता के जख्मों पर नमक का काम करते है इस तरह के बयान। ज़ाहिर है आम जनता की पीड़ा बहुत गहरी है और इसे दूर करने के समाधान बहुत ही सतही। आम लोगों में यदि सत्ता से नाराजी है, तो विपक्ष से भी कोई नाराजी कम नहीं है। उसने भी सशक्त विपक्ष की भूमिका कभी नहीं निभाई! यदि भाजपा ने उसे दर्द दिया तो सहलाने के लिए कांग्रेस भी कभी साथ खड़ी नहीं दिखी।

नंदू भैया खांडवा जिले में न सिर्फ भाजपा के लिए तुरुप का इक्का थे, बल्कि सभी नेताओं के बीच वे सर्वाधिक विश्वसनीय भी। उनके न रहने से अब कोई ऐसा चेहरा स्थानीय राजनीति में बचा नहीं, जिस पर आम जनता का भरोसा क़ायम रह सके। कुल मिलाकर आम नागरिकों के मन में अब जनप्रतिनिधियों के प्रति न कोई विश्वास बचा है न सम्मान। जनप्रतिनिधि भी इस बात को महसूस कर रहे हैं। अनेक ग्रामीण अंचलों में तो नेताओं के प्रति इतना आक्रोश नज़र आया कि उन्होंने उन्हें प्रचार के लिए अपने गाँवो में घुसने तक नहीं दिया। ज़ाहिर है जनप्रतिनिधियों और जनता के बीच विश्वास का सम्बन्ध टूटता दिख रहा है और यही उनकी उदासीनता की ख़ास वज़ह भी है।