जिस जमाने में लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा के बाद पढ़ने नहीं दिया जाता था, समय छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव की लड़की ने पुलिस अफसर बनने का सपना देख लिया था। वो बचपन से ही पुलिस की वर्दी पहनने का सोचती। पुलिस की कैप लगाकर तिरंगे को सैल्यूट करना चाहती थी। उसने दिन-रात मेहनत की और पढ़ाई की। लेकिन, जब डीएसपी में चुन लिया गया तो पिता ने मना कर दिया। इसके बाद तो घर में हंगामा हो गया।
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के एक छोटे से गांव पांडुका के किसान परिवार में जन्मी रानू साहू पढ़ाई में बहुत तेज थी। उन्होंने 10वीं उस समय 90% अंक लेकर पास की। रानू को अच्छी टीचर्स का साथ मिला। उनकी सलाह पर उन्होंने कुछ आगे बढ़ने की सोचा और अंतिम रूप से फैसला किया कि वे पुलिस में जाएंगी। एक इंटरव्यू में भी रानू साहू ने बताया था कि उन्हें पुलिस की वर्दी बहुत आकर्षित करती थी। वो हमेशा खुद के पुलिस की वर्दी में सपने देखा करती थी। इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने ठान लिया कि वे पुलिस अफसर बनेंगी।
रानू ने स्नातक के बाद इस दिशा में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पिता को भी इस बारे में बताया, पर पिता को बेटी का पुलिस में जाने का विचार पसंद नहीं आया। वे यह बात सुनते ही भड़क गए। पिता एक मामूली किसान थे और नहीं चाहते थे कि बेटी पुलिस जैसी नौकरी में जाए। क्योंकि, इस नौकरी को लड़कियों के लिए सही नहीं माना जाता था। पिता के इनकार के बाद रानू काफी रोई। पिता और परिवार के लोगों को अपने सपने के बारे में समझाया। ऐसे हालात में मां उनकी मददगार बनी और पिता और रानू के बीच मध्यस्थ बनकर पिता को राजी किया। बेटी का हौसला बढ़ाया और पिता को भी समझाया कि बेटी के सपनों को साकार करने में उसकी मदद करें, रोड़ा नहीं बने!
अंततः रानू ने पिता मान गए। इसके बाद उन्होंने फॉर्म भर दिया। वे 2005 में डीएसपी के लिए चयनित हुई। ये उनके सपने के सच होने जैसी बात थी। रानू देश की उन जांबाज महिला पुलिस अफसरों में से एक हैं, जो नक्सली इलाकों में भी काम करके कई चुनौतियों को झेल चुकी हैं। तेजतर्रार कार्यशैली उनके व्यक्तित्व को और भी प्रखर एवं प्रभावी बनाती है।
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पुलिस की ट्रेनिंग के साथ ही उन्होंने IAS की तैयारी भी जारी रखी। IAS बनने का चस्का लगा, तो वे यूपीएससी देती रहीं। आखिरकार उन्होंने साल 2009 में एग्जाम क्लियर किया और आईएएस बनी। उन्हें छत्तीसगढ़ कैडर में ही 2010 बैच अलॉट हुआ। पहली पोस्टिंग एसडीएम सारंगढ़ की मिली। इसके बाद सीईओ जिला पंचायत कोरिया, निगम आयुक्त बिलासपुर, एडीएम अंबिकापुर, डायरेक्टर हेल्थ के बाद कलेक्टर कांकेर, बालोद, और कोरबा में रह चुकी हैं। हाल ही में उन्हें रायगढ़ जिले का कलेक्टर बनाया गया है।
रानू साहू उन IAS अधिकारियों में से हैं, जो लीक से हटकर काम करने में रूचि रखती हैं। कोरबा कलेक्टर के रूप में उन्होंने ऐसा काम किया, जिसकी लोग अभी भी बात करते हैं। एक आश्रम में जन्मी बच्ची का उन्होंने नामकरण किया और उसकी पढ़ाई-लिखाई से लेकर शादी तक की खर्च उठाने की जिम्मेदारी का वादा किया। इस आश्रम का संचालन सामाजिक संस्था ‘छत्तीसगढ़ वेल फेयर सोसायटी’ करती है। इस आश्रम में इसमें मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों की देखभाल की जाती है।
कोविड की दूसरी लहर के दौरान कोरबा के पुराने बस स्टैंड में एक मानसिक रूप से कमजोर महिला मिली थी। उसे डॉक्टरी जांच के लिए ले जाया गया। जांच के बाद डॉक्टरों ने बताया कि महिला पांच माह की गर्भवती है। उस महिला को छत्तीसगढ़ वेल फेयर सोसायटी द्वारा संचालित ‘अपना घर’ सेवा आश्रम में लाया गया था। आश्रम में गर्भवती महिला की देखभाल की गई और महिला ने एक बच्ची को जन्म दिया। इस बच्ची का नामकरण और अन्नप्राशन संस्कार के लिए कोरबा कलेक्टर रानू साहू को आमंत्रित किया गया।
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कार्यक्रम के दौरान कलेक्टर रानू साहू ने इस बच्ची को अपने गोद में लिया और नामकरण किया। साथ ही उसकी पढ़ाई-लिखाई से लेकर शादी तक की खर्च उठाने का संकल्प लिया। कलेक्टर ने बच्ची का नामकरण ‘तेजस्विनी’ करते हुए कहा कि ये बच्ची अपने नाम के अनुरूप समाज में एक विशेष मुकाम हासिल करेगी और लोगों को जीने का नया तेज देगी। रानू साहू उन महिला अफसरों में हैं, जो एक मिसाल हैं।