Kolkata’s Doctor Rape Case : न्यायिक प्रक्रिया को शक्तिशाली और फुर्तीला बनाना होगा!
कोलकाता के आर जी कर मेडिकल कॉलेज की 31 वर्षीया पीजी ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार, हत्या और उस पर की गई पाशविक क्रूरता ने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया है। डॉक्टरों के राष्ट्रव्यापी आक्रोश के साथ देश का पूरा समाज भी उद्वेलित हो गया है।अपने आस-पड़ोस में होने वाले महिला उत्पीड़न के प्रति सामान्यतया संवेदनहीन समाज, 2012 के निर्भया प्रकरण के बाद एक बार फिर संवेदनाओं से भर गया है। विदेशों के भी डॉक्टर स्तब्ध है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को लेकर समाचार पत्र, टीवी चैनल और सर्वव्यापी सोशल मीडिया अति सक्रिय हो गए हैं। कोलकाता हाईकोर्ट के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी सक्रियता में पीछे नहीं है। दुर्भाग्यवश राजनैतिक दलों की प्रतिक्रियाएँ घटना स्थल की प्रदेश सरकार को देखकर मुखर या मौन होती हैं।
रूढ़िवादी भारतीय समाज में महिला उत्पीड़न की पीड़िता को अपराध के बाद फिर समाज और न्यायालय में अपमानित होना पड़ता है। उसकी खामियां निकाली जाती हैं। दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 2008 में सौम्या विश्वनाथन की हत्या के बाद मानवीय भावनाओं को तिलांजलि देते हुए कहा था कि वह देर रात में घर से बाहर ही क्यों गई थी। इन्हीं शीला दीक्षित ने 2012 में निर्भया प्रकरण को सुनकर कार्रवाई के नाम पर तत्काल टिप्पणी की थी कि इस अपराध में लिप्त बस का परमिट रद्द कर दिया गया है।
निर्भया कांड के बाद देश की अंतरात्मा में एक आशा की किरण जागृत हुई थी कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था में आमूलचूल सुधार किया जाएगा तथा महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के प्रत्येक प्रकरण में कठोर कार्रवाई की जाएगी। इस घटना के बाद गठित जस्टिस वर्मा आयोग की सिफ़ारिशों में से कुछ के आधार पर 2013 में क़ानून में थोड़े बहुत परिवर्तन किए गए। सबसे आसान विकल्प अपनाते हुए सरकार ने मुआवज़े की राशि के लिये बजट दे दिया तथा क़ानून की किताबों में 20 वर्ष की सजा, जीवन पर्यंत आजीवन कारावास तथा मृत्युदंड का प्रावधान कर दिया। निचली अदालतों ने कुछ फुर्ती भी दिखाई और हास्यास्पद शीघ्रता से फाँसी की सज़ा सुनाई गई। एक मामले में नौ दिन में फाँसी की सजा की एक ग़रीब दलित अभियुक्त को दी गई। दस साल जेल में रहने के बाद DNA की गलती के आधार पर उसे रिहा कर दिया गया। इसको बाइज़्ज़त रिहा करना कहना घाव पर नमक लगाने के समान है। फाँसी पाए 36 अभियुक्तों को हाईकोर्टों ने रिहा कर दिया।दूसरे शब्दों में वास्तविक अभियुक्त स्वतंत्र घूम रहे है। हमारी थकी हुई और अक्षम पुलिस, साधन विहीन सीमित फॉरेंसिक लैबोरेटरी, निष्प्रभावी अभियोजन और मुकदमों के बोझ से दबे हुए न्यायालयों से त्वरित और वास्तविक न्याय की अपेक्षा करना कठिन है।
निर्भया जैसे प्रकरणों की घबरायी हुई प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप जो तथाकथित न्यायिक सुधार किए जाते हैं वे सक्षम सिद्ध नहीं हो सकते हैं। हमें बिना किसी उत्तेजना के क्षणों में ठंडे मस्तिष्क से केवल दिखावटी सुधार न करते हुए पूरी व्यवस्था को आदि से अंत तक सुदृढ़ करना होगा।फ़िलहाल ऐसा करने की सरकार या विपक्ष की कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है। न्यायिक सुधारों के लिए बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यकता है परन्तु यह सरकार और विपक्ष की प्राथमिकताओं में नहीं है। वे अपने राजनैतिक खेल को अपने ही वोट बैंक के दृष्टिकोण से खेलते हैं।
पीड़ित महिलाएँ सुधार के लिए संसद, सुप्रीम कोर्ट, राजनैतिक दलों तथा समाज के पथप्रदर्शकों की ओर देख रही हैं। भगवान महावीर और बुद्ध के इस देश में हमारे घरों से लेकर बाहर तक महिलाओं के विरुद्ध अश्लीलता और हिंसा छिपी हुई है। यह महिलाओं को घर और समाज के हर क्षेत्र में बराबरी न करने देने से लेकर उनके विरुद्ध क्रूर बलात्कार और हत्या तक पर लागू होता है। हमारी इस हिंसक सोच में बदलाव की आवश्यकता है। महिलाओं को घरेलू और बाहरी प्रतिबंधों तथा नैतिक प्रवचनों से छुटकारा मिलना चाहिए। प्रत्येक बच्ची का भविष्य एक सुरक्षित देश में सुनिश्चित होना चाहिए। इस बार यदि देश के कर्णधारों की आत्मा जागृत होती है तो उन्हें हल्के फुल्के परिवर्तनों के स्थान पर न्यायिक प्रक्रिया के सभी पायों को शक्तिशाली और फुर्तीला बनाना होगा। यह कैसे किया जा सकता है, यह कर्ताधर्ताओं को भलीभाँति ज्ञात है।