
Krishna Janmashtami 2025: अखियां हरि दर्शन की प्यासी…….
डॉ० विशाला शर्मा

प्रोफेसर एवं विभाग अध्यक्ष छत्रपति संभाजी नगर,ओरंगाबाद
भारतीय धर्म एवं संस्कृति में कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यंत विलक्षण तथा बहुआयामी है। जीवन को महोत्सव के रूप में जीने वाले कृष्ण सुख और दुःख के क्षणों में समभाव को अपनाते हैं और सब कुछ आत्मसात कर लेते हैं। कारावास में जन्म लेने वाले कृष्ण जन्म लेते ही अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं। बचपन में ही कई विपत्तियों का सामना करते हुए अपने जीवन को बचाने में सफल रहते हैं। अत्याचारी कंस को उसके पापों का दंड देकर अन्याय के विरुद्ध न्याय का शंखनाद करते हैं। ऊंच-नीच और जाति-पाति की बेड़ियों को काटने का अदम्य साहस कृष्ण में था। समाजवाद की स्थापना करने वाले कृष्ण स्त्रियों को बेड़ियों से मुक्त करते हैं और संदेश देते हैं कि स्त्री का अपमान विनाश को आमंत्रण देना है। बात बहन सुभद्रा के विवाह की हो अथवा द्रौपदी को जुएँ में दांव पर लगाने के पश्चात् उसे भरी सभा में निर्वस्त्र करने की अथवा गोपियों की स्वतंत्रता की। महिलाओं के प्रति सम्मान, उन्हें साथ लेकर चलने का भाव कृष्ण के व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाता है। मर्यादा में बँधना उन्हें स्वीकार नहीं। वे स्वयं रक्षक बनकर मनुष्य को गरिमा प्रदान करते हैं। कृष्ण के लिए प्रेम हृदय का विषय है। एक मित्र, पुत्र, भाई और प्रेमी कृष्ण भारत का प्राण है। वह ब्रज की रज-रज में ही नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष की भूमि में व्याप्त है। गोवर्धन की पूजा, हल और गाय का पूजन, जंगलों का संरक्षण कर वे सिद्ध करते हैं कि प्रकृति सर्वशक्तिमान है। मोरपंख, बांसुरी, संगीत, नृत्य के साथ उल्लासमय जीवन उनके चरित्र की विशेषता है। सुदामा को गले से लगाने वाले कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। करुणा और प्रेम के पर्याय श्रीकृष्ण युद्ध में लड़ने का सामर्थ्य भी रखते हैं। यदि मनुष्य के हित के लिए युद्ध अनिवार्य है तो उसे आनंद के साथ स्वीकार करना कृष्ण के चरित्र का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। वे शक्ति संपन्न होते हुए भी अहंकारी नहीं है, युधिष्ठिर के दूत बनकर और अर्जुन के सारथी बनकर कर्म के माध्यम से जीवन की सफलता का मंत्र देने वाले भारत के गौरव हैं। मित्रता, सहयोग, सामंजस्य और उदारता के साथ संपूर्ण जीवन जीने वाले कृष्ण संपूर्णता के प्रतीक है । साहित्य में कृष्ण की बाल लीलाएं आज भी हमें प्रिय हैं। माखन चोरी और गोपियों के साथ रहने वाले सूरदास के कृष्ण यशोदा के लाल हैं तो दूसरी ओर वे नीति कुशल नरेश एवं धर्मोपदेश देने वाले अवतारी पुरुष भी हैं। इस धरती पर सर्वाधिक पर्याय नामों के साथ कृष्ण को हम याद करते हैं — जब हम कान्हा शब्द का उच्चारण करते हैं तो मन में एक चंचल नटखट बालक की तस्वीर उभरने लगती है। भारतवर्ष की हर माता अपने बालक में बालगोपाल की छवि देखती है, जो सदैव माखन चुराते, बाल सखा के साथ गायों को चराते हुए और गोपियों के साथ शरारत करने वाले मनमोहन बन जाते हैं। बालकों की स्वाभाविक मनोवृत्ति के साथ जब माँ यशोदा से वे चंद्र खिलौने की माँग करते हैं या फिर माखन खाने के बाद भी “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो” कह कर माँ को मना लेते हैं तब यशोदानंदन माखन चोर कहलाते हैं। वे रासमंडप में होते हैं तो बिहारी बन जाते हैं। ब्रजबालाओं पर मुरली का अपना ऐसा जादू छोड़ते हैं कि वे अपनी सुध बुध गँवा बैठती हैं। वे मुरली को अधरों पर धारण कर मुरलीधर बन जाते हैं। राधा के प्रेमी आज भी राधेश्याम अथवा राधेकृष्ण कहलाते हैं, इसीलिए राधा के साथ जुड़ा कृष्ण अटूट प्रेम का हिस्सा माना जाता है। जब गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठाते हैं तो वह गिरधारी कहलाते हैं।

कृष्ण उद्धव के पास होते हैं तो माधव बन जाते हैं। भागवत के कृष्ण ब्रह्मा है तो गीतगोविंद में नटवर होकर गोपीवल्लभ हैं, महाभारत में भी नीति विशारद है और शिशुपाल वध के कृष्ण वीर नायक हैं। वे मनमोहन और रसिक शिरोमणि हैं, कामदेव को लज्जित करने वाले सुजान भी हैं और योगेश्वर भी। वे रणछोड़ भी कहलाते हैं तो मरुभूमि पर रसधार बहाने वाली मीरा के पति भी हैं। वे निष्काम कर्म योगी है जिनका मानना है — अपने कर्मों के अनुसार स्वधर्म का पालन करते हुए प्राण त्यागना श्रेष्ठ है। देश के एकीकरण का कार्य करते हुए उन्होंने पूर्व से पश्चिम को जोड़ा धर्म को पाखंड से मुक्त किया और धर्म को स्वार्थ और संकीर्णता के कूप से निकाल कर मनुष्य की मंगल यात्रा का सोपान बनाया। प्रेम को परमानंद का माध्यम बनाया। भारतीय साहित्य भी कृष्ण के बगैर अधूरा है, सूर , मीरा, रसखान, बिहारी जैसे कृष्णभक्त कवियों की एक अद्भुत परंपरा हमारे यहां रही है। मीरा अपने आराध्य देव को अपने प्रेमी ही नहीं पति के रूप में स्मरण करती है –“मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई” । वही रसखान का भी संपूर्ण काव्य कृष्णभक्ति से ओतप्रोत है–“मानुष हौं तो वही रसखान बसों मिलि गोकुल गांव के ग्वारन।” मां यशोदा के नेत्रों से सूरदास वात्सल्य का कोना कोना झांक आए हैं। बाल और किशोर रूप में विभिन्न प्रकार की लौकिक एवं अलौकिक लीलाएं दिखाने वाले यशोदानंदन आज भी हमें प्रिय लगते हैं। कृष्ण ने इस राष्ट्र के भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं चारित्रिक निर्माण के लिए अपने जीवन को समर्पित किया है। यदि मानव अपने जीवन को गरिमामय बनाना चाहता है तो हमारे इस जीवनरूपी रथ का सारथी हमें कृष्ण को बनाना होगा। उन्हीं के दिशा निर्देश में शरीर रूपी रथ को मन की लगाम के द्वारा विवेक की राह पर ले जाया जा सकता है। श्रीकृष्ण की गीता का सार यही है कि कर्म के पथ पर चिंतन हो, परंतु चिंता न हो। हम अपने जीवन के लक्ष्य को चिंतन के द्वारा प्राप्त करने में सफल हो तभी हमारे जीवन की की सार्थकता होगी।
राम, कृष्ण,स्वाधीनता, स्वतंत्रता!





