रविंद्रनाथ टैगोर महान विचारक थे। उनके अनमोल वचन हमें जीने की राह दिखाते हैं। आज उनके अनमोल वचन की महत्ता अधिक बढ़ गई है, जब राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह जैसे शब्दों के इर्द-गिर्द राजनीति भी केंद्रित है। रवींद्र नाथ टैगोर ने अपने जीवन में न केवल गद्य और पद्य की रचनाएं कीं बल्कि इंसान को जीने की भी राह दिखाई, जिस पर चलकर हम अपने जीवन को स्वर्णिम बना सकते हैं।
टैगोर ने कहा था कि मिट्टी के बंधन से मुक्ति पेड़ के लिए आजादी नहीं है। यानि कि आज जिस राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रभक्ति शब्द पर आज पूरा देश दो भागों में बंटता नजर आता है, उसका सीधा सा समाधान गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के इन सरल शब्दों में समाहित है। जिस मिट्टी में हमने जन्म लिया है, जिस मिट्टी में हम पल-बढ़कर जवान हुए है। उस मिट्टी से आजाद होने की सोच ही बेमानी है। और जब नियति में बेईमानी की बू समाहित हो जाती है, तो व्यक्ति कभी मंजिल को नहीं पा पाता है। जिस तरह मिट्टी के बंधन से मुक्ति पेड़ के लिए आजादी नहीं है, उसी तरह राष्ट्रभक्ति की महक के बिना कोई व्यक्ति सुगंधित महसूस नहीं कर सकता।
हम रवींद्र नाथ टैगोर की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनका जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता में हुआ था। रबीन्द्रनाथ ठाकुर विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वह बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं।भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बांग्ला’ गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। ऐसा सम्मान दुनिया में किसी को नहीं मिला है।
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अभी कुछ समय पहले ही मैं गांधी जी के अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम का भ्रमण करके आया हूं। गांधी के विचारों से भी प्रभावित हूं। गांधी और टैगोर समकालीन महान व्यक्तित्व रहे हैं। और दोनों के बीच वैचारिक मतभेद होते हुए भी कभी व्यक्तिगत सम्मान में कमी का भाव पैदा नहीं हुआ। टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गांधी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे।
लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गांधीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस समय गांधी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था। इस प्रसंग से यही संदेश मिलता है कि राष्ट्रभक्ति और मानवता दोनों ही जरूरी है, तभी राष्ट्र समृद्ध बनता है। इसका जीता जागता उदाहरण यह दोनों महान व्यक्तित्व रहे हैं।
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1913 ई. में रविंद्र्नाथ ठाकुर को उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। 1915 ई. में उन्हें राजा जॉर्ज पंचम ने नाइटहुड की पदवी से सम्मानित किया था। पर उनकी राष्ट्रभक्ति की भावना ही थी कि 1919 ई. में जलियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ, तो इसके विरोध में गुरुदेव ने यह उपाधि लौटा दी थी। गुरुदेव के इस कदम में भी राष्ट्रभक्ति का भाव यह चिल्ला-चिल्लाकर संदेश दे रहा है कि मिट्टी के बंधन से मुक्त होकर कोई महान नहीं बन सकता।
वहीं मिट्टी के बंधन से मुक्त होकर कोई आजादी का अहसास नहीं कर सकता। आज भी किसी भी धर्म-संप्रदाय का कोई भी व्यक्ति यदि मिट्टी के बंधन को नजरअंदाज कर राष्ट्रद्रोह पर उतारू हो जाता है, तो उसकी हस्ती मिट्टी में ही मिल जाती है। मिट्टी का बंधन सबसे अनमोल है, जीते जी भी और मरते मरते तक…। इसके बिना किसी तरह की आजादी की कल्पना भी बेमानी है। बात साफ है कि देश की मिट्टी पर बलिदान बेहतर है, बजाय इसके कि देश की मिट्टी से दगा कर समृद्धि का सपना देखने की भूल की जाए।