शहादत के 121 साल 5 माह बाद ही सही, बिरसा तुम्हें मिले सम्मान से पूरा देश खुश है …

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शहादत के 121 साल 5 माह 5 दिन बाद आ रही बिरसा मुंडा की 146 वीं जयंती पर उनका नाम पूरे गौरव के साथ पूरा भारत लेगा। भोपाल के जंबूरी मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब लाखों आदिवासी नागरिकों के बीच जब बिरसा को “भगवान” कहकर संबोधित करेंगे तो हर आदिवासी का दिल गौरव से भर जाएगा।

जब प्रधानमंत्री उन्हें नमन करेंगे तो


आइए थोड़ा सा बिरसा मुंडा के बारे में जानते हैं, जिसे इतिहास के विद्यार्थी तो पढ़ते ही हैं। मुंडा जनजाति के गरीब परिवार में पिता-सुगना पुर्ती(मुंडा) और माता-करमी पुर्ती(मुंडाईन) के सुपुत्र बिरसा पुर्ती (मुंडा) का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के खुटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। जो निषाद परिवार से थे, साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद इन्होंने चाईबासा जी0ई0एल0चार्च(गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विद्यालय में पढ़ाई किये थे।

इनका मन हमेशा अपने समाज की  ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा के बारे में सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया।1894 में मानसून के छोटा नागपुर पठार, छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।

जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा को भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 ई. को अंग्रेजों द्वारा जहर देने के चलते राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड,छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है।

हो सकता है कि बिरसा की स्टेच्यू लगाने की घोषणा 15 नवंबर को भोपाल में भी सुनाई दे, यह भी हर भारतवासी को गौरवान्वित ही करेगा। रघुनाथ शाह, शंकर शाह, टंट्या भील, बिरसा मुंडा हों या कई अन्य महापुरुष… इन्हें सम्मान देने की सरकारी या गैर सरकारी कोशिश को वोट बैंक पर नजर के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। तो हम तुम्हें यकीन दिलाते हैं कि शहादत के 121 साल 5 माह बाद ही सही, तुम्हारी जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने के मोदी सरकार के फैसले के रूप में बिरसा तुम्हें मिले सम्मान से पूरा देश खुश है … न कि केवल आदिवासी समुदाय।