LAC Diplomacy – भारत चीन सहमति
भारत और चीन के बीच नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनाव और संघर्ष की स्थिति को समाप्त करने पर हुई सहमति इंडो-पैसिफिक तथा कुछ अर्थों में अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटना है। भारत के विदेश सचिव ने परसों इस सहमति की घोषणा की और अगले दिन चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इसकी पुष्टि कर दी। सहमति के अनुसार जो भविष्य की रूपरेखा बतायी जा रही है उसके अनुसार नियंत्रण रेखा पर दोनों सेनाएँ आमने सामने से हटेंगी और बफर ज़ोन में पूर्व के समान सभी 63 स्थानों पर पेट्रोलिंग करेगी। इनमें देस्पांग का मैदान तथा देमचुक भी सम्मिलित है। बफर ज़ोन में बनाए गए बंकर आदि तोड़ दिए जाएंगे। इसके बाद संभावना है कि पूर्वी लद्दाख से नियंत्रण रेखा पर आवश्यक बल को छोड़कर क्षेत्र में विसैन्यीकरण हो जाएगा। ब्रिक्स सम्मेलन प्रारंभ होने के ठीक दो दिन पूर्व हुई यह सहमति दोनों देशों की सेना के अधिकारियों और राजनयिकों की बैठकों की लंबी शृंखला का परिणाम है।
पिछले 60 दशकों से भारत बार-बार चीन से धोखा खाता रहा है, इसलिए वर्तमान सहमति के प्रति भी उसे बहुत सचेत रहना होगा। जब तक इस सहमति का वास्तविक कार्यान्वयन न हो जाए तब तक इसकी घोषणा का कोई अर्थ नहीं है। अभी तक चीन का हर प्रयास भारत को नियंत्रण रेखा पर लगातार उलझाए रख कर दबाव में रखना रहा है। यद्यपि भारत एशिया की एक बड़ी महाशक्ति है परन्तु यह तथ्य है कि चीन की आर्थिक शक्ति भारत से पाँच गुना है तथा उसकी सामरिक क्षमता भी बहुत अधिक है। नियंत्रण रेखा पर लगातार सेना की उपस्थिति बनाए रखना भारत की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है। यह सहमति यदि मूर्त रूप लेती है तो यह भारत के लिए यह बहुत राहत की बात होगी। अपनी अपेक्षाकृत कमज़ोर स्थिति के कारण भारत नियंत्रण रेखा पर शांति चाहता है। दीर्घ अवधि की शांति के लिए भारत चीन की सीमा को चिन्हित करने का उद्देश्य रखता है।
अनेक सैनिक और राजनीतिक विशेषज्ञ इस सहमति से थोड़ा अचंभित है। ऐसा प्रतीत होता है कि चीन अपनी धीमी पड़ गई अर्थव्यवस्था और घटती जनसंख्या के कारण कुछ चिंतित हुआ है। इसके साथ ही भारत के अतिरिक्त उसकी सेना दक्षिण चीन सागर सहित अनेक अन्य देशों के मोर्चों पर लगी हुई है। 2017 में डोक्लाम के समय से ही भारत ने सीमा पर चीन का कड़ा प्रतिरोध किया है। भारत ने पिछले चार वर्षों में लगातार 50 हज़ार सैनिकों को पूर्वी लद्दाख में तैनात करके तथा उन्हें टैंक, चिनूक हेलीकॉप्टर और ड्रोन आदि से सुसज्जित कर के अपनी क्षमता प्रदर्शित कर दी है। सड़क और हवाई कनेक्टिविटी में आश्चर्यजनक प्रगति की है। अमेरिकी सहायता से तथा अपनी सर्वेलेंस से उसे सीमा के उस पार चीन की सेना की गतिविधियों का पता चलता रहता है। भारत का आक्रामक रुख़ देखकर चीन ने तिब्बत में भारतीय सेना की संभावित घुसपैठ की स्थिति के लिये रक्षात्मक तैयारियां भी की हैं। कदाचित इन परिस्थितियों में चीन ने तनाव घटाना ही श्रेयस्कर समझा है।
कज़ान में मोदी और शी जिनपिंग की वार्ता के बाद यदि भारत अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होता है तो उसे उसकी बहुध्रुवीय राजनीति में बल मिलेगा। पिछले 4 वर्षों से भारत अमेरिका के उच्च तकनीक के हथियारों को प्राप्त करने के लिए अत्यंत अधीर रहा है और इसके लिए कोई भी मूल्य देने के लिए तैयार था। अब स्थिति सुधर सकती है तथा उसे अब बिना घबराए अपेक्षाकृत कम मूल्यों में हथियार प्राप्त हो सकते हैं। भारत पाकिस्तान के विरुद्ध अब अधिक आश्वस्त हो सकता है। उसे युक्रेन और पश्चिम एशिया में और अधिक आत्मविश्वास के साथ अपना योगदान देने का अवसर मिल सकता है। यद्यपि रूस चीन का अत्यधिक अंतरंग मित्र बन चुका है, परन्तु फिर भी भारत और चीन के बीच तनाव घटने से उसे भी बहुत राहत मिलेगी। रूस और चीन दोनों ही भारत की अमेरिका पर निर्भरता और निकटता बहुत अधिक नहीं बढ़ाने देना चाहते हैं।
भारत को इस सहमति की जब तक ज़मीनी परिणीति न हो जाए तब तक उसे चीन के वक्तव्यों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे पश्चिमी राष्ट्रों से रणनीतिक संबंध और प्रगाढ़ करने पर ज़ोर देते रहना चाहिए। भारत को जी- ट्वेंटी, शंघाई कोआपरेशन, ब्रिक्स जैसे बहुध्रुवीय मंचों पर अपनी उपस्थिति मज़बूत करनी चाहिए। परंतु इंडो पैसिफिक में अपनी भू-राणनीतिक सुरक्षा के लिए भारत को क्वॉड के माध्यम से दक्षिण चीन सागर में चीन के विरूद्ध पश्चिमी शक्तियों का साथ देते रहना चाहिए।
गलवान में हुई हिंसक झड़पों के बाद शी जिनपिंग को पूरे चीन का समर्थन प्राप्त हुआ था, जबकि भारत के प्रजातांत्रिक देश होने के कारण यहाँ के विपक्ष ने सरकार पर अनेक प्रश्न उठाए थे। अभी भी विपक्ष से इस सहमति का खुले रूप से स्वागत करने की कोई अपेक्षा रखना उचित नहीं होगा। परन्तु राजनीति से ऊपर उठकर भारत सरकार को अपनी सैनिक और आर्थिक शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए निरंतर श्रम करते रहना चाहिए। भविष्य में भारत में आने वाली किसी भी पार्टी की सरकारों को अगले कुछ दशकों में देश को सतत् आर्थिक विकास के मार्ग से भटकने नहीं देना है। विश्व केवल शक्ति की सराहना करता है। चीन के साथ हुई यह सहमति भी भारत की दृढ़ता का परिणाम है।