भाषा की जड़ें हैं बोलियों में या समृद्ध बोलियों से पुष्ट होती भाषाएँ

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निमाड़ी दिवस पर विशेष

भाषा की जड़ें हैं बोलियों में
या
समृद्ध बोलियों से पुष्ट होती भाषाएँ

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निमाड़ी, मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र की बोली है। यह क्षेत्र मालवा के दक्षिण में से सटा समीवर्ती क्षेत्र है। निमाड़ी बोलने वाले जिले हैं – बड़वानी, खंडवा, पूर्वी निमाड़, पश्चिमी निमाड़, धार एवम हरदा जिले के कुछ भाग तथा कई गाँव ऐसे है जिनमे निमाड़ी बोली जाती है।

डॉ. सुमन चौरे, भोपाल

नद्दी धड़ के गाँव में जनमी हूँ, इसलिए हर नानी-मोठी नद्दी धड़ के गाँव मेरे मन को भाते है। ये नदियाँ, मात्र नदियाँ नहीं है, हमारी लोक संस्कृति की अजस धाराएं है। लोक की जल देवियां है। तभी लोक की निष्ठा लोक की आस्था कहती है –
सदा नीरा, हरS पीरा।
गाँव मुलुक, मS जड़S हीरा।।
यह निमाड़ी लोकोक्ति है, सतसैयाँ के दोहरे जैसे एक दोहरे एक वाक्य में अपनी पूरी बात कह दी -“जल की महिमा, नदी तट के ऐश्वर्य और अपनी गाँव, अपनी भूमि की उर्वरा” का बोध लोक ने सबको करा दिया! बोलियाँ हैं ही ऐसी ज्ञान की खदानें, जो अवसर, काल, आवश्यकता और नियति को ध्यान में रखकर हीरे उगलती रहती हैं।images 1 6

नदी की बात हो रही है, तो बचपन की मेरे अन्तस में रची पली कुछ स्मृतियाँ लहरें बनकर हिलोले लेने लगीं। मेरे गाँव की नदी के घाटों की बात करती हूँ, यहाँ अकसर दोपहर के समय अपने घर की रोटी-पानी से निपटकर बर्तन और कपड़े माँजने-धोने के लिये महिलाएं इकठ्ठा हो जाया करती थीं । इनकी विचार-गोष्ठी बातें अगर कोई सुने तो चकित रह जाय, निपट निरक्षर ये महिलाएं किसी वाणी विलास शास्त्री से कम नहीं, निमाड़ी बोली का विशाल भंडार इनकी जिव्हा पर थिरकता रहता था – इनमें से किसी एक ने पूछा “अरे आज परब लूटणS तारई काकी नी आई ” – (आज पर्व का दिन है, तारई काकी नहीं आई स्नान करने।) सीधी सी बात है, किन्तु बोली की लक्षणा शक्ति देखिये कि परब लूटने अर्थात पर्व का पुण्य लेने से वंचित रह गई। दूसरी महिला इसका उत्तर भी उसी सूक्ति में शारीरिक हाव भाव से देती है -“माँजरी आग लई जासे, कसी आव” यानी बिल्ली आग ले जायगी, कैसे आये। बात कितनी सरल है, कि तारई काकी को अपने घर को छोड़ने का मन नहीं होता या वे ज्यादा ही माया मोह में है, कि घर की रखवाली में लगी है। ‘बिल्ली का आग ले जाना’ क्या चमत्कारिक शब्द प्रयोग है।

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बोली के शब्द ही भाषा सागर में समाये जल के कण हैं, निमाड़ी बोली में अपनी बात को कहने, अभिव्यक्त करने के सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव है। नदी में कोई गोते खाने जैसे डूबने के लिये शब्द है डूबना या डूब रहा है – किन्तु निमाड़ी में उसके लिये कई शब्द हैं – जब कोई नदी में डूबता है, तो एक दम से डूब नहीं जाता है, पहले एक दो बार जल के बाहर भीतर होता है – उस स्थिति के लिये निमाड़ी में अभिव्यक्ति है
1 . बुचकळ्या खाई रहयोजs।
2 . डोबळई रह्योजs
3 . गोता खाई गयो
4 . पाणी पी गयोs
5 . बठी गयो
6 . हेटs गमी गयो

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डूबने की हर अवस्था को व्यक्ति करने वाले शब्द निमाड़ी में हैं। निमाड़ी बोली में कुछ शब्द बड़े जटिल है किन्तु उसमें रस माधुर्य भी भरपूर है| शिशु जब चलने लगता है, उसके लिए बोलते हैं कि “बच्चा चलने लगा”| पर निमाड़ी में शिशु के चलने से लेकर वृद्धावस्था तक के चलने को लेकर अनेकानेक शब्द है –
जैसे जब शिशु पहली बार अपने पैरों पर खड़ा हुआ तब कहते हैं पाँयs लई लिया जो कि पैर का सार्थक शब्द है।
दिक्कs-दिक्कs पाँय / पाँयs पाँयs चन्नन का पाँयs – जब बच्चा एक एक कदम चलता है तो कहते है। और जब लुड़कता लुड़कता चलता है तो बोलते हैं -टुमS टुमS पाँय भरजS
-डुलुकS डुलुक चलजs – गिरते-गिरते चलता है।
-ठुमुक ठुमुक चलजs – रुक-रुक कर चलता है।
जब बच्चा चलना सीख रहा होता है तो दिशा विहीन दौड़ता है, तब कहते हैं- सर्राटा भरजs
या दिशा सरS भागजS
-जब बच्चा अच्छे से चलना सीख जाता है तो धीरे-धीरे नहीं चलता, तेज़ चलता है, तब कहते हैं। -सरपटS धरजS या सरS सरS चलज S
जब बच्चा बिना देखे दौड़ने लगता है, तो बोलते है – रपटाS म S चलज यानी ऐसे दौड़ रहा है जैसे कि ढलान पर तेज़ दौड़ लगाते हैं। फिर जब बच्चा तेज़ गति से चलता है तो कहते हैं
-भागजS या दौड़ लगावजS
-किशोर उम्र में बड़े कदमों से चलने के कई नाम है, जैसे गबड्डी नS धरजS यानि दौड़ लगाता है या भुई फोड़ चलजS यानी जमीन खोदने जैसे चलता है।

उम्र के हिसाब से व्यक्ति की चाल में भी फर्क आ जाता है। वय अवस्था में चलता है तो कहते हैं- बागुS बागुS चलजs यानी जल्दी-जल्दी चलता है। चलने का एक और तरीके के लिए शब्द है – पाणी हेड़जs अर्थात् इतनी तेजी से पैर रखकर चलता है कि जल स्त्रोत फूट पड़ते है। चलने के लिए तेज़ी से उठाए गए सशक्त कदमों से प्रदर्शित शक्ति का परिचालक है यह शब्द।
-डफाँगS नS भरजS मतलब लम्बे-लम्बे कदम रखकर चलता है।
-छलाँगS नS भरजS अर्थात् उछल-उछलकर चलता है।
-घरS हलावजS यानी जमीन पर इतनी तेजी से कदम मारकर चलता कि घर ही हिल जाय
-धड़मS धड़म चलजS मतलब पैर पटक-पटककर चलना। एक और शब्द है कड़मS -कड़मS चलजS मतलब आवाज करते हुए चलना। जब कोई बीमार हो जाता है और ठीक से चल नहीं पाता है तो कहते है – ढलSगँ – ढलSगँ चलजS मतलब ढीला-ढाला-सा चलता है।
पाँयS रेंगजS अर्थात् पैर रेंगते हुए चलना इसी प्रकार का एक और शब्द है, पाँयS घसड़S ज यानी पैर घिस-घिस कर चलना। इसी के समान एक और शब्द है, पाँयS घिसटायजS यानी पैर घिसटने लगते हैं
पैर लचकाते हुए चलने को कहते हैं, लचकS लचकS चलजS।
-जब वृध्दावस्था होती है तो चलने की रीत बदल जाती है, इसे कहते हैं- जुगुS जुगुS चलजS – धीरे-धीरे चलता है। एक और अभिव्यक्ति है- हळूS-हळूS हलजS धीरे-धीरे हिलता है।

चलने की प्रक्रिया के ये शब्द उम्र के अनुसार चलने की क्रिया में निहित बारिकी को सहज ही समझा देते हैं। कुछ शब्द केवल लोकगीतों में ही प्रयुक्त होते हैं, दैनिक जीवन में यदा-कदा ही प्रयुक्त होते हैं।

जीवन के हर क्रिया कलाप का बड़ा ही महीन तरीके से शब्द प्रयोग निमाड़ी बोली में हमें व्यवहार में देखने-सुनने में मिलता है, जैसे भूख लगना, सोना, जाना, हँसना, रोना, खेलना, बोलना आदि क्रियाओं के लिए एकानेक शब्द हैं। जो अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हैं। संक्षिप्त में भोजन करने संबंधी कुछ शब्द हैं, जो व्यव्हृत हैं।। जो व्यक्ति बड़े-बड़े कौल मुँह में लेताहै, और मुँह से आवाज़ करते हुए खाता है, तो कहते हैं भसड़S-भसड़S जीमजS।

जो व्यक्ति जल्दी-जल्दी मुँह में भोजन चबाता है, तो कहते हैं चरजS
जबकि वरवळजS मतलब होता है मुँह में कोई चीज़ घुमाते रहना

भसकजS जो एक बहुत बड़ा कौल मुँह में भर लेता है या एक कौल के साथ ही दूसरा कौल मुँह में भर लेता है तो कहते हैं मुण्डो मारजS जैसे जानवर एक जगह छोड़कर दूसरी पास की जगह जाकर घास चरने लगता है। सपड़S सपड़S भरजS- ऊँगलियों की अपेक्षा हथेली से भोजन मुँह में भरना, चिंगण्या चावजS- दाँत रगड़ रगड़ कर खाना। सुड़कावजS या फुड़काजS- हाथ की चम्मच जैसी आकृति बनाकर सुड़S-सुड़S, फुड़S-फुड़S की आवाज़ निकालते हुए खाना। यह खीर, कढ़ी, रस जैसे तरल पदार्थों को खाते समय होती है। गटकजS या निंगलजS- जो व्यक्ति भोजन को चबाता नहीं है अपितु गुटक जाता है।

चाळवजs- जो कौल को मुँह में जीभ से घुमाता रहता है। किसी व्यक्ति की खुराक अधिक होती है तो कहते हैं- पेट मs खाड़ाs अर्थात् पेट में गड्ढे हैं कितना ही खाये पेट भरता ही नहीं। सामान्य क्षमता से अधिक भोजन कर लेते हैं और बैठते भी नहीं बनता है तो व्यक्ति नीटे लेट जाता है, इसे कहते हैं- डेंडळायजs। डेंडू (पानी में रहने वाला साँप) जब ज्यादा मेंडक खा जाता है, तो उसकी स्थिति यह होती है कि वह हिल-डुल भी नहीं सकता। इसे ही डेंडळायजs कहते हैं। अधिक भोजन हो जाने पर कभी-कभी साँस लेने में भी तकलीफ होती है, ऐसी स्थिति में पड़े व्यक्ति के लिए कहते हैं सोस्यायजs और सास्या भरजs
भोजन करने पर तृप्त हो जाने पर कहते हैं आफरी गयो।

नींद और सोने संबंधी हर अवस्था का बारीक से बारीक शब्द निमाड़ी बोली में मिलते हैं। नींद आँखों में तैर रही हो और सो नहीं पाते हैं तो कहते हैं- नींदsरायजs। जब व्यक्ति सोता है नींद में हिलता-डुलता है तो कहते हैं- चर चरवळजs
जब नींद में बोलता है तो कहते हैं- बळ्ळायजs
जब बैठे-बैठ नींद आने लगती है इस अवस्था को कहते हैं जपजs।
बैठे-बैठ अनायास आँख लग जाती है जो कहते हैं डोळा लग्याजs
नींद में डर कर अचानक चौंक कर जागता है तो कहते हैं वदकजs

निमाड़ी बोली के शब्द इतने सशक्त हैं कि ये अपनी बात को प्रभावी ढंग से समझा देते हैं। ऐसे ही रंगों की विशेषता स्पष्ट करते हुए हिन्दी में पीला अर्थात् पीला ही रंग ही हुआ। किन्तु निमाड़ी में पीला के विविध वर्णों को समझाने के लिए शब्द हैं। जैसे – गहरा पीला- पेळो घम्मs
कुम्हला फूल हल्का पीला-पेळो पच्चs
मखमली रंगों की तरह पीला टपकता रंग- पेळो जरदs
गहरा लाल- लाल सुरुखs
गहरा नीला- नीळो कच्च
गहरा सफेद- धवळो फट्टs
गहरा हरा-हरो छम्म
गहरा काला- काळो भुस्स या काळो कुट्ट

भोजन संबंधी लोकगीतों में ‘पीठो’ शब्द का उपयोग होता है। ‘पीठो’ का मतलब ‘आटा’ है। पीठा गेहूँ, जुवार या मूँग दाल आदि किसी का भी हो सकता है। कुछ लोग पीठा की जगह आटा शब्द का उपयोग करने लगे हैं। जबकि पीठा संस्कृत तत्सम शब्द ‘पिष्टि’ का देशज रूप है। आशय है कि बोलियों में भी तत्सम शब्दों के रूपान्तर से समृद्धि आई है। इसी तरह शब्दों के आदान-प्रदान से भाषाएँ भी समृद्ध होती रही हैं। आवश्यकता है इन शब्दों के नियमित उपयोग की है।

विभिन्न स्वाद को समझाने के लिए भी निमाड़ी में सटीक शब्द हैं। जैसे- मीठे के लिए मीठो और अत्यधिक मीठे के लिए कहते हैं मीट्ठो चट्टs
अधिक खारापन याने नमकीन के लिए खारो भूसs
कम फीका के लिए फीको पच्चs
अधिक खट्टेपन केलिए खाटो बट्टs
कच्चा होने पर काचो कच्चs
पूरा पका होने पर पाको पक्कs
स्वाद से संबंधी ऐसे कई शब्द नियमित जीवन का हिस्सा हैं।

निमाड़ी में विशेषण अलग से नहीं लगाते हैं। हँसने-रोने या फिर हर्ष-विषाद को प्रकट करने के लिए अतिसूक्ष्म और संवेदनशील शब्द हैं। ये शब्द स्वयं स्पष्ट कर देते हैं कि भाव या मायने क्या है। जैसे हृदय से या आत्मा से आनन्द जागता है और गहरी मुस्कुराहट से यह आनन्द प्रकट होता है तो कहते हैं फूल झड़्या। सिर्फ व्यवसायिक हँसी या ठेल्लेबाजी की बात पर हँसी के लिए कहते हैं- खेखळायजs

हँसी और आनन्द को व्यक्त करने वाले शब्दों की तरह ही पीड़ा को प्रकट करने वाले भी कई शब्द हैं। जैसे हृदय विदारक पीड़ा के लिए कहते हैं- हिरदो फाट्यो या आँसी नी टूटतो। भाव प्रकट करने वाले ये शब्द बड़े ही मार्मिक हैं।

आमजीवन में उपयोग आने वाले कुछ और शब्दों से बोलियों का सामर्थ्य और स्पष्ट हो जाता है। जैसे अधिक ऊँचे के लिए कहते हैं उच्चो खक्कs, बहुत कम ऊँचाई के लिए नाटो नट्टs शब्द है। बहुत हल्के के लिए है हळको फुलुम तो वज़नी वस्तु या व्यक्ति के लिए भारी बद्दs मोटा के लिए जाड़ो भुस्सs।

निमाड़ी में पत्नी के लिए नित्य संवाद के लिए कई संबोधन हैं- लुगई, घरकी, बायको, बयरो खाटलो आदि, तथापि लोकगीतों में कई पैमानों को आधार मानकर विविधतापूर्ण शब्द हैं, जैसे- मनहारिणी, नखराळई, गौरल, गोरी, श्यामली, जोय, बेला, पातळई, चम्पा, छंदवाळई, रसीली आदि। इन शब्दों का उपयोग पत्नी के स्वभाव, रूप-रंग, शारीरिक सौष्ठव आदि को लेकर विभिन्न उपमाओं संबंधित हैं, जो कि विशेषत: लोकगीतों में मिलते हैं। गणगौर के लोकगीतों में इन शब्दों का अनुपम उपयोग हुआ है। एक गीत में गौर ईश्वर से कहती है, ‘‘आकाश में चमकने वाले तेजस्वी शुक्र तारे की टीकी गढ़वा दो। तारों की चोली, जिसमें चाँद-सूरज की टूकी लगवा दो। ध्रुव दिशा से उमड़ी श्यामवर्णी बदली के रंग से साड़ी रंगवा दो और कड़कती बिजली की मगज़ी लगवा दो।’’ ईश्वर कहते हैं, ‘‘हे हठ करने वाली, छन्दवाली, नखरेली, गौरल नार, तेरी यह अभिलाषा पूरी नहीं हो सकती।’’ गीत का एक अंश है –
शुक्र को तारो रेऽ ईश्वरऽ ऊँगी रह्यो,
जेऽकी मखऽ टीकी घढ़ाओ,
वासुकी नागऽ रेऽ ईश्वरऽ बळखी रह्यो
जेऽ की मखऽ वेणी गुथावऽ
असी छन्दवाळई ओऽ गवरलऽ गोरड़ी।

गणगौर पर्व की गरिमा और देवी आराधना के गीतों में भी मैंने पाया कि आज से पचास साल पूर्व के शब्द पुराने लोगों के साथ ब्रह्मलीन हो गए हैं। जोय शब्द भी बिरला है। किन्तु विवाह गीतों में बहुतायत से मिलता है। बाना रखने वाले को भी निव्हाळई दी जाती है, जिसमें उससे हास्य-विनोद किया जाता है, कि हे भाई तेरी पत्नी कहाँ छिपाकर रखी है, बता दे। भाई कहता है कि मेरी पत्नी तो पान जैसे पतली है, जो बटुए में छिप जाती है। पानी जैसे निर्मल है, कटोरी में छिप जाती है। यह गीत है –
हाऊँ तमनऽ पूछूँ म्हारा मोठा भाई
थारी मखऽ जोयऽ बताओ
पानीऽ सरीखी जोय पातळई
वातोऽ बटुआ मँऽ छिपी जायऽ
हाऊँ तमनऽ पूछूँ म्हारा राणा ठाकुर
थारी मखऽ जोयऽ बताओ
नीरऽ सरीखी निरमळइ्र्र
वातोऽ कंचोळा मँऽ छिपी जाय

बोलियों ऐसे अनेक शब्दों से संपन्न जिनके लिए परिष्कृत भाषा में सीमित शब्दावली है। जैसे सूर्योदय के समय उषाकाल की लालिमा का लालित्य प्रकट करते कई शब्द हैं – सौंदार्यो, पाछली रात को तारो, भूमसारो, मुढ़ो झाकळो, नद्दी पार की छावळई। इनमें हरेक शब्द उस समय के सौंदर्य को पूर्णता के साथ दर्शाता है। व्यक्ति किस संदर्भ में और किस कार्य को इंगित करने के लिए इन विविध शब्दों का उपयोग करता है उससे बोली की और लोक जीवन की संपन्नता प्रकट होती है।

बोलियों के शब्द अचानक ही प्रकट नहीं होते या प्रचलन में नहीं आते हैं। ये शब्द अनुभवों और पारखी नज़रों से गुजरते हुए परिपक्व होते हैं। इसके बाद क्रमश: प्रचलन में आते हैं। बोली तो भाषा का भण्डार बीज है, भाषा का सौंदर्य है। नद्दी पार की छावळई से फिर नद्दी की बात याद हो आई। भौतिक विकास की धारा ने गाँवों के नदी घाट बाँध दिए, पुल बाँध दिए, गाँवों में हैण्डपंप के बाद हर घर नल आ गये, कुँए जैसे परम्परागत जलस्रोत भुला दिए गए तो पनघट से जुड़े कई शब्द, पनिहारिनों के शब्द न जाने कहाँ विलोपित हो गए। लगता है जैसे बोली के शब्द स्वरूप बदलकर भाषा में विलीन हो जाते हैं, ऐसे भाषा के शब्द भी बोली में घुल-मिल रहे हैं। बोली और भाषा के शब्दों के आदान-प्रदान से इन दोनों में समृद्धि आती जाती है। बोली और भाषा, दोनों की परिपक्वता एवं आत्मसात् करने की उदारता शब्दों की विविधता से परिलक्षित होती है। बोलियों की शब्दावली से लोक के समाज, संस्कार और अनुभवों की सरिताएँ जुड़ी रहती हैं, जिससे विविधता के प्रति सम्मान का भाव भी संपृक्त रहता है। बोली के शब्दों का प्रचलन से विलुप्त होते जाना शब्दकोष की जीवंतता के लिए तो घातक है ही, दैनिक जीवन को संचालित करने वाली विचार शक्ति को भी यह विलोपन क्षीण करता है। नित्य हो रहे परिवर्तनों के बीच याद रखना होगा कि बोलियों का जीवित रहना ही भाषा का जीवन स्रोत है।

डॉ. सुमन चौरे, भोपाल
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