आरक्षण की अवधारणा और सामाजिक सशक्तिकरण का फैक्टर!
सर्वोच्च न्यायालय ने भी आर्थिक आरक्षण के पक्ष में बहस कर रहे अभिभाषकों से कई सवाल पूछे। पीठ ने कहा कि संविधान संशोधन को चुनौती देने वाले भी मानते हैं कि सामान्य वर्ग में भी गरीब लोग हैं। लेकिन उनका कहना है कि छात्रवृत्ति या फीस में छूट देकर अन्य तरह से मदद दी जा सकती है ताकि वे अपनी पढ़ाई कर सकें। पर आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए आरक्षण की शायद जरूरत नहीं है। पीठ ने कहा कि आरक्षण के बारे में पारंपरिक अवधारणा आर्थिक सशक्तिकरण की नहीं, बल्कि सामाजिक सशक्तिकरण है। यह आर्थिक स्तर उठाने के लिए नहीं है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि आर्थिक स्थिति स्थायी नहीं होती, वह बदलती रहती है। जो चीज अस्थायी है, उसे स्थायी नहीं कहा जा सकता है। सामाजिक स्थिति भी कई बार पीढ़ी दर पीढ़ी भेदभाव के कारण होती है। शोषित वर्ग को ऊपर उठने के लिए मदद की जरूरत होती है। यह एक अपवाद को जन्म देता है। लेकिन, सवाल यह है कि और आखिर कितनों को ऐसे जोड़ा जाएगा। आर्थिक रूप से कमजोर यानी इकोनॉमिक वीकर सेक्शन कोटे से मिलने वाले आरक्षण के खिलाफ याचिका पर सुनवाई हो चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय इस बात की जांच करेगा कि संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, जिसने सरकारी नौकरियों और एडमिशन में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए दस प्रतिशत कोटा दिया है क्या वह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है।
इस मामले पर सुनवाई अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल द्वारा सुझाए गए तीन मुद्दों पर हो रही है। हालांकि अटाॅर्नी जनरल ने चार मुद्दे सुझाए थे लेकिन चीफ जस्टिस यूयू ललित ने निर्देश दिया कि वह एजी द्वारा सुझाए गए चार मुद्दों में से तीन पर सुनवाई का आधार बनाएंगे। ये आधार हैं, एक क्या 103वें संशोधन को आर्थिक मानदंडों के आधार पर आरक्षण सहित विशेष प्रावधान करने की राज्य को अनुमति देकर संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन कहा जा सकता है। दूसरा, क्या 103वें संविधान संशोधन को निजी गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों में प्रवेश के संबंध में राज्य को विशेष प्रावधान करने की अनुमति देकर संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन कहा जा सकता है! तीसरा, क्या बुनियादी ढांचे का उल्लंघन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (एसईबीसी)/पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जाति (एसटी) को ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे से बाहर करके किया गया है।
103वें संशोधन ने संविधान में अनुच्छेद 15 (6) और 16 (6) को शामिल किया है, जो उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा दूसरे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को दस प्रतिशत तक आरक्षण प्रदान करता है और सरकारी नौकरियों में प्रारंभिक भर्ती करता है। संशोधन ने राज्य सरकारों को आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने का अधिकार दिया। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोजगार के मामलों में समान अवसर की गारंटी देता है। अतिरिक्त प्रावधान ने संसद को ईडब्ल्यूएस के लिए खास कानून बनाने की शक्ति दी है। जैसे कि वह एससी, एसटी और ओबीसी के लिए करता है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एसआर सिंहो की अध्यक्षता वाले एक आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिया गया था। मार्च 2005 में यूपीए सरकार द्वारा गठित आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी।
प्रश्न यह है कि आखिर ईडब्ल्यूएस कोटे में कौन और कैसे आ सकता है! 103वें संशोधन के आधार पर कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग द्वारा 31 जनवरी 2019 को रोजगार और एडमीशन के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के क्षेत्र को गजट में प्रकाशित किया गया था। 2019 के नोटिफिकेशन के तहत एक व्यक्ति जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की योजना के तहत नहीं आता, और जिनके परिवार की सकल वार्षिक आय आठ लाख से कम है, उन्हें आरक्षण के लाभ के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग कोटे में जगह दी जाएगी। आर्थिक रूप कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण में आठ लाख से कम वार्षिक आय के अलावा और भी प्रावधान हैं, जैसे कि इस श्रेणी में आने वाले के लिए किसी सामान्य वर्ग के परिवार के पास पांच एकड़ या उससे अधिक कृषि भूमि नहीं होनी चाहिए। साथ ही परिवार के पास 1000 वर्गफुट या उससे अधिक क्षेत्रफल का रेसिडेंशियल प्लाट या घर नहीं होना चाहिए। वहीं जब सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग कोटे का रास्ता निकाला तो अक्टूबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट में पीजी मेडिकल कोर्स के लिए ऑल इंडिया कोटा में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण को चुनौती दी गई, जिस पर कोर्ट ने सरकार से पूछा कि आठ लाख की सीमा तक कैसे पहुंच गया।
केंद्र ने अदालत से कहा कि वह आय मानदंड पर फिर से विचार करेगा और इस उद्देश्य के लिए तीन सदस्यीय पैनल का गठन करेगा। इस वर्ष जनवरी में सरकार ने समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया, जिसमें कहा गया था कि वर्तमान स्थिति में, वार्षिक पारिवारिक आय की आठ लाख की सीमा, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग निर्धारित करने के लिए उचित लगती है और रखी जा सकती है। हालांकि, समिति ने कहा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग आय की परवाह किए बिना, ऐसे व्यक्ति को बाहर कर सकता है, जिसके परिवार के पास पांच एकड़ या उससे अधिक कृषि भूमि है। इसके अलावा, समिति ने सिफारिश की, आवासीय संपत्ति मानदंड पूरी तरह से हटाया जा सकता है।
इस संबंध में आपत्ति उठाते हुए गैर सरकार संगठन जनहित अभियान और यूथ फॉर इक्वलिटी ने सुप्रीम कोर्ट में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग रिजर्वेशन के खिलाफ याचिका दायर की है। याचिका में संविधान (103 वां संशोधन) अधिनियम, 2019 की वैधता को चुनौती दी गई और कहा गया है कि आर्थिक वर्गीकरण आरक्षण का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है। इसके अलावा पिछड़ा समुदाय के अधिकारों के लिए सोसायटी (एसएफआरबीसी) के सदस्य 103वें संविधान संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करने की मांग कर रहे हैं।
तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके ने अगड़े समुदायों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के केंद्र सरकार के 2019 के फैसले का विरोध किया है। डीएमके के नेतृत्व वाली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल किया है। डीएमके ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह कहा है कि कोटा उन व्यक्तियों के सामाजिक पिछड़ेपन को कम करने के लिए दिया जाता है जो सामाजिक रूप से उत्पीड़ित थे। आर्थिक स्थिति के आधार तक इसका दायरा बढ़ाना आरक्षण का मजाक हो सकता है। याचिकाकर्ताओं ने संशोधन को इस आधार पर भी चुनौती दी है कि यह सुप्रीम कोर्ट के 1992 के इंद्रा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ के फैसले का उल्लंघन करता है, जिसने मंडल रिपोर्ट को बरकरार रखा और आरक्षण को 50 प्रतिशत पर सीमित कर दिया था। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है और आरक्षण की कुल 50 प्रतिशत सीमा का उल्लंघन करता है जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में कहा गया था। याचिका में कहा गया कि अदालत ने माना था कि पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए आर्थिक पिछड़ापन एकमात्र क्राइटेरिया नहीं हो सकता है।
इस मामले में एक और चुनौती निजी, गैर सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों की ओर से दी गई है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि एक व्यापार/प्रोफेशन से उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है जब राज्य उन्हें अपनी आरक्षण नीति लागू करने और योग्यता के अलावा किसी भी क्राइटेरिया पर छात्रों के एडमिशन के लिए मजबूर करता है। जवाबी हलफनामे में सोशल जस्टिस और एंपावरमेंट मंत्रालय ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 46 के तहत राज्य का कर्तव्य है कि वह आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करें। सर्वोच्च न्यायालय ने तो सुनवाई पूर्ण कर ली है। फैसले का इंतजार है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस पर अपना फैसला क्या सुनाया है। यह तो स्पष्ट है कि इस फैसले का समाज पर व्यापक एवं दूरगामी परिणाम होंगे।
विनय झैलावत
लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं