
कानून और न्याय: महिलाओं की गिरफ़्तारी के मामले में उचित प्रक्रिया जरुरी!
– विनय झैलावत
बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में अपने इस फैसले से एक बार पुनः महिला अपराधी के अधिकारों को चर्चा का विषय बनाया है। इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने भी इस तरह के पुलिस के रवैये को नकारा है। उच्चतम न्यायालय ने भी खड़क सिंह विरूद्ध उत्तर प्रदेश राज्य में भी यह व्यवस्था दी थी। खड़क सिंह को उत्तर प्रदेश पुलिस के नियमों के अंतर्गत सर्वलाईंस में रखा गया था। उसे आशंका थी, कि उत्तर प्रदेश पुलिस उसके घर किसी भी वक्त आ सकती थी। इस पर उच्चतम न्यायालय ने यह ठहराया था कि पुलिस खड़क सिंह के घर तलाशी सूर्यास्त के उपरांत नहीं कर सकती है, क्योंकि यह उसकी निजता एवं मौलिक अधिकारों के खिलाफ है।
इस मामले में याचिकाकर्ता, एक महिला थी जो एक निजी कंपनी चलाती है। वह इस कंपनी की मुख्य कार्यवाहक अधिकारी थी। उसे वित्तीय कदाचार से संबंधित एक आपराधिक शिकायत के कारण पुलिस ने हिरासत में लिया था। याचिकाकर्ता बाबाजी दाते महिला सहकारी बैंक की पूर्व प्रमुख थीं। उनकी गिरफ्तारी शाम 6 बजे के बाद हुई। यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46(4) के विरुद्ध है। यह धारा सूर्यास्त से पहले और बाद में गिरफ्तारी के विशिष्ट नियमों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। जब तक न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व स्वीकृति न हो, तब तक निर्धारित समय के बाद गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। असाधारण परिस्थितियों और अप्रत्याशित परिस्थितियों के लिए एक अपवाद भी है। इस महिला पर कुल 180 करोड़ रुपये के ऋण स्वीकृत करने का आरोप था। इस कारण यवतमाल स्थित सहकारी बैंक को भारी नुकसान हुआ।
इस प्रकरण में न्यायालय ने कहा कि हिरासत प्रक्रिया के संचालन में हुई गलती ने उनकी हिरासत को गैरकानूनी बना दिया है। भले ही आरोप कितने भी गंभीर क्यों न हों, लेकिन समय भी संदिग्ध था। साथ ही गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों ने एक महिला पुलिस अधिकारी को भी गिरफ्तारी में शामिल नहीं किया था। यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 50 और डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) सहित सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के अनुसार आवश्यक है। शीला बारसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1983) में भी इस बात पर जोर दिया गया था। इस मामले का मुद्दा सूर्यास्त के बाद, बिना महिला कांस्टेबल के और रिश्तेदारों को सूचित किए बिना की गई गिरफ्तारी की वैधता थी। यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46(4) और 50ए का उल्लंघन है। इस मामले में इस महिला पर आरोप 242 करोड़ रुपए की ऋण धोखाधड़ी का था। इसमें परिवार से जुड़े लोग भी लेन-देन में शामिल थे।
इस गिरफ्तारी पर बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने दृढ़ता से कहा कि एक संदिग्ध व्यक्ति, भले ही वह आरोपी हो या दोषी, किसी को भी अनुच्छेद 21 के अनुसार जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि निर्दोषता की धारणा केवल एक प्रक्रियात्मक विवरण से कहीं अधिक है। यह राज्य द्वारा संभावित दुरुपयोग के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण संवैधानिक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है। पीठ ने स्पष्ट शब्दों में गिरफ्तारी की निंदा करते हुए इसे अवैध, मनमाना और वैधानिक तथा संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन बताया। न्यायालय ने कहा कि किसी संदिग्ध व्यक्ति की गरिमा केवल इसलिए नहीं छीनी जा सकती, क्योंकि उसके विरूद्ध जांच चल रही है। प्रक्रियात्मक कानून केवल दिखावे के लिए नहीं है। वे कानून के शासन को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।
न्यायालय ने डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस को निर्देश दिया कि वे महिलाओं की गिरफ्तारी के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता की आवश्यकताओं और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के पालन को सुदृढ़ करने वाले परिपत्र जारी करें। साथ ही अनुचित तरीके से काम करने वाले अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई का आदेश भी दिया। न्यायमूर्ति उर्मिला सचिन जोशी फाल्के ने महाजन की गिरफ्तारी को अवैध घोषित किया। क्योंकि, यह सूर्यास्त के बाद हुई और इसमें कानून में उल्लिखित आवश्यक कानूनी आवश्यकताओं का पालन नहीं किया गया। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि जांच अधिकारियों ने हिरासत का कारण नहीं बताया और न परिवार को सूचित किया। यह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 50 ए के विरुद्ध है। साथ ही महिला पुलिस अधिकारी की अनुपस्थिति में गिरफ्तारी हुई है। प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि यदि अभियुक्त को गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित नहीं किया गया हो तो गिरफ्तारी और रिमांड अवैध मानी जाएगी।
उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि नागरिकों के मौलिक जीने और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करना राज्य और अदालत का दायित्व है। इसे मौजूदा कानूनी प्रक्रियाओं का पालन न करके छीना नहीं जा सकता। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि गिरफ्तारी के दौरान इन प्रक्रियाओं का कोई भी उल्लंघन गिरफ्तारी को अवैध बना सकता है। अदालत ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता द्वारा निर्धारित दिशा निर्देशों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। गिरफ्तारी के दौरान महिलाओं के लिए सुरक्षा उपायों को दोहराते हुए, बॉम्बे कोर्ट ने क्रिश्चियन कम्युनिटी वेलफेयर काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम महाराष्ट्र राज्य (1995) के ऐतिहासिक फैसले का भी हवाला दिया। इसमें अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि किसी भी महिला को महिला कांस्टेबल की उपस्थिति के बिना हिरासत में या गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। यह किसी भी स्थिति में सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले नहीं होगा।
इस फैसले ने महिलाओं के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा का आधार बनाया गया है। इसे बाद में 2005 के संशोधन के माध्यम से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46(4) के तहत संहिताबद्ध किया गया। यह फैसला अनुच्छेद 21 से जुड़े न्यायशास्त्र के समृद्ध ताने-बाने को और मजबूत करता है। साथ ही कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान के अर्थ को व्यापक बनाया है। सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए, मनमानी गिरफ्तारी और हिरासत, कानूनी सहायता का अधिकार और निष्पक्ष प्रक्रिया का अधिकार महत्वपूर्ण है। न्यायालय ने पहले ही स्पष्ट किया है कि गिरफ्तारियां न केवल कानूनी होनी चाहिए। लेकिन साथ ही आवश्यक भी होनी चाहिए। वर्तमान निर्णय इसी मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है। यह फैसला पुलिस पर कानून के दायरे में काम करने की जिम्मेदारी डालता है। जांच के दौरान और किसी भी औपचारिक आरोप से पहले भी, यह आवश्यक है।





