कानून और न्याय:भारत में विकसित किशोर न्याय प्रणाली और पुणे प्रकरण!

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कानून और न्याय:भारत में विकसित किशोर न्याय प्रणाली और पुणे प्रकरण!

यह मामला पालकों की घोर लापरवाही का भी माना जाएगा। इनके द्वारा अपने अल्पवयस्क बच्चे को जर्मन पोर्श गाड़ी चलाने को दी, उस बच्चे ने शराब पीकर दो व्यक्तियों को इस कार से कुचल दिया। इस 17 वर्षीय रईसजादे ने सुबह लगभग सवा तीन बजे पुणे के कल्याणी नगर इलाके में मोटर सायकल पर सवार दो लोगों को कुचला। इस दुर्घटना में दोनों (युवक और एक युवती) की मृत्यु हो गई। किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत इस नाबालिग को कुछ घंटों में ही जमानत दे दी गई। उसे इसके लिए मात्र एक दुर्घटना पर तीन सौ शब्दों का निबंध लिखना था। साथ ही क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय जाकर यातायात के नियमों का अध्ययन कर पंद्रह दिनों में बोर्ड के समक्ष एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना थी। बोर्ड ने उसे शराब निषेध केंद्र भेजने का भी निर्देश दिया था।

बोर्ड के इस आदेश ने पूरे देश को झंझोड़ दिया। इस त्वरित जमानत की तीव्र आलोचना व प्रतिक्रिया हुई। बाद में पुलिस ने लीपापोती करते हुए इस युवक के विरूद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (गैर इरादतन हत्या) तथा मोटर वाहन अधिनियम के प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया। युवक शराब के नशे में था। बाद में इस किशोर के पिता तथा दादा को भी गिरफ्तार किया गया। इसके बाद उसकी मां को आरोपी बेटे का ब्लड सैंपल बदलने का आरोपी पाया गया और गिरफ्तार किया गया। लेकिन, किशोर अपराधियों द्वारा किए अपराध का निराकरण भारत में कैसे होता है तथा इसके क्या प्रभाव एवं प्रावधान है, यह जानना निश्चित ही दिलचस्प होगा।

भारत में विकसित किशोर न्याय प्रणाली भी विचारणीय है। इस न्याय प्रणाली की परिभाषा में किशोर न्याय प्रणाली उन बच्चों से संबंधित है जिन्होंने किसी प्रकार से कानून का उल्लंघन किया है और जिन्हें देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता है, ये उससे संबंधित है। भारत में 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को किशोर माना जाता है। अवयस्क वह व्यक्ति है, जिसने पूर्ण कानूनी उत्तरदायित्व संबंधी आयु प्राप्त नहीं की है। इस कानून में किशोर एक ऐसा अवयस्क है जिसने कोई अपराध किया है और उसे देखभाल एवं सुरक्षा की आवश्यकता है। भारत में 7 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को लैटिन शब्द डाॅक्ट्रिन ऑफ़ डोली इनकैपैक्स अर्थात ऐसा किशोर जिसकी अपराध करने की मंशा न हो और किसी कारण हो तो उसे अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

इसका अर्थ है कि अपराध करने का इरादा रखने में असमर्थ अथवा किशोर न्याय प्रणाली का मुख्य उद्देश्य युवा अपराधियों का पुनर्वास और उन्हें जीवन में दूसरा अवसर प्रदान करना है। इस सुरक्षा का मुख्य कारण यह है कि बच्चों/किशोर का मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित नहीं होता और उनमें गलत एवं सही की पूरी समझ नहीं होती है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब माता-पिता उचित पालन-पोषण करने में असमर्थ होते हैं और घरों में हिंसा की घटनाएं होती हैं या एकल पेरेंट जो अपने बच्चों को लंबे समय तक असुरक्षित छोड़ देते हैं। समाचार, फिल्मे, वेब सीरीज, सोशल मीडिया और शिक्षा की कमी का प्रभाव भी बच्चों के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने का कारण है।

भारत की स्वतंत्रता के बाद संविधान ने बच्चों की सुरक्षा और विकास के लिये मौलिक अधिकारों एवं राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत कुछ प्रावधान किए हैं। बाल अधिनियम-1960 इस अधिनियम ने किसी भी परिस्थिति में बच्चों के कारावास को प्रतिबंधित किया और देखभाल, कल्याण, प्रशिक्षण, शिक्षा, रखरखाव, सुरक्षा और पुनर्वास प्रदान किया है। किशोर न्याय अधिनियम, 1986 बाल अधिनियम को एकरूपता प्रदान करने हेतु किशोर न्याय अधिनियम, 1986 लागू किया गया। साथ ही संयुक्त राष्ट्र घोषणा, 1959 के अनुसार, किशोंरों की सुरक्षा के लिये मानक भी निर्धारित किये गए।

सन् 1959 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बाल अधिकारों की घोषणा को अपनाया गया। किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 भारत सरकार द्वारा किशोर न्याय अधिनियम को निरस्त कर एक नया अधिनियम, किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 लाया गया। इसमें कानून के साथ विवाद और देखभाल एवं सुरक्षा की आवश्यकता जैसी बेहतर शब्दावली थी। जिन किशोरों का कानून के साथ टकराव होता है, उन्हें किशोर न्याय बोर्ड द्वारा नियंत्रित किया जाता है। जिन किशोरों को देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता होती है, उन्हें बाल कल्याण समिति द्वारा नियंत्रित किया जाता है। वर्ष 2006 में किशोर अधिनियम में किशोरावस्था को अपराध करने की तिथि से माने जाने के लिए संशोधन किया गया था।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के स्थान पर किशोर अधिनियम, 2000 को प्रतिस्थापित किया है। इस अधिनियम को संसद में काफी विवाद और विरोध के बाद पारित किया गया था। इसके द्वारा मौजूदा कानून में कई बदलाव किये गए हैं। इस अधिनियम के तहत जघन्य अपराधों में शामिल 16-18 आयु वर्ग के किशोरों को वयस्कों के रूप में माना गया है। इस प्रावधान के अनुसार एक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को एक किशोर द्वारा किये गये कार्य और उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए यह फैसला करना होता है कि उसे एक वयस्क की तरह देखा जाए या उसे जुवेनाईल जस्टिस बोर्ड के समक्ष भेजा जाए। किशोर न्याय प्रणाली को अधिक उत्तरदायी और समाज की बदलती परिस्थितियों के अनुसार बनाया गया है। अधिनियम अनाथ, परित्यक्त, आत्मसमर्पण करने वाले बच्चों की स्पष्ट परिभाषा देने के साथ उनके लिये एक संगठित प्रणाली प्रदान करता है।

हाल ही में किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2021 राज्यसभा में पारित किया गया है। यह अधिनियम बच्चों की सुरक्षा और उन्हें गोद लेने के प्रावधानों को मजबूत करने तथा कारगर बनाने का प्रयास करता है। न्यायालय के समक्ष गोद लेने के कई मामले लंबित हैं तथा न्यायालय की कार्यवाही में तीव्रता लाने हेतु अब शक्तियों को जिला मजिस्ट्रेट को हस्तांतरित कर दिया गया है। संशोधन में प्रावधान है कि इस तरह के गोद लेने के आदेश जारी करने का अधिकार अब जिला मजिस्ट्रेट के पास है।