कानून और न्याय: महिलाओं की गिरफ्तारी में मानवाधिकारों का पालन जरूरी 

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कानून और न्याय: महिलाओं की गिरफ्तारी में मानवाधिकारों का पालन जरूरी 

– विनय झैलावत

महिलाओं की गिरफ़्तारी के बारे में बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले में कानूनी महत्व और व्यापक निहितार्थ है। यह फैसला एक महत्वपूर्ण समय पर आया है। खासकर जांच की आड़ में गिरफ्तारी की शक्तियों के बढ़ते दुरुपयोग के साथ। संदिग्धों और औपचारिक रूप से अभियुक्तों के बीच का अंतर, खासकर हाई-प्रोफाइल वित्तीय मामलों और साइबर अपराधों में, तेजी से अस्पष्ट होता जा रहा है। संदिग्ध महिलाओं को अक्सर अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है। खासकर कॉरपोरेट या आर्थिक अपराधों में, जहां गिरफ्तारी को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अदालतें यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा रही हैं कि प्रक्रियाओं का पालन किया जाए। यह सत्ता के किसी भी दुरुपयोग के प्रति बढ़ती असहिष्णुता को भी दर्शाता है। यह मामला भी आपराधिक कानून सुधार, विशेष रूप से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 और 46 के निरंतर महत्व और अनुच्छेद 21 के न्यायशास्त्र से उनके संबंध के बारे में, चर्चा को फिर से शुरू करता है।

बिना महिला कांस्टेबलों के महिलाओं को गिरफ्तार करना या समय सीमा का उल्लंघन करना न केवल अवैध है, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से कष्टदायक और अपमानजनक भी है। इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों से भी जोड़ा जा सकता है। महिला कैदियों के साथ व्यवहार पर संयुक्त राष्ट्र बैंकॉक नियम (2010) और महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंषन में यह दायित्व महत्वपूर्ण है। सीईएडडब्ल्यू को महिलाओं के अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय विधेयक भी कहा जाता है। यह एक अंतरराष्ट्रीय संधि है, जिसे 1979 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाया गया था और 1981 में लागू हुई थी। इनका भारत भी एक पक्ष है। ये मानवाधिकार मानक महिलाओं को हिरासत में दुर्व्यवहार या आघात से बचाने में राज्य के कर्तव्य पर भी जोर देते हैं। अनुच्छेद 21 इस सिद्धांत का भी समर्थन करता है कि हर व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि वह दोषी साबित न हो जाए। उक्त महिला केवल एक संदिग्ध थी। उन पर अभी तक औपचारिक रूप से आरोप नहीं लगाया गया था। इसलिए उन्हें अधिकतम सुरक्षा का अधिकार था। डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) के मामले में, हिरासत में किसी भी प्रकार की क्रूरता या प्रक्रियात्मक उल्लंघन संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।

अन्य न्यायालयों में भी इसी तरह की सुरक्षा मौजूद है, जो गिरफ्तारी के दौरान व्यक्तियों, विशेषकर महिलाओं, के अधिकारों की रक्षा पर वैश्विक सहमति को पुष्ट करती है। यूनाइटेड किंगडम में, पुलिस और आपराधिक साक्ष्य अधिनियम (पीएसीई) यह सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत प्रक्रियाएं निर्धारित करता है। इसमें गिरफ्तारियाँ वैध रूप से और व्यक्ति की गरिमा का उचित ध्यान रखते हुए की जानी चाहिए। इनमें लैंगिक रूप से संवेदनशील गिरफ्तारी प्रोटोकॉल के प्रावधान शामिल हैं। यह किसी महिला की गिरफ्तारी या तलाशी के दौरान एक महिला अधिकारी की उपस्थिति को अनिवार्य बनाता है। यह भी आवश्यक बनाता है कि ऐसी प्रक्रियाएं इस तरह से संचालित की जाए जिससे परेशानी और शर्मिंदगी कम से कम हो। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में अनुचित जब्ती और तलाशी के खिलाफ कड़े दिशा निर्देश दिए गए हैं। इसमें गिरफ्तारी शक्तियों का मनमाना या अत्यधिक उपयोग भी शामिल है।

मिरांडा बनाम एरिजोना (1996) प्रकरण में उत्पन्न सुस्थापित मिरांडा अधिकार भी महिलाओं की गिरफ्तारी के मामले में महत्वपूर्ण है। यह आवश्यक है कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अभियुक्त के अधिकारों, जैसे कानूनी सहायता प्राप्त करना और पूछताछ के दौरान चुप रहने के अधिकार, के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। ये अंतर्राष्ट्रीय मानक इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि भारत के संवैधानिक और वैधानिक संरक्षण, जैसे कि दंड प्रक्रिया संहिता के अनुच्छेद 21 और धारा 46(4) में निहित, अपवाद नहीं हैं। यह वैश्विक उचित प्रक्रिया मानदंडों के अनुरूप हैं। बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में इन संरक्षणों की पुनरावृत्ति, मानवीय गरिमा, कानूनी जवाबदेही और कानून के शासन को बनाए रखने के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।

यह निर्णय अत्यंत आवश्यक प्रशासनिक प्रशिक्षण और सुधार के लिए एक प्रेरणा का काम करेगा। हमें तत्काल इन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। कानून प्रवर्तन अधिकारियों के बीच जागरूकता बढ़ाना भी आवष्यक है। खासकर जब महिलाओं की गिरफ्तारी की बात आती है। साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए स्पष्ट मानक संचालन प्रक्रियाएं (एसओपी) स्थापित करना आवष्यक है कि पुलिस ‘तत्परता‘ या ‘अज्ञानता‘ के कारण दंड प्रक्रिया संहिता सुरक्षा की अनदेखी न करे। इसके अलावा जवाबदेही उपायों को लागू करना भी आवश्यक है, जिसमें गिरफ्तारियों की परिस्थितियों का दस्तावेजीकरण और न्यायिक निगरानी सुनिश्चित करना शामिल है।

बॉम्बे उच्च न्यायालय का यह निर्णय एक सशक्त अनुस्मारक है कि संवैधानिक अधिकार केवल निर्दोष लोगों के लिए विशेषाधिकार नहीं है। ये सुरक्षाएं सभी पर लागू होती हैं। चाहे वे अभियुक्त हों, संदिग्ध हों या दोषी भी हों। एक ऐसे लोकतंत्र में जहां कानून का शासन कायम आवश्यक है। अगर न्यायालय इन सुरक्षाओं को सक्रिय रूप से लागू नहीं करतीं, तो प्रक्रियात्मक कानून सिर्फ पन्ने पर लिखे शब्द बनकर रह जाएंगे। यह निर्णय इस बात पर जोर देता है कि सबसे कमजोर व्यक्तियों को भी संविधान का सुरक्षात्मक आलिंगन महसूस करना चाहिए। खासकर जब व्यवस्था अपनी शक्ति का इस्तेमाल उनके खिलाफ कर रही हो।