कानून और न्याय: सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 पर दिलचस्प बहस!

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कानून और न्याय: सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 पर दिलचस्प बहस!

इस धारा का इतिहास दिलचस्प है। मार्च 1948 में महाराजा ने शेख अब्दुल्ला के साथ प्रधानमंत्री के रूप में राज्य में एक अंतरिम सरकार नियुक्त की थी। जुलाई 1949 में शेख अब्दुल्ला और तीन अन्य सहयोगी भारतीय संविधान सभा में शामिल हुए और जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति पर बातचीत की। इससे अनुच्छेद 370 को अपनाया गया। यह विवादास्पद प्रावधान शेख अब्दुल्ला द्वारा तैयार किया गया था। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि आखिर कानून निरस्त होने से पहले धारा 370 के प्रावधान क्या थे। इन प्रावधानों में यह था कि यह एक अस्थाई अनुच्छेद होगा। संसद को राज्य में कानून लागू करने के लिए जम्मू और कश्मीर सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होगी। रक्षा, विदेशी मामलों, वित्त और संचार के मामले भारत सरकार के अधीन होंगे।

जम्मू और कश्मीर के निवासियों की नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों का कानून शेष भारत में रहने वाले निवासियों से अलग था। अनुच्छेद 370 के तहत, अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति नहीं खरीद सकते थे। अनुच्छेद 370 के तहत, केंद्र को राज्य में वित्तीय आपातकाल घोषित करने की कोई शक्ति नहीं थी। यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद 370 (1) (सी) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 अनुच्छेद 370 के माध्यम से कष्मीर पर लागू होता है। अनुच्छेद 1 संघ के राज्यों को सूचीबद्ध करता है। इसका मतलब है कि यह अनुच्छेद 370 था जो जम्मू-कष्मीर राज्य को भारतीय संघ से जोड़ता है। अनुच्छेद 370 को राष्ट्रपति के आदेश द्वारा हटाया जा सकता था।

जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 3 में कहा गया था कि जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 5 में कहा गया कि राज्य की कार्यपालिका और विधायी शक्ति उन सभी मामलों तक फैली हुई है, जिनके संबंध में संसद को भारत के संविधान के प्रावधानों के तहत राज्य के लिए कानून बनाने की शक्ति है। संविधान 17 नवंबर 1956 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ था। 5 अगस्त 2019 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी संविधान (जम्मू और कश्मीर के लिए आवेदन) आदेश, 2019 (सीओ 272) द्वारा जम्मू और कश्मीर के संविधान को निष्प्रभावी बना दिया गया था।

धारा 370 के हटने के बाद इसके विरुद्ध प्रस्तुत याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय में गंभीर बहस चल रही है। यह बहस कुछ दिनों तक जारी रहने की संभावना है। इसमें पक्ष-विपक्ष में देश के ख्यातनाम अभिभाषक बहस करेंगे। इसे हटाए जाने के विरूद्ध प्रस्तुत याचिकाओं में से कुछ पक्षकारों की ओर से अभिभाषक कपिल सिब्बल उपस्थित हो रहे हैं। उनके द्वारा यह कहा गया कि अनुच्छेद 370 अब अस्थायी प्रावधान नहीं है। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा के विघटन के बाद इसने स्थायित्व ग्रहण कर लिया है।

इस पर सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने पूछा कि ‘यदि ऐसा है तो अनुच्छेद 370 को संविधान के भाग 21 के तहत एक अस्थायी प्रावधान के रूप में क्यों रखा जाएगा। इस पर सिब्बल ने जवाब दिया कि संविधान निर्माताओं ने जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के गठन की भविष्यवाणी की थी। यह समझा गया था कि इस सभा के पास अनुच्छेद 370 का भविष्य निर्धारित करने का अधिकार होगा। इस प्रकार, संविधान सभा के विघटन की स्थिति में जिसकी सिफारिश अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए आवश्यक थी, प्रावधान को अब रद्द नहीं किया जा सकता।

कपिल सिब्बल ने मामले के महत्व पर जोर देते हुए अपनी दलीलें शुरू की और इसे कई मायनों में ऐतिहासिक बताया। भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के संबंधों की विशिष्टता पर प्रकाश डालते हुए सिब्बल ने सवाल किया कि क्या ऐसे रिश्ते को अचानक खारिज किया जा सकता है ? उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जम्मू-कश्मीर का भारत में एकीकरण निर्विवाद था। सिब्बल ने हालांकि यह भी कहा कि संविधान ने जम्मू-कश्मीर के साथ एक विशेष संबंध की परिकल्पना की है। उन्होंने कहा कि इसमें चार मामले शामिल होंगे। एक भारत का संविधान। दुसरा जम्मू-कश्मीर में लागू भारत का संविधान। तीसरा जम्मू-कश्मीर का संविधान और चौथा अनुच्छेद 370।

उन्होंने कहा कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर पर लागू था। इसका कारण यह है कि समय के साथ, कई आदेश जारी किए गए जिन्हें संविधान में शामिल किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश शक्तियां भारत के संविधान के अनुरूप थीं। सभी कानून लागू थे। इसलिए, इसे हटाने का कोई कारण नहीं था। उनके अनुसार भारतीय संसद स्वयं को संविधान सभा में परिवर्तित नहीं कर सकती।

सिब्बल ने तब अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के साथ सहमति की आवश्यकता पर तर्क दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि क्षेत्र के संवैधानिक भविष्य को निर्धारित करने में संविधान सभा के सार को समझना महत्वपूर्ण था। संविधान सभा को परिभाषित करते हुए सिब्बल ने इस बात पर जोर दिया कि यह एक राजनीतिक निकाय है। इसे संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए बनाया गया था।

यह कानूनी होने के बजाय एक राजनीतिक दस्तावेज भी था। एक बार अस्तित्व में आने के बाद संविधान के ढांचे के भीतर सभी संस्थान इसके प्रावधानों से बंधे थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि मौजूदा संवैधानिक ढांचे के तहत भारतीय संसद खुद को संविधान सभा में परिवर्तित नहीं कर सकती है। उन्होंने कहा कि आज भारतीय संसद एक प्रस्ताव द्वारा यह नहीं कह सकती कि हम संविधान सभा हैं। कानून के मामले में वे ऐसा नहीं कर सकते। क्योंकि वे अब संविधान के प्रावधानों द्वारा सीमित हैं।

उन्हें संविधान की मूल विशेषताओं का पालन करना होगा। उन्हें आपात स्थिति या बाहरी आक्रमण का छोड़कर, लोगों के मौलिक अधिकारों को निलंबित करने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार भी संविधान के प्रावधानों द्वारा सीमित है। कार्यपालिका कानून के विपरीत काम नहीं कर सकती है। न्यायपालिका कानून की घोषणा करती है। लेकिन कोई भी संसद इसे स्वयं एक संविधान सभा में परिवर्तित नहीं कर सकती है।

सिब्बल ने विलय पत्र आईओए और जम्मू कष्मीर राज्य और भारत सरकार के बीच संवैधानिक संबंधों के आसपास एक ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान किया। उन्होंने उन परिस्थितियों को याद करते हुए शुरूआत की जिनके कारण जम्मू-कश्मीर के महाराजा को अक्टूबर 1947 में विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने का निर्णय लेना पड़ा। अनुच्छेद 370 (3) में दिये गये प्रावधानों में भी संविधान सभा लिखा है। इस बात पर सवाल करते हुए उच्चतम न्यायालय की पीठ ने पूछा कि हम इस तर्क को क्यों स्वीकार नहीं कर सकते कि संविधान सभा में एक तरह से विधान सभा को शामिल करने की व्याख्या की जा सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि संसद अनुच्छेद 370 में भी बहुत अच्छी तरह से संशोधन कर सकती थी। यदि उद्देश्य केवल अनुच्छेद 370 लगाना नहीं था।

इस पर श्री सिब्बल ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 370 केवल संविधान सभा के कहने पर लचीला था। संसद के कहने पर नहीं। इस पर भी भारतीय संविधान निर्माताओं ने विचार किया था। अनुच्छेद 370 (3) में विधान सभा के बजाय संविधान सभा शब्द को विषेष रूप से जोड़ा था। इस पर जस्टिस खन्ना ने टिप्पणी की, कि ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि जिस समय भारतीय संविधान बनाया जा रहा था, उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए कोई विधान सभा नहीं थी। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया और पूछा कि जब हम संविधान सभा शब्द की व्याख्या करते हैं, तो क्या हम इसकी व्याख्या विधान सभा को शामिल करने के लिए कर सकते हैं। इस पर श्री सिब्बल का जवाब था कि ‘‘आप संविधान में उस शब्द की व्याख्या कैसे कर सकते हैं जो संविधान सभा को विधानसभा कहता है? हम किस व्याख्या के तहत ऐसा कर सकते हैं ? इसमें कोई निहित या व्यक्त शक्ति नहीं है। इस तरह तो हम किसी भी परिभाषा को बदल सकते हैं।