कानून और न्याय: जैनियों को कानून के उद्देश्यों के लिए हिंदू माना जाए

284

कानून और न्याय: जैनियों को कानून के उद्देश्यों के लिए हिंदू माना जाए

 

– विनय झैलावत

 

उच्च न्यायालय ने कहा कि हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का विरोध करने के पश्चात भी किसी जैन धर्म के अनुयायी को अपने धर्म की मूलभूत मान्यताओं के विपरीत मान्यताओं वाले हिंदू धर्म से संबंधित व्यक्तिगत विधि का अनुसरण करने की कोई वैधानिक बाध्यता शेष नहीं रहती है। उपरोक्त संपूर्ण विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष दिया जाता है कि ‘‘हिंदू धर्म की मूलभूत वैदिक मान्यताओं को अस्वीकार करने वाले एवं स्वयं को बहुसंख्यक हिंदू समुदाय से अलग करके अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित कर चुके जैन धर्म के अनुयायियों को पूर्व उल्लेखित राजपत्र अधिसूचना दिनांक 27 जनवरी 2014 के पश्चात हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत अनुतोष प्राप्त करने का कोई अधिकार शेष नहीं रहा है।

समाज धर्म, जाति, संप्रदाय, मूल और भाषा के आधार पर विभाजित है। विद्वान अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश ने हिंदू धर्म के अनुयायियों और जैन समुदाय के अनुयायियों की धार्मिक प्रथाओं के बीच अंतर का पता लगाने का प्रयास किया, ताकि उनके निष्कर्ष को पुष्ट किया जा सके कि धार्मिक प्रथा और रीति-रिवाज विशेष रूप से विवाह के संबंध में भिन्न हैं। हालांकि, विवादित आदेश में बताई गई प्रथाओं से ही पता चलता है कि दोनों समुदायों के अनुयायियों द्वारा किए जाने वाले विवाह अनुष्ठान आम तौर पर समान है। अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश को जैन समुदाय के अनुष्ठानों और प्रथाओं की विद्वत्तापूर्ण व्याख्या करने के बजाय विचाराधीन मामले पर स्पष्ट कानूनी प्रावधानों को लागू करना चाहिए था। जैसा भी हो, देश का कानून आज जिस तरह से मौजूद है।

भारतीय संविधान के भाग 3 में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 25 में प्रावधान है कि अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता। लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान रूप से हक होगा। इस अनुच्छेद की कोई बात किसी विद्यमान कानून के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी। साथ ही राज्य को कोई कानून बनाने से नहीं रोकेगी। किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित करना जो धार्मिक अभ्यास से जुड़ी हो सकती है। साथ ही सामाजिक कल्याण और सुधार या सार्वजनिक प्रकृति की हिंदू धार्मिक संस्थाओं को हिंदूओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खोलने की व्यवस्था करना भी इस अधिकार में शामिल है।

हिंदू विवाह वैधता अधिनियम, 1949 हिंदूओं, सिखों और जैनों तथा उनकी विभिन्न जातियों, उपजातियों और संप्रदायों के बीच सभी मौजूदा विवाहों को वैध बनाने के लिए पारित किया गया था। अधिनियम की धारा 2 में ‘‘हिंदू‘‘ की परिभाषा के अनुसार सिख या जैन धर्म को मानने वाले व्यक्ति भी शामिल हैं। उक्त अधिनियम की धारा 3 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सिख और जैन सहित हिंदुओं के बीच कोई भी विवाह किसी अन्य मौजूद कानून, व्याख्या, पाठ, नियम, प्रथा या प्रथा के आधार पर अमान्य नहीं माना जाएगा। इसके बाद 18 मई 1955 को हिंदू विवाह अधिनियम पारित किया गया। यह हिंदुओं में विवाह से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करने वाला अधिनियम है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 2 के प्रावधानों के अनुसार उच्च न्यायालय ने कहा कि इस प्रकार, हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधान उन सभी व्यक्तियों पर लागू होते हैं, जो धर्म से बौद्ध, जैन या सिख हैं। धारा 2 की उपधारा (3) जैन समुदाय के सदस्यों के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की प्रयोज्यता को पुष्ट करती है। उच्च न्यायालय ने परिवार न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि दुर्भाग्य से विद्वान अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश द्वारा कानून के इन स्पष्ट प्रावधानों पर सही परिप्रेक्ष्य में विचार नहीं किया गया। सीडब्ल्यूसी बनाम चंपा कुमारी सिंधी के मामले में, (1972) 1 एससीसी 508 में रिपोर्ट किया गया, इस प्रश्न पर विचार करते समय कि क्या ‘जैन अविभाजित परिवार’ को ‘हिंदू अविभाजित परिवार’ में शामिल किया गया है।

उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य तर्क यह है कि यद्यपि हिंदू कानून जैनियों पर लागू होता है, सिवाय इसके कि इस कानून में रीति-रिवाजों के अनुसार बदलाव किया जाता है, जैन उसी तरह हिंदू नहीं बन जाते जैसे बंबई के खोजा और कच्छी मेमन और गुजरात के सुन्नी बोराह आदि हिंदू नहीं माने जा सकते, हालांकि हिंदू कानून उन पर विरासत और उत्तराधिकार के मामलों में लागू होता है। इसके अलावा, हिंदू धर्म में ईसाई और इस्लाम में धर्मांतरित हिंदू और हिंदू धर्म से असहमत लोग शामिल नहीं है, जिन्होंने खुद को अलग-अलग समुदायों या संप्रदायों में संगठित किया है, जिनके धार्मिक रीति-रिवाज शास्त्रों के सिद्धांतों से इतने अलग हैं कि उन्हें हिंदू नहीं माना जा सकता।

निर्धारण का वास्तविक प्रश्न यह है कि क्या अविभाजित परिवार शब्दों से पहले हिंदू शब्द का अर्थ यह है कि अविभाजित परिवार उन लोगों का होना चाहिए जो हिंदू धर्म को मानते हैं, या जिन पर हिंदू कानून लागू होता है, या जो हिंदू धर्म को न मानने के बावजूद न्यायिक निर्णयों और विधायी व्यवहार द्वारा हिंदू अविभाजित परिवार के रूप में माने जाते हैं। उपरोक्त दृष्टिकोण को जैन इतिहासकारों और लेखकों द्वारा चुनौती दी गई है। यह माना जाता रहा है कि जैन हिंदुओं से बिल्कुल अलग है। उनकी एक अलग कानून संहिता है, जिसे दुर्भाग्य से अदालतों के ध्यान में नहीं लाया गया है। बोब्बलदी गाटेप्पा बनाम बोब्बदली एराम्पा प्रकरण में खण्डपीठ का फैसला सुनाते हुए कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश कुमारस्वामी शास्त्री ने विपरीत दृष्टिकोण पर विस्तार से चर्चा की और कहा कि यदि मामला एकीकृत होता तो वह यह मानने के लिए इच्छुक होते कि आधुनिक शोध से पता चला कि जैन हिंदू असंतुष्ट नहीं थे बल्कि जैन धर्म की उत्पत्ति और इतिहास स्मृतियों और टिप्पणियों से बहुत पहले का था, जो हिंदू कानून और व्यवहार के मान्यता प्राप्त अधिकारी थे।

न्यायमूर्ति सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी एवं संजीव एस. कलगांवकर की खंडपीठ ने पन्ना लाल बनाम सीताबाई का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने डिवीजन बेंच के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह तर्क देने में बहुत देर हो चुकी है कि कानून के उद्देश्यों के लिए जैन शब्द को हिंदू में शामिल नहीं किया गया है। हिंदू कानून के साथ-साथ बेस्ट और बुहलर के हिंदू कानून (चौथा संस्करण), गोपालचंद्र सरकार के हिंदू कानून (सातवां संस्करण) और हरि सिंह गौर के हिंदू कोड (चौथा संस्करण) के अलावा इस मुद्दे पर अग्रणी मामलों का भी हवाला दिया। ये सभी स्वीकृत प्राधिकारी हैं और हिंदू कानून पर उनके कार्यों में निहित बयानों से ही नहीं बल्कि तय मामलों से भी जो निष्कर्ष निकाला गया वह यह था कि जैनियों को कानून के उद्देश्यों के लिए हिंदू माना जाना चाहिए। हालांकि वे रूढ़िवादी हिंदू धर्म के कुछ सिद्धांतों से असहमत प्रतीत होत हैं। नागपुर मामले में जिस प्रश्न पर विचार किया जा रहा था, वह यह था कि क्या हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 जैनियों पर भी लागू होना चाहिए या हिंदूओं पर भी। इसी संबंध में यह चर्चा हुई कि जैन किस हद तक हिंदू कानून के अंतर्गत आते हैं या उन्हें उस कानून के उद्देश्यों के लिए हिंदू माना जाना चाहिए।