कानून और न्याय : अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीश निर्भयता से कार्य करें!

464

कानून और न्याय:अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीश निर्भयता से  कार्य करें!

– विनय झैलावत

अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों को अपना कार्य निर्भरता से करना चाहिए। उन पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए। अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा जमानत के मामले में एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगे जाने पर अपनी गहरी नाराजगी जाहिर की। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस प्रकार का आदेश जिला न्यायपालिका पर भयावह प्रभाव डालता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के स्पष्टीकरण मांगे जाने को असंगत एवं अनावश्यक माना।

यह मामला मध्यप्रदेश के अतिरिक्त जिला जज द्वारा एक मामले में जमानत दिए जाने से संबंधित था। इस मामले में जिला एवं सत्र न्यायालय द्वारा अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत पहली जमानत का आवेदन निरस्त कर दिया था। बाद में उच्च न्यायालय ने भी जमानत आवेदन निरस्त कर दिया। उच्च न्यायालय ने उचित समयावधि के पश्चात पुनः आवेदन पत्र प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता भी प्रदान की थी। अभियुक्त ने उच्च न्यायालय से अपना जमानत आवेदन पत्र वापस ले लिया। पुलिस ने जांच के उपरांत सत्र न्यायालय में सक्षम न्यायालय के समक्ष चार्जशीट (आरोप-पत्र) प्रस्तुत की। इसके बाद अभियुक्त ने सत्र न्यायालय के समक्ष पुनः जमानत आवेदन प्रस्तुत किया। सत्र न्यायाधीश ने आरोप-पत्र प्रस्तुत कर दिए जाने तथा अन्य अभियुक्तों को जमानत दिए जाने के आधार पर इस अभियुक्त की जमानत भी स्वीकार कर ली।

इस पर मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला आने पर एकल न्यायाधीश ने दी गई जमानत को निरस्त कर दिया। एकल न्यायाधीश ने यह माना कि दी गई जमानत उच्च न्यायालय के पहले आदेश को ध्यान में रखकर नहीं दी गई है। साथ ही केवल आरोप-पत्र दाखिल करने से परिस्थितियों में बदलाव नहीं माना जा सकता है। उच्च न्यायालय ने जमानत देने के लिए सत्र न्यायाधीश को कारण बताओ सूचना-पत्र जारी कर उन परिस्थितियों पर स्पष्टीकरण मांगने के निर्देश भी उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को दिए।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला सुनवाई के लिए आने पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सत्र न्यायाधीश के आदेश से यह संकेत नहीं मिलता कि कानून के गलत सिद्धांतों को लागू किया गया है। इसके विपरित अपराध की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए जमानत देने के विवेक का प्रयोग किया गया। इस प्रकरण में तथ्य यह भी है कि अन्य अभियुक्तों को जमानत दी गई थी तथा आरोप-पत्र भी न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया गया था। तदनुसार उच्च न्यायालय के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया तथा जमानत निरस्त करने का आवेदन भी निरस्त कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस आदेश की कड़ी आलोचना की। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अपीलार्थी को तुरंत गिरफ्तार करने तथा सत्र न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगा जाना पूर्ण रूप से असंगत है। इसकी आवश्यक नहीं थी। उच्च न्यायालय द्वारा जारी ऐसे आदेश जिला न्यायपालिका पर एक भयावह प्रभाव पैदा करते हैं। जिला न्यायपालिका के सदस्यों को भय की भावना में नहीं रखा जा सकता है। यदि उन्हें उचित मामलों में जमानत देने के लिए कानूनी रूप से उन्हें सौंपे गए अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है तो उनके मन में इस प्रकार का भय नहीं होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने सत्र न्यायाधीष के आदेश को उचित माना।

सर्वोच्च न्यायालय के पहले न्यायाधिपति न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के अनुसार जमानत को नियम तथा जेल को अपवाद माना है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य मामले में अपनी एक टिप्पणी में कहा कि जमानत के लिए कठोर और अत्यधिक शर्तें जमानत से इनकार करने के समान है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी जमानत हेतु कठोर शर्तें लगाने को अस्वीकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप अभियुक्तों को जमानत नहीं मिल पाती है और उन्हें मजबूरन जेल में रहना पड़ता है। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह पाया कि शर्तें पूरी न कर पाने के कारण आरोपी जमानत मिलने के बावजूद जेल में रह रहा है। उच्च न्यायालय के आदेश में संशोधन किया गया और जमानत की शर्तें हटा दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जेल अपवाद है और जमानत देना नियम है। जमानत पर लगाई गई शर्तें अनुचित नहीं होनी चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा पारित उस आदेष से असहमति जताई, जिसमें एक अभियुक्त को हत्या के प्रयास में जमानत लेने के लिए 1 लाख रूपये का जुर्माना और इतनी ही राशि का निजी मुचलका और 50-50 हजार रूपए के 2 बेल बांड जमा करने का निर्देश दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में कहा कि उच्च न्यायालय की और से अभियुक्त को जमानत देने के लिए लगाई गई शर्तें बहुत कठिन थीं। इसके परिणामस्वरूप वह इन शर्तों का पालन करने में विफल रहा।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, क्या अत्यधिक कठोर शर्तों का पालन करने में सक्षम नहीं होने के कारण अपीलकर्ता को अंतहीन हिरासत में रखा जा सकता है? यह देखते हुए कि शर्तें पूरी न कर पाने के कारण आरोपी सितंबर में जमानत मिलने के बावजूद जेल में रहा, सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश में संशोधन किया और जमानत की शर्तों को हटा दिया। पीठ ने विभिन्न फैसलों का जिक्र करते हुए कहा कि जमानत की शर्तें इतनी कठिन नहीं हो सकतीं।

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन ने जरिना बेगम विरूद्ध स्टेट ऑफ़ एमपी में कहा कि सत्र न्यायालय जमानत देने में अत्यधिक कड़ी शर्तें लगाती है। लंबित जमानत अर्जियों और आपराधिक अपीलों के आंकड़ों का हवाला देते हुए, न्यायमूर्ति श्रीधरन ने कहा कि जब जमानत देने की बात आती है तो जिला न्यायपालिका बेहद सख्त होती है। अदालत ने बालचंद प्रकरण के सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा कि जेल नहीं, जमानत नियम है। इस मामले में न्यायमूर्ति श्री अतुल श्रीधरन कहते हैं कि केस दर केस इस अदालत ने देखा है कि जब जमानत देने की बात आती है तो जिला न्यायपालिका बेहद सख्त होती है। आवेदनों को साइक्लोस्टाइल आधार पर नियमित रूप से यह कहते हुए खारिज कर दिया जाता है कि कथित अपराध गंभीर है या जांच अभी भी जारी है या अभियुक्त गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं।

निचली अदालत ने शायद ही कभी विचाराधीन अभियुक्त को निरंतर कारावास की आवश्यक की जांच की हो। जमानत के मामलों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि और जमानत का फैसला करने में उच्च न्यायालय का कीमती समय नष्ट हो जाता है। दीवानी और फौजदारी अपीलों का निर्णय करने के बजाय जमानत आवेदन को सुनना पड़ता है। उन्होंने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय की तीनों पीठों के समक्ष जमानत आवेदनों की भारी संख्या उन्हें अन्य प्रकरणों की सुनवाई में बाधा बन रही है।
इस स्थिति की गंभीरता को समझते हुए न्यायमूर्ति श्रीधरन ने कुछ दिशा निर्देश भी दिए है। पुलिस को इस आदेश में कहा गया है कि जहां एक अपराध के लिए अधिकतम कारावास प्रदान किया जाने का दंड 7 साल तक का है, वहां आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक एक विशेष कानून ऐसी गिरफ्तारी को अनिवार्य न हो। इसके अलावा भी अन्य विस्तृत निर्देश पुलिस को दिए गए। इस फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया है कि यदि पुलिस उपरोक्त दिशा निर्देशों के अंतर्गत कार्य नहीं करती है तो इसे अदालत की अवमानना मानी जाएगी। पुलिस के साथ ही न्यायमूर्ति श्रीधरन ने जुडिशियल मजिस्ट्रेटो को भी निर्देश प्रदान किए। मजिस्ट्रेटों को यह निर्देश दिए हैं कि वे रिमांड देते हुये इन बातों का ध्यान रखे कि पुलिस द्वारा गिरफ्तारी अर्नेश कुमार प्रकरण में दिए आदेश के अनुसार धारा 41 की जरूरतों को पूरा करती हो।

अर्नेश कुमार में दिए नियमों का पुलिस द्वारा पालन न होने पर मजिस्ट्रेट अभियुक्त को तुरंत प्रभाव से रिहा करें। क्योंकि, उक्त गिरफ्तारी धारा 41 के नियमों के विपरित है। मजिस्ट्रेटों के लिए यह अनिवार्य है कि वहां रिमांड देते समय अपनी स्वतंत्रता, संतुष्टि अंकित करें कि यह रिमांड अर्नेश कुमार के दिशा निर्देशों के अनुसार है। मजिस्ट्रेट यह भी सुनिश्चित करें कि गिरफ्तारी के कारण उपयुक्त है या नहीं। जो मजिस्ट्रेट उपरोक्त दिशा निर्देशों की अवेहलना करेंगे उसके खिलाफ भी अवमानना का प्रकरण दर्ज होगा।