कानून और न्याय : विभिन्न देशों की शपथ परम्पराएं भी दिलचस्प रही!

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कानून और न्याय : विभिन्न देशों की शपथ परम्पराएं भी दिलचस्प रही!

विनय झैलावत

शपथ की परंपरा लगभग सभी देशों में है। ये परम्पराऐं अलग-अलग देशों में अलग-अलग है जो दिलचस्प होने के साथ-साथ वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं को भी दर्शाता है मूल रूप से शपथ का उद्देश्य साक्षी का ध्यान भगवान की ओर आकर्षित करना है, ताकि व्यक्ति सच्चाई को बयान करें।
विभिन्न देशों में शपथ की परम्परा को जानना भी बेहद दिलचस्प है। चीनी आमतौर पर एक तष्तरी को तोड़ने की रस्म की शपथ लेते हैं। इसमें यह नसीहत तुम सच बोलोगे और पूरी सच्चाई तश्तरी फट जाएगी। यदि तुम सच नहीं बताओगे तो तुम्हारी आत्मा तश्तरी की तरह फट जाएगी। शपथ का एक अन्य रूप साक्षी के लिए पवित्र पात्रों को कागज पर लिखने के लिए है, जिसे वह जलाता है। वह प्रार्थना करता है कि अगर वह झूठी शपथ लेता है तो उसकी आत्मा को इसी तरह जला दिया जा सकता है। जापान में एक गवाह यह कहने में असमर्थ था कि कौन सा फॉर्म बाध्यकारी था, क्योंकि जापान में शपथ अज्ञात है, उसे एक जलती हुई मोमबत्ती को सूंघने का निर्देश दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि अगर झूठ बोल रहा है तो उसकी आत्मा लौ की तरह बुझ जाएगी।
पोप ने एक स्थान पर शपथ को एक या एक से अधिक व्यक्तियों के सामने किसी भी ईसाई द्वारा पुष्टि या खंडन के रूप में परिभाषित किया है। ये वे लोग है जिनके पास सत्य और अधिकार की खोज और उन्नति के लिए भगवान को साक्षी के रूप में बुलाने के लिए इसे प्रशासित करने का अधिकार है। ईश्वरी दंड का भय ही शपथ के पीछे की भावना है। यही शपथ की सबसे बढ़ी ताकत और नैतिकता है।

साइबेरिया में रूसियों और जंगली ओस्तियाक के बीच कानून में एक भालू के सिर को अदालत में लाना सामान्य था, ओस्तियाक खाने का इशारा करता है और भालू को उसी तरह से खाने के लिए बुलाता है अगर वह सच नहीं बताता है। असम के नागाओं के बीच, पुरूष सिर और पैरों से एक कुत्ते या एक पक्षी को पकड़ जिसे बाद में दाओ के एक ही वार से दो भागों में काट दिया जाता है। यह उस भाग्य का प्रतीक है जो झूठी गवाही देने वाले के गिरने की उम्मीद करता है या कोई आदमी बंदूक की नली, भाले की नोक या बाघ के दांत को पकड़कर गम्भीरतापूर्वक घोषणा करेगा, यदि मैं अपने वचन को ईमानदारी से पूरा नहीं करता, तो क्या मैं इससे गिर सकता हूॅं। इसी तरह की शपथ भारत के संथाल और अन्य स्वदेषी जनजातियां द्वारा एक बाघ के सिर या त्वचा पर ली जाती है।

शपथ के संबंध में यह तर्क दिया जाता है कि अधिनियम अच्छी तरह से लिखी गई तर्कसंगत या शपथ के सही रूप को निर्धारित नहीं करता है। इसलिए अभिसाक्षी शपथ के निहितार्थ को स्पष्ट रूप से नहीं समझते हैं। शपथ का उद्देश्य साक्षी का ध्यान भगवान की ओर आकर्षित करना है। इससे उसके मन में यह भाव हो कि झूठ के लिए अति-मानवीय प्रतिशोध होगा। लेकिन यह तर्क दिया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति ईश्वर को अपने से अलग और सत्य के प्रतिफल देने वाले और असत्य के बदला लेने वाले के रूप में नहीं मानता है, तो ईश्वर का प्रेम या भय उस पर कार्य नहीं कर सकता है। यह भी तर्क दिया जाता है कि लोग अलग-अलग भगवानों में विश्वास करते हैं और उनकी विभिन्न मान्यताएं उनके आचरण को प्रभावित करती है। वे वास्तव में सच्चाई बताने के लिए कोई दायित्व महसूस न भी करें। शपथ में शब्द ‘ईश्वर’ यह माना जाता है, जो निराकार सर्वोच्च आत्मा को संदर्भित करता। किसी भी भौतिक देवता को संदर्भित नहीं करता है। इस कारण यह सुझाव दिया जाता है कि ‘सर्वोच्च और दिव्य न्याय’ शब्द और ‘निराकार’ शब्द शपथ का हिस्सा होना चाहिए। शपथ के विशेष रूपों का भी सुझाव दिया गया है। भगवान की प्रकृति और उस अवधारणा के घटक तत्वों के बारे में एक आध्यात्मिक चर्चा, यह उस अधिनियम के दायरे से बाहर है जो प्रचलित है।

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अक्सर फिल्मों में हम देखते हैं कि न्यायालय में जब भी कोई गवाही देने आता है तो वह व्यक्ति कटघरे में खड़ा होकर किसी किताब पर हाथ रखकर कसम खाता है। अदालत में कसम खाने की यह प्रथा स्वतंत्र भारत में 1957 तक कुछ शाही युग की अदालतों जैसे बाॅम्बे हाईकोर्ट में नाॅन हिन्दू और गैर मुसलमानों के लिए उनकी पवित्र किताब पर हाथ रखकर कसम खाने की प्रथा चालू थी। भारत में किताब पर हाथ रखकर कसम खाने की यह प्रथा 1969 में समाप्त हुई। उस समय लाॅ कमीशन ने अपनी 28वीं रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी। उसने देश में भारतीय ओथ अधिनियम, 1873 में सुधार का सुझाव दिया। तब शपथ अधिनियम, 1969 पारित किया गया। इस प्रकार पूरे देश में एक समान शपथ कानून लागू किया गया। इस कानून के पास होने से भारत की अदालतों में शपथ लेने की प्रथा के स्वरूप बदल दिया गया। अब शपथ एक सिर्फ एक सर्वशक्तिमान भगवान के नाम पर दिलाई जाती है। अब शपथ को धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया है।

हिन्दू मुस्लिम, सिख, पारसी और ईसाई के लिए अब अलग-अलग किताबों और शपथों को बंद कर दिया गया है। अब शपथ मैं ईश्वर के नाम पर कसम खाता हूॅं, ईमानदारी से पुष्टि करता हूं कि जो मैं कहूंगा वह सत्य, पूर्ण सत्य के अलावा कुछ भी नहीं कहूंगा के रूप में ली जाती है। नए कानून में 12 साल से कम उम्र के गवाह को किसी प्रकार की शपथ नहीं लेनी होगी। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बच्चे स्वयं भगवान के रूप होते हैं। जब तक किसी व्यक्ति ने शपथ नहीं खाई है तब तक वह सच बोलने के लिए बाध्य नहीं है। लेकिन जैसे ही व्यक्ति ने शपथ या कसम खाली ली अब वह सच बोलने के लिए बाध्य है। इसीलिए गवाह न्यायालय में जब जज के सामने कसम खाता है (मैं जो कहूंगा, सच कहूंगा और सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा) तो वह कानूनन सच बोलने के लिए बाध्य होता है।

अगर अदालत ने उसका झूठ पकड़ लिया तो उसे सजा देने के प्रावधान भी विद्यमान है। अगर कोई व्यक्ति कसम खाने के बाद झूठ बोलता है तो भारतीय दंड संहिता की धारा 193 के प्रावधानों के तहत ऐसे व्यक्ति को सात साल की सजा दी जाएगी। इतना ही नहीं इस धारा में यह प्रावधान भी है कि जो कोई भी गवाह किसी न्यायिक कार्यवाही के किसी मामले में झूठा प्रमाण या साक्ष्य देगा अथवा किसी न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में उपयोग किये जाने हेतु झूठा साक्ष्य बनाएगा तो उसे भी सात वर्ष के कारावास और जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा।

पुराने समय में लोग अधिक धार्मिक होते थे। वे धार्मिक मूल्यों को भी अत्यधिक महत्व देते थे। इसलिए राजाओं और अंग्रेजों ने भारतीयों की धार्मिक आस्था का उपयोग लोगों से सच कहलवाने के लिए किया। इसका उद्देश्य यह था कि समाज में अपराध कम हों और अपराधी को दंडित किया जा सके। भारतीय कानून में गीता, कुरान या किसी भी धार्मिक किताब का कोई उल्लेख नहीं है। दरअसल भारत की फिल्मों में अभी भी पुराने समय की प्रथा को दिखाया जाता है जिसमें गवाह को गीता या कुरान पर हाथ रखकर कसम खानी होती है। लेकिन यथार्थ में भारत की न्यायालयों में यह प्रथा अब प्रचलन में नहीं है।