Law and Justice: कानून और संविधान में पर्यावरण सुरक्षा के प्रावधान     

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Law and Justice: कानून और संविधान में पर्यावरण सुरक्षा के प्रावधान;

पर्यावरण सुधार आज न केवल देश की बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक महती आवश्यकता है। भारत में विभिन्न कानूनी प्रावधान सरकार, न्यायालय तथा संविधान के मूलभूत अधिकार इस संबंध में इसे रोकने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

लेकिन, केवल कानूनों से इसकी पूर्ण रोकथाम संभव नहीं है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि इसे जन आंदोलन में बदला जाए। प्रत्येक नागरिक को इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान देना होगा। पर्यावरण सुधार आज एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा है।

विश्व की चिंता पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों को लेकर भी है। विश्व समुदाय निरंतर इस बात पर विचार कर रहा है कि पर्यावरण में आए परिवर्तनों के लिए कौन जवाबदार है।

भारत भी इस अभियान में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के साथ एक जुट है तथा इस अभियान में हर तरह से मदद कर रहा है।

भारत में भी विभिन्न कानून एवं संविधान (Law and Justice) में पर्यावरण सुधार हेतु प्रावधान किए गए हैं तथा आवश्यकतानुसार इसमें सुधार किए जा रहे हैं।

हम में से शायद बहुत ही कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 48-अ में कहा गया है कि प्रदेश की सरकारें देश के पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन तथा वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा का प्रयास करेगी।

इसी प्रकार अनुच्छेद 51-अ में पर्यावरण संरक्षण के नागरिकों का मूल कर्तव्य मानते हुए यह प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण जिसमें वन, झील, नदी और वन्य जीवों की रक्षा तथा उनका संवर्धन करें।

साथ ही यह भी कहा गया है कि प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव रखे।

संविधान के इन्हीं प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, जल प्रदूषण अधिनियम 1974, वायु प्रदूषण अधिनियम 1981, राष्ट्रीय पर्यावरण अधिनियम 1995, ध्वनि प्रदूषण नियम 2000, रासायनिक दुर्घटना आपात योजना और अनुक्रिया नियम 1996 जैसे विभिन्न पर्यावरण विषयों को ध्यान में रख कर कानून बनाए गए है।

संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के अधिकार में मानव स्वास्थ्य कल्याण के लिए पर्यावरण का प्रमुख घटक माना गया है।

पर्यावरण संरक्षण को सरकार एवं न्यायालय का दायित्व बताया गया है। अनुच्छेद 21 के तहत सफाई, पर्यावरण शुद्धता को शामिल करते हुए यह कहा गया है कि पर्यावरण प्रदूषण से प्रभावित व्यक्ति मुआवजा पाने का अधिकारी भी होगा।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए 19 नवम्बर 1986 का पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 बनाया गया।

इसके प्रावधानों के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण से आशय पर्यावरण में किसी भी पर्यावरणीय प्रदूषण का विद्यमान होना शामिल है।

साथ ही पर्यावरण का अर्थ जल, वायु और भूमि तथा मानवीय प्राणी तथा अन्य जीवित प्राणी, पौधे सूक्ष्म जीव में और उनके बीच विद्यमान संबंध भी शामिल है।

इस अधिनियम की धारा 3 में केन्द्र सरकार को यह अधिकार दिए गए हैं कि वह अधिनियम के प्रावधानों के तहत पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा संरक्षण के लिए तथा प्रदूषण को दूर करने के उपाय करें।

न्यायालयों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण से हुई हानि के लिए राहत और मुआवजा देने के मामलों की शीघ्र सुनवाई हेतु राष्ट्रीय पर्यावरण अधिकरण अधिनियम 1995 लाया गया।

इसके प्रावधानों में पर्यावरण दुर्घटना से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति का प्रावधान है। इन प्रावधानों में इन मामलों की सुनवाई हेतु एक अधिकरण की स्थापना का प्रावधान भी है जो इन मामलों की सुनवाई करेगा।

लेकिन, दुर्भाग्य है कि इन कानूनों के बाद भी भारत में प्रदूषण नियंत्रण प्रभावी ढंग से आज भी नहीं हो पा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली फरारी जलाने, वाहनों के धुएं एवं अन्य कई कारणों से प्रदूषण से त्रस्त है।

दिल्ली में ठंड के दिनों में रहना वहां के नागरिकों के लिए एक कठोर सजा है। इससे दिल्ली के नागरिकों का इस प्रदूषण में रहना व जीवन यापन उनको संविधान के अनुच्छेद 21 में दी गई जीवन की सुरक्षा के खिलाफ है।

देश की राजधानी होने कई राज्य एवं केन्द्रीय सरकार के होने के बाद भी प्रदूषण की समस्या विकराल बनी हुई है।

सरकारें भी आग लगने पर कुंआ खोदने की कहावत को चरितार्थ करते हुए उन्हीं दिनों में सक्रिय होती है तथा देश की सर्वोच्च अदालत को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है।

पर्यावरण में विद्यमान प्रदूषण को हम मुख्य रूप में चार प्रकरणों में बांट सकते हैं। एक जल प्रदूषण, दूसरा वायु प्रदूषण, तीसरा ध्वनि प्रदूषण तथा चौथा पर्यावरण प्रदूषण इनमें सम्मिलित है।

प्रदूषित जल मानव सहित जीव जन्तुओं एवं जल में रहने वाले जीवों के लिए हानिकारक होता है। हम कई बार मछलियों के मरने के समाचार पढ़कर व्यथित होते हैं।

हम ही इसके लिए जवाबदार भी है। हमारे कर्मकांड नदियों को प्रदूषित कर रहा है। जल प्रदूषण निवारण अधिनियम में इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।

वायु प्रदूषण भी हमारी चिंता का एक विषय है। हवा में अवांछित तत्व एवं जहरीली गैस जैसे कारण मानव जीवन को हानि पहुंचा रहे हैं और उन्हें बीमार बना रहे हैं।

कारखानों से निकलने वाला धुंआ, तेजी से बढ़ते वाहन, परारी आदि जैसे अनेक कारण है, जिसने आम जनता का जीवन दुभर बना दिया है।

ध्वनि प्रदूषण के संबंध में तो आज का सबसे बड़ा चर्चित मुद्दा यही है। वातावरण में अत्यधिक तीव्र और असहनीय ध्वनि में लाउडस्पीकर आदि के उपयोग से तेजी से यह प्रदूषण फैल रहा है।

इसमें उत्सव, विवाह, हार्न, जेनरेटर एवं डीजल पम्पों का काफी योगदान रहता है। भूमि में जहरीली अवांछित एवं अनुपयोगी पदार्थों के कारण उत्पन्न प्रदूषण भी हमारी चिंता का सबब है।

स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के बाद भारत के संविधान में संशोधन किया गया। इस संशोधन के माध्यम से प्रकृति संरक्षण को संवैधानिक आदेश के रूप में शामिल किया गया।

संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 51 (अ) (छ) के तहत प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा एवं उसमें सुधार को मूलभूत कर्तव्य के रूप में जोड़ा गया।

इसमें कहा गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और अन्य वन्य जीव है, रक्षा करें और संवर्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव रखे।

कोविड-19 महामारी में भी प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारक माना गया है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण मामलों का स्वतः संज्ञान ले सकता है अथवा नदी वाले एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि इस अधिकरण के पास पर्यावरण से संबंधित मुद्दों को निपटाने का अधिकार है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 (सी) तथा अनुच्छेद 253 में सरकार को इस संबंध में कानून बनाने तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों एवं अन्य कार्यक्रमों में भाग लेने तथा उनमें लिए गए निर्णयों एवं प्रस्तावों को क्रियान्वित करने के अधिकार दिए गए है।

साथ ही इसमें अन्य देशों से इस संबंध में करार करना, संधियों, करारों और प्रस्तावों के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। हमारी संसद ने भी इस शक्ति का उपयोग कानून पारित कर एवं संविधान में संशोधन कर प्रदूषण के संबंध में अपना योगदान देने का प्रयास किया है।

इस संबंध में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज विरुद्ध भारत सरकार मामले में कहा कि अंतरराष्ट्रीय करार के प्रावधान प्रवर्तनीय है।

एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि यह विधि की स्वीकृत धारणा है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम जो विधि के विरुद्ध नहीं है, उसे हमारी अपनी विधि में सम्मिलित माना जाएगा और न्यायालयों द्वारा इनका अनुसरण किया जाएगा।

इन दिनों पर्यावरण संरक्षण एवं इसमें सुधार का अभियान चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय संगठन एवं सरकारे इसमें अपना पूरा जोर लगा रही है।

भारत सरकार भी अंतराष्ट्रीय इस अभियान में गहराई से जुड़ी है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा 21 में प्रदत्त मूल अधिकारों की विवेचना में देष की सर्वोच्च न्यायालय ने इसे और अधिक व्यापकता प्रदान की है।

हमें भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि पर्यावरण मनुष्य के जीवन का मूल आधार है। पर्यावरण के तत्वों के मध्य संतुलन आवश्यक है।

इन तत्वों में असंतुलन ही पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण है। हमें अपनी मान्यताओं एवं आदतों को परिवर्तित करना होगा ताकि प्रदूषण पर कुछ हद तक नियंत्रण लगाया जा सके।

हमें अपने शास्त्रों के अनुसार नदी, वायु, भूमि, जल आदि को देवता मानकर उनका संरक्षण करना होगा। हमें प्रकृति का दोहन किसी भी हालत में रोकना होगा तथा जन-जन को इसका ध्यान रखना होगा।

यदि हम इसका ध्यान नहीं रखेंगे तो प्रकृति भी हमारा ध्यान नहीं रखेगी। हर क्षेत्र की तरह पर्यावरण के संबंध में कानून तो कई है लेकिन मात्र कानूनों से पर्यावरण का संरक्षण संभव नहीं है।

हमें इसके सुधार हेतु जन आंदोलन छेड़ना होगा। इस कार्य में हमारे धार्मिक संत और नेता महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।

आज की महती आवश्यकता इनमें सुधार की है। लोगों को नदी में गंदगी को बहाने से रोकना होगा।

यदि भारत में इसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया जा सके तो ही देश के विद्यमान प्रभावी कानूनों की मदद से पर्यावरण को पुनः पवित्र एवं स्वच्छ बनाने में सफल हो सकेंगे।

आशा की जानी चाहिए कि भारत यह करने में सफल होगा तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका पर्यावरण सुधारों में महत्वपूर्ण योगदान होगा।

इन दिनों एक संदेश वायरल हो रहा है जिसका उल्लेख करना मुझे उचित लगा। इस संदेश में कहा गया है कि नदी से पानी नहीं रेत चाहिए।

पहाड़ से औषधि नहीं, पत्थर चाहिए। पेड़ से छाया नहीं, लकड़ी चाहिए। खेत से अन्न नहीं, नगद फसल चाहिए। उलीच ली रेत, खोद लिए पत्थर, काट लिए पेड़, तोड़ दी मेड़।

अब भटक रहे हैं, सुखे कुंओं में झाकतें रीती नदियों को ताकते, झाड़ियां खोजते लू के थपेड़ों में, बिना छाया के ही हो जाती है सुबह-शाम और गली-गली ढूंढ रहे हैं ऑक्सीजन, फिर भी सब बर्तन खाली।

अंडे के लालच में मानव ने मुर्गी ही मार डाली। पता नहीं यह किसने भेजा और लिखा है। लेकिन, पर्यावरण के मामलों में यही सच है, एक कड़वा सच।