

Law and Justice: हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधान जैन धर्मावलंबियों पर लागू होंगे!
– विनय झैलावत
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ के न्यायमूर्ति सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति संजीव एस कलगांवकर की खंडपीठ ने चर्चित एवं महत्वपूर्ण मामले में फैसला देते हुए परिवार न्यायालय के उस आदेश को निरस्त कर दिया, जिसमें पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19(1) के तहत प्रथम अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, पारिवारिक न्यायालय, इंदौर द्वारा पारित 8 फरवरी 2025 के आदेश को चुनौती दी गई। इसके तहत परिवार न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 बी के तहत दायर आवेदन को यह निष्कर्ष निकालते हुए वापस कर दिया था कि हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधान उन पक्षकारों पर लागू नहीं होते हैं, जो जैन समुदाय के सदस्य हैं। इस परिवार न्यायालय के फैसले को आने के बाद से ही न्यायविदों एवं अभिभाषकों द्वारा इस फैसले पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा था।
इस प्रकरण में उभयपक्षों का विवाह 17 जुलाई 2017 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। वैवाहिक कलह के कारण प्रतिवादी ने 18 अप्रैल 2018 को अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया और अपने माता-पिता के साथ रहने लगी। दोनों पक्ष पिछले छह वर्षों से अलग रह रहे थे। उन्होंने अपने विवाह को भंग करने का निर्णय लिया। इसलिए, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी के तहत विवाह विच्छेद के लिए एक याचिका पारिवारिक न्यायालय इंदौर के समक्ष प्रस्तुत की गई। पारिवारिक न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की दिनांक 27 जनवरी 2014 की एक अधिसूचना पर विचार किया। इसमें जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया था। जैन समुदाय के सदस्यों की धार्मिक प्रथाओं की हिंदू धर्म से तुलना करते हुए परिवार न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि जैन समुदाय के सदस्यों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रथाएं विशेष रूप से विवाह के संबंध में, भिन्न हैं। इसलिए, जैन समुदाय के सदस्य हिंदू कानून से बंधे नहीं हैं। परिवार न्यायालय के न्यायाधीश ने जैन समुदाय के सदस्यों द्वारा अपनाए जाने वाले रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों की विशिष्ट विशेषताओं का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष निकाला कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रावधान जैन समुदाय के सदस्यों पर लागू नहीं होते हैं। इसलिए, वे पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा 7 के तहत अपने रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों के अनुसार विवाह विच्छेद के लिए आवेदन कर सकते हैं।
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उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपील में उक्त आदेश का इन आधारों पर विरोध किया गया है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 2 के अनुसार, अधिनियम के प्रावधान पक्षकारों पर लागू होते हैं। जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने वाली अधिसूचना के मद्देनजर हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में कोई ऐसा संशोधन नहीं किया गया जिसके कारण जैन समुदाय को अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जा सके। उक्त आदेश कानून और संविधान के विरुद्ध है। इन आधारों पर यह प्रार्थना की गई थी कि आरोपी आदेश को रद्द किया जाए और अपीलकर्ता को विवाह विच्छेद की राहत प्रदान की जाए।
उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील में निर्धारण हेतु मुख्य बिन्दु यह थे कि, क्या अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी दिनांक 27 जनवरी 2014 की अधिसूचना के मद्देनजर जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया है। यह भी प्रश्न था कि क्या अपीलकर्ता जैन समुदाय का सदस्य होने के नाते हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के आवेदन से बाहर रखा जा सकता है! कुटुम्ब न्यायालय, इंदौर ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 बी के अंतर्गत दायर याचिका को कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7 के अंतर्गत प्रस्तुत करने के लिए वापस करने में कोई अवैधानिकता या अनौचित्य किया है?
परिवार न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने विभिन्न उच्च न्यायालयों के निर्णयों पर भरोसा करते हुए कहा था कि, यह सही है कि विभिन्न प्रावधानों में जैन धर्म के अनुयायियों को भी हिंदू के रूप में परिभाषित किया गया है। लेकिन जैन धर्म अपना एक विशिष्ट इतिहास है। मूलतः जैन धर्म एवं हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों में कई भिन्नताएँ हैं। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्मा द्वारा की गई थी। जबकि, जैन धर्म के अनुसार यह मान्यता नहीं है कि ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्मा द्वारा की गई थी। जैन धर्म के अनुसार ब्रह्माण्ड की रचना कभी नहीं हुई थी, क्योंकि ब्रह्माण्ड शाश्वत है। हिंदू धर्म के अनुसार आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग माना गया है। यह माना जाता है कि जीवन का अन्त होने पर आत्मा का पुनः परमात्मा में विलय हो जाता है। जबकि जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वयं परमात्मा होती है। हिंदू धर्म में कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, जबकि जैन धर्म में तीर्थंकरों की पूजा की जाती है। हिंदू धर्म में विभिन्न जातियों और वर्गों का समावेश है, जबकि जैन धर्म में जाति और वर्ग के आधार पर कोई विभाजन नहीं है। हिंदू धर्म में वेद, उपनिषद और स्मृति जैसे ग्रंथों को पवित्र माना जाता है, किंतु जैन धर्म द्वारा वेद एवं हिंदू धर्म के अन्य ग्रंथों को स्वीकार नहीं किया जाता है और जैन धर्म के पास ‘आगम’ और ‘सूत्र’ जैसे अपने पृथक पवित्र ग्रंथ हैं।
इसके अतिरिक्त जहां तक दोनों धर्मों में विवाह की अवधारणा का प्रश्न है, तो जैन धर्म में विवाह का मुख्य उद्देश्य स्वयं के धर्म से संबंधित मानव जाति की निरंतरता बनाए रखना है। जैन धर्म की इस अवधारणा में कोई धार्मिक उद्देश्य शामिल नहीं माना जाता है। हिंदू धर्म में विवाह की अवधारणा के अनुसार विवाह को एक पवित्र धार्मिक संस्कार माना गया है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत डाॅली रानी विरूद्ध मनीष कुमार चंचल को भी उद्धृत किया गया। जहां तक जैन धर्म के अनुयायियों को दिये गये अल्पसंख्यक समुदाय के स्तर का प्रश्न है, तो इस संबंध में भी जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित किये जाने की मांग एक शताब्दी से भी अधिक पुरानी रही है। जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा मार्च-अप्रैल 1947 में ही संविधान सभा के सामने जैन धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता की मांग की गई थी। उक्त प्रकृति की मांग लगातार निरंतर रहने के आधार पर ही वर्ष 2014 में केंद्र सरकार द्वारा जैन धर्म को अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। जैन धर्म के अनुयायियों को बहुसंख्यक हिंदू धर्म के अनुयायियों से एक पृथक मान्यता प्रदान की गई है।
ऐसी स्थिति में परिवार न्यायालय ने यह माना कि जैन धर्म के अनुयायियों को भी अपनी धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं तथा परंपराओं का स्वतंत्र रूप से पालन करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। ऐसी स्थिति में हजारों वर्ष पुराने जैन धर्म के अनुयायियों को विपरीत विचारधारा वाले हिंदू धर्म की विधियों का पालन करने के लिये विवश किया जाना निश्चित रूप से जैन धर्म के अनुयायियों को प्राप्त धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार से वंचित करने के समतुल्य है। उच्च न्यायालय के समक्ष इस आशय का भी तर्क किया गया है कि जैन धर्म के अनुयायी द्वारा भी विवाह के समय हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 में उल्लेखित सप्तपदी संस्कार का पालन किया जाता है। इस कारण ऐसी अनुयायी को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत भी अनुतोष पाने का अधिकार है।
इस संबंध में दसवीं शताब्दी में आचार्य श्री वर्धमान सूरीश्वरजी महाराज द्वारा रचित ग्रंथ ‘‘आचार्य दिनकर ग्रंथ‘‘ का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। इसके चौदहवें खंड में जैन मान्यताओं के अनुसार विवाह के लिये किये जाने वाले संपूर्ण अनुष्ठानों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार जैन विवाह विधि में स्थापना विधि, आत्मरक्षा, मंत्रस्नान, क्षेत्रपाल पूजा, मनधोड़ बंधन, अरहत पूजन, सिद्ध पूजन, गांधार पूजन, शास्त्र पूजन, चौबीस यक्ष याक्षिणी पजून, दस दिगपालन पूजन, सोलह विद्यादेवी पूजन, बार राषि पूजन, नवग्रह पूजन, सत्यविष नक्षत्र पूजन, चोरण प्रतिष्ठा, विधि प्रतिष्ठा, हस्तमिलाप, प्रदक्षिणा (चार बार), वरमाला, अभिसिंचन, सात प्रतिज्ञा, आरती एवं क्षमायाचना किये जाने का उल्लेख किया गया है। इससे स्पष्ट है कि जैन धर्म में उल्लेखित विवाह विधि हिंदू धर्म में उल्लेखित विवाह विधि से भिन्न है। यह भी कहा गया कि जैन धर्म एक ऐसा धर्म है, जो हिंदू धर्म की बुनियादी वैदिक परंपराओं और मान्यताओं का विरोध करता है और वैदिक परंपरा पर आधारित नहीं है। जबकि हिंदू धर्म पूर्ण रूप से वैदिक परंपरा पर आधारित है।
उच्च न्यायालय ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि उपरोक्त संपूर्ण विश्लेषण में यह तथ्य निश्चित रूप से प्रमाणित है कि जैन धर्म निर्विवाद रूप से हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है। जैन धर्म के अनुयायियों की लगभग 100 वर्ष पुरानी मांग स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार द्वारा भारत के राजपत्र में दिनांक 27 जनवरी 2014 को प्रकाशित अधिसूचना में यह तथ्य भी प्रमाणित है कि केंद्र सरकार द्वारा जैन समुदाय अर्थात जैन धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है। अतः ऐसी स्थिति में हिंदू धर्म की मूलभूत वैदिक परंपराओं को सिरे से नकारने वाले और पूर्व उल्लेखित वर्ष 2014 की राजपत्र अधिसूचना के पश्चात स्वयं को बहुसंख्यक हिंदू समुदाय से पृथक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित कर चुके जैन धर्म के किसी अनुयायी को उनके धर्म से विपरीत मान्यताओं वाले धर्म से संबंधित व्यक्तिगत विधि का लाभ दिया जाना उचित प्रतीत नहीं होता है।
अतः स्पष्ट है कि उक्त न्याय सिद्धांत के आलोक में हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का विरोध करने वाले और बहुसंख्यक हिंदू समुदाय से स्वयं को स्वेच्छा से अलग कर अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित कर चुके जैन धर्म के किसी पक्षकार द्वारा अपने हजारों वर्ष पूर्व से सुस्थापित वैभवशाली एवं गौरव से परिपूर्ण जैन धर्म में व्यक्तिगत विधि से संबंधित विवादों के संबंध में प्रचलित एवं सुस्थापित धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं का अभिवचन करते हुए निष्चित रूप से ऐसे विवाद के संबंध में कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7 के अंतर्गत कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता है।