
कानून और न्याय: आलोचना के घेरे में सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम प्रणाली!
– विनय झैलावत

हाल ही में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना करते हुए कहा कि न्यायाधीश योग्यता को दरकिनार कर अपने पसंद के लोगों की नियुक्ति या पदोन्नति की सिफारिश करते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217 क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। कॉलेजियम प्रणाली और इसके विकास को भी हमें समझना होगा। यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। सन 1981 में एक न्याय निर्णय में यह निर्धारित किया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश के सुझाव की ‘प्रधानता’ को ठोस कारणों के चलते अस्वीकार किया जा सकता है। इस निर्णय ने अगले बारह वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका और कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित कर दी है।
दूसरा मामला सन् 1993 का है। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कॉलेजियम प्रणाली की शुरूआत की कि परामर्श का अर्थ वास्तव में सहमति है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह सीजेआई की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी। तीसरा मामला सन् 1998 का है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति द्वारा जारी एक प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (अनुच्छेद 143) के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पांच सदस्यीय निकाय के रूप में कॉलेजियम का विस्तार किया। इसमें भारत के मुख्य न्यायाधिपति और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधिपति द्वारा की जाती है और इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका कॉलेजियम द्वारा नाम तय किये जाने के बाद की प्रक्रिया में ही होती है।
विभिन्न न्यायिक नियुक्तियों के लिये निर्धारित प्रक्रिया है। मुख्य न्यायाधिपति और सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अगले मुख्य न्यायाधिपति के संदर्भ में निवर्तमान मुख्य न्यायाधिपति अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करता है। हालांकि, वर्ष 1970 के दशक के अतिलंघन विवाद के बाद से व्यावहारिक रूप से इसके लिए वरिष्ठता के आधार पर पालन किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के लिए नामों के चयन का प्रस्ताव मुख्य न्यायाधिपति द्वारा शुरू किया जाता है। मुख्य न्यायाधिपति कॉलेजियम के बाकी सदस्यों के साथ-साथ उस उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से भी परामर्श करता है। इससे न्यायाधीश पद के लिए अनुशंसित व्यक्ति संबंधित होता है। निर्धारित प्रक्रिया के तहत परामर्शदाताओं को लिखित रूप में अपनी राय दर्ज करानी होती है और इससे फाईल का हिस्सा बनाया जाना चाहिये। इसके पश्चात कॉलेजियम केंद्रीय कानून मंत्री को अपनी सिफारिश भेजता है, जिसके माध्यम से इसे राष्ट्रपति को सलाह देने हेतु प्रधानमंत्री को भेजा जाता है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस आधार पर की जाती है कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने वाला व्यक्ति संबंधित राज्य से न होकर किसी अन्य राज्य से होगा। यद्यपि चयन का निर्णय कॉलेजियम द्वारा लिया जाता है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश मुख्य न्यायाधिपति और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है। हालांकि, इसके लिये प्रस्ताव को संबंधित उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श के बाद पेश किया जाता है। यह सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो इस प्रस्ताव को केंद्रीय कानून मंत्री को भेजने के लिये राज्यपाल को सलाह देता है। इस प्रणाली के संबंध में यह चिंता जताई जा रही है कि न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका के पूर्ण बहिष्करण ने एक ऐसी प्रणाली का निर्माण किया है जहां कुछ न्यायाधीश पूर्ण गोपनीय तरीके से अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं।
इसके अलावा, वे किसी भी प्रशासनिक निकाय के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं। इसके कारण सही उम्मीदवार की अनदेखी करते हुए गलत उम्मीदवार का चयन किया जा सकता है। पक्षपात और भाई-भतीजावाद की संभावना कॉलेजियम प्रणाली मुख्य न्यायाधिपति पद के उम्मीदवार के परीक्षण हेतु कोई विशिष्ट मानदंड प्रदान नहीं करती है, जिसके कारण यह पक्षपात भाई-भतीजावाद की व्यापक संभावनाओं की ओर ले जाती है। यह न्यायिक प्रणाली की गैर-पारदर्शिता को जन्म देती है जो देश में विधि एवं व्यवस्था के विनियमन के लिए अत्यंत हानिकारक है।
इस प्रणाली में नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत का उल्लंघन होता है। भारत में व्यवस्था के तीनों अंग विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका यूँ तो अंशतः स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं लेकिन वे किसी भी अंग की अत्यधिक शक्तियों पर नियंत्रण के साथ ही संतुलन भी बनाए रखते हैं। कॉलेजियम प्रणाली न्यायपालिका को अपार शक्ति प्रदान करती है, जो नियंत्रण का बहुत कम अवसर देती है और दुरुपयोग का खतरा उत्पन्न करती है।
आलोचकों ने रेखांकित किया है कि इस प्रणाली में कोई आधिकारिक सचिवालय शामिल नहीं है। इसे एक ‘‘क्लोज्ड डोर अफेयर‘‘ के रूप में देखा जाता है, जहां कॉलेजियम की कार्य प्रणाली और निर्णयन प्रक्रिया के बारे कोई सार्वजनिक सूचना उपलब्ध नहीं होती। इसके अलावा कॉलेजियम की कार्यवाही का कोई आधिकारिक कार्यवृत्त भी दर्ज नहीं होता है। असमान प्रतिनिधित्व चिंता का एक अन्य क्षेत्र उच्च न्यायपालिका की संरचना है, जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। इसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग 99वें संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम द्वारा प्रतिस्थापित करने के प्रयास को 2015 में ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा है।
कार्यपालिका और न्यायपालिका को शामिल करते हुए रिक्तियों को भरना एक सतत व सहयोगी प्रक्रिया है। इसके लिए कोई समय-सीमा नहीं हो सकती है। हालांकि यह एक स्थायी, स्वतंत्र निकाय के बारे में सोचने का समय है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ प्रक्रिया को संस्थागत बनाने के लिये न्यायिक प्रधानता की गारंटी देता है, लेकिन न्यायिक विशिष्टता की नहीं। इसे स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिये। इस प्रणाली में विविधता को प्रतिबिंबित करना चाहिये एवं पेशेवर क्षमता और अखंडता का प्रदर्शन करना भी आवश्यक है।





