Law And Justice: संसद में पैसे लेकर सवाल पूछना और संवैधानिक प्रावधान!
भारतीय संसद के इतिहास में अलग-अलग दौर में कई कारणों से राज्यसभा और लोकसभा सांसदों की सदस्यता रद्द हुई है। विधायकों को भी कई बार अयोग्य घोषित किया गया है। विधायिका में कोई भी पद खाली होने की सामान्य परिस्थितियां तो यही है कि अगर कोई सदस्य अपनी इच्छा से इस्तीफा दे अथवा न रहे। लेकिन और भी कई कारण हैं, जिनकी वजह से विभिन्न सदनों के सदस्यों की सदस्यता छिन जाती है। ऐसा भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों, जन प्रतिनिधित्व से जुड़े कानूनों और संसदीय नियमों के तहत होता है।
अगर कोई सदस्य संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा के लिए चुन लिया जाता है तो उसे एक निष्चित समय के अंदर किसी एक सदन की सदस्यता से इस्तीफा देना होता है। ऐसा न करने पर उन्हें अयोग्य घोषित किया जा सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 101 में संसद को यह व्यवस्था करने को कहा गया है कि कोई भी सदस्य दोनों सदनों का सदस्य न हो। ऐसा होने पर उसे एक सदन की सदस्यता छोड़नी होगी। इसी के साथ, यह भी कहा गया है कि कोई सदस्य संसद और विधानसभा, दोनों का सदस्य भी नहीं हो सकता। अगर कोई तय सीमा के तहत दोनों में से एक सदस्यता नहीं छोड़ता तो उसकी संसद सदस्यता छिन जाएगी। इसके अलावा बिना बताए गैर-हाजिर रहने पर अगर संसद के किसी भी सदन का सदस्य बिना इजाजत सभी बैठकों से साठ दिनों की अवधि तक गैर-हाजिर रहता है तो उसकी सीट खाली घोषित की जा सकती है। उन साठ दिनों में उन दिनों को नहीं गिना जाएगा, जिस दौरान सत्र चार से अधिक दिनों तक स्थगित हो या सत्रावसान हो गया हो।
संविधान का अनुच्छेद 102 कहता है कि कोई भी सदस्य अगर भारत सरकार या राज्य सरकार में ऐसे पद पर है, जो लाभ के पद की श्रेणी में आता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जाता है। लेकिन उस पद पर बने रहने पर उसकी सदस्यता रद्द नहीं होगी, जिस पद पर सांसदों का बना रहना किसी कानून के तहत उन्हें अयोग्य नहीं ठहराता। संविधान के अनुच्छेद 102(1) के तहत सांसदों और अनुच्छेद 19(1) के तहत विधानसभा सदस्यों के ऐसे अन्य पद लेने की मनाही है, जहां वेतन, भत्ते या और दूसरी तरह के सरकारी लाभ मिलते हैं। इसी व्यवस्था के तहत जनवरी 2018 में चुनाव आयोग की सिफारिष पर तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों को अयोग्य करार दे दिया था।
मानसिक रूप से अस्वस्थ या दीवालिया होने पर अगर कोई सांसद किसी अदालत द्वारा मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित कर दिया जाए तो उसकी सदस्यता खत्म हो सकती है। इसी तरह, अगर कोई सांसद दीवालिया घोषित है और किसी अदालत से राहत नहीं मिली तो उसकी सदस्यता रद्द की जा सकती है। साथ ही अगर कोई व्यक्ति भारत का नागरिक न हो या फिर वह किसी और देश की नागरिकता ग्रहण कर ले तो उसकी सदस्यता रद्द कर दी जाएगी। अनुच्छेद 102 कहता है कि इसके अलावा, किसी और देष के प्रति निष्ठा जताने पर भी सदस्यता चली जाएगी।
दल बदलने पर साल 2016 में उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार उस समय संकट में आ गई थी जब नौ विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष ने दल बदल कानून के तहत अयोग्य ठहरा दिया था। इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 102 के मुताबिक, किसी सांसद की सदस्यता दसवीं अनुसूची के तहत भी खत्म की जा सकती है। भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची को दल-बदल रोधी कानून भी कहा जाता है। इसके तहत, अगर कोई सांसद उस पार्टी की सदस्यता छोड़ता है, जिससे वह चुना गया है तो उसकी सदस्यता रद्द हो जाएगी। हालांकि, इसके लिए अपवाद भी है। एक राजनीतिक दल किसी दूसरे दल में विलय कर सकता है, बशर्तें उसके कम से कम दो तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों। इस स्थिति में दल बदलने वाले सदस्यों की सदस्यता बनी रहेगी।
दसवीं अनुसूची में यह भी प्रावधान किया गया है कि सांसद को अपनी पार्टी की ओर से जारी व्हिप का सम्मान करना होगा। अगर कोई सांसद किसी विषय पर मतदान के दौरान अपनी पार्टी के आदेषों का पालन ना करे या फिर वोटिंग से गैर-हाजिर रहे तो उसकी सदस्यता रद्द की जा सकती है। इसके अलावा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में प्रावधान है कि अगर कोई सांसद कुछ कानूनों के तहत दो या इससे अधिक साल की सजा पाता है तो उसकी सदस्यता जा सकती है। हालांकि, अगर सजा पर कोई ऊंची अदालत रोक लगा दे तो अयोग्य ठहराए जाने के फैसले पर भी रोक लग जाती है। ऐसा ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ हुआ था।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अन्य प्रावधानों में यह भी व्यवस्था है कि यदि यह पाया जाए कि किसी सांसद ने अपने चुनावी हलफनामे में कोई गलत जानकारी दी है या फिर वह लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम का उल्लंघन करता है तो उसकी सदस्यता जा सकती है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सदस्यता लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत ही रद्द की गई थी।
इस कानून के प्रावधानों के तहत आरक्षित सीटों पर गलत प्रमाण पत्र के आधार पर चुनाव लड़ना, दो समूहों के बीच नफरत फैलाना, चुनाव प्रभावित करना, घूस लेना, बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराध, धार्मिक सौहार्द खराब करना, छुआछूत करना, प्रतिबंधित वस्तुओं का आयात-निर्यात, ड्रग्स या प्रतिबंधित रसायनों की खरीद-फरोख्त, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना तथा दो साल तक की जेल होने की दशा में सदस्यता निरस्त हो सकती है। इसके अलावा संसद की आचार संहिता का उल्लंघन करने पर भी सदस्यता निरस्त हो सकती है। संसद के दोनों सदनों में एथिक्स कमेटियां हैं, जो सांसदों के आचरण संबंधित षिकायतों की जांच कर करती हैं। राज्यसभा में साल 1997 से और लोकसभा में साल 2000 से एथिक्स कमेटी काम कर रही है।
राज्यसभा के रूल्स ऑफ़ कंडक्स एंड पार्लियामेंट्री एटिकेट में लिखा गया है कि सांसदों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन करें, जनहित से किसी तरह का समझौता न करें, विधेयक आदि पेष करने के बदले कोई फीस या अन्य लाभ न लें, अपनी विष्वसनीयता बनाए रखें, किसी भी धर्म को लेकर अपमानजनक बातें न करें, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बनाए रखें तथा सदस्य के रूप में सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, मर्यादा और मूल्य बनाए रखें। राज्यसभा के नियम कहते हैं कि सदन को अपने सदस्यों के दुर्व्यवहार, चाहे सदन में हो या बाहर, दंडित करने का अधिकार है। इस मामले में वह चेतावनी, फटकार, सदन से हटाने, निलंबित करने, कारावार और निष्कासन तक कर सकती है। इसमें निष्कासन को लेकर कहा गया है कि दुर्व्यवहार के चरम मामलों में सदन किसी भी सदस्य को निष्कासित कर सकता है।
इसी तरह, लोकसभा की एथिक्स कमेटी को सदस्यों के अनएथिकल व्यवहार की षिकायतों की जांच करके लोकसभा अध्यक्ष को सिफारिश भेजने का अधिकार है। इस कमेटी को समय-समय पर नियम बनाने और उन्हें संशोधित करने का भी अधिकार है। महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता भी इसी एथिक्स कमेटी की सिफारिष के आधार पर रद्द की गई है। शुक्रवार को एथिक्स कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा में रखी गई और फिर उन्हें लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया। टीएमसी सांसद का कहना है कि एथिक्स कमेटी के पास उन्हें निष्कासित करने की सिफारिश करने का कोई अधिकार नहीं है। सिफारिष के संबंध में एथिक्स कमेटी के नियम क्या हैं, वे सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है।
जानकारों का कहना है कि अब महुआ मोइत्रा के पास अपनी सदस्यता को वापस लेने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास जाने का विकल्प बचा हुआ है। उन्होंने इसका उपयोग किया भी है। लेकिन अंततः क्या स्थिति होगी, यह तो एथिटिक्स कमेटी की रिपोर्ट एवं स्पीकर के आदेश के अनुसार ही बताई जा सकती है। अतीत में कई सांसद या विधायक खुद की सांसदी जाने के खिलाफ अदालत का रूख कर चुके हैं। कुछ मामलों में अदालत ने नेताओं की सांसदी या विधायक पद को फिर से बहाल भी किया है।
12 दिसंबर 2005 को स्टिंग ऑपरेशन दुर्योधन से सियासी भूचाल आ गया था। इसमें सांसदों को पैसे के बदले में सदन में सवाल पूछने का इच्छुक दिखाया गया था। इनमें भाजपा के छह सांसद छत्रपाल लोधा (ओडिशा), अन्ना साहेब एमके पाटिल (महाराष्ट्र), चंद्र प्रताप सिंह (मध्यप्रदेश), प्रदीप गांधी (छत्तीसगढ़), सुरेश चंदेल (हिमाचल) और जी महाजन (महाराष्ट्र), बसपा के तीन सांसद नरेंद्र कुशवाहा, लालचंद्र कोल और राजाराम पाल (यूपी) थे। इसके अलावा राजद के मनोज कुमार और कांग्रेस के रामसेवक सिंह थे। भाजपा के छत्रपाल राज्यसभा सांसद थे। मतदान से संसद में वोटिंग के जरिए आरोपी सभी ग्यारह सांसदों को निष्कासित कर दिया गया था।
वोटिंग के दौरान भाजपा ने बर्हिंगमन किया था। लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सांसदों के निष्कासन की तुलना मृत्युदंड से की थी। 72 साल पहले हुई पहली बार कार्रवाई महुआ लोकसभा की बारहवीं सदस्य हैं, जिन्हें अनैतिक आचरण के कारण सदस्यता गंवानी पड़ी है। कांग्रेसी सांसद एसजी मुगदल पहले सांसद थे, जिनकी 1951 में घूस लेकर सवाल पूछने के मामले में सदस्यता गई थी। मुदगल ने एक बिजनेसमेन से संसद में सवाल पूछने के बदले पांच हजार रूपये लिए थे।