Law and Justice: देश को अब नए दलबदल कानून की ज्यादा आवश्यकता

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दलबदल कानून इस कृत्य को कुछ हद तक नियंत्रित करता है, पूरी तरह नहीं! यह किसी पार्टी के विभाजन को मान्यता नहीं देता है। लेकिन, यह विलय को मान्यता देता है। इसी आधार पर महाराष्ट्र में नई सरकार का गठन हुआ है।

शिवसेना के बहुसंख्यक विधायकों ने असली शिवसेना होने का दावा करके मुख्यमंत्री का पद प्राप्त किया है। भारतीय जनता पार्टी ने भी हिंदुत्व के नाम पर समर्थन दिया है।

लेकिन यह प्रश्न फिर भी विद्यमान है, कि दल बदल कानून कितना प्रभावी साबित हो रहा है। महाराष्ट्र में नई सरकार के गठन के साथ ही नए दल बदल कानून की आवश्यकता को पुनः महसूस किया जा रहा है।

महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में सरकार बन चुकी है। लेकिन, इस प्रश्न पर तो विचार करना ही होगा कि क्या दलबदल उन विधायकों द्वारा चुनावी जनादेश का अपमान नहीं है, जो एक पार्टी के टिकट पर चुने जाते हैं। लेकिन, फिर मंत्री पद या अन्य लाभों के लालच के कारण दूसरे दल में जाना उचित समझते हैं।

भले ही दलबदल करने वाले इसे सिद्धांतों का जामा पहनाने की कितनी भी कोशीश करें, कानून के द्वारा इसे प्रतिबंधित किया जाना जरुरी है। देश की जनता को दलबदल कानून में अविलंब संशोधन अथवा नए सिरे से कानून बनाए जाने की आवश्यकता महसूस हो रही है।

स्वाभाविक रूप से दलबदल का सरकार के सामान्य कामकाज पर प्रभाव पड़ता है। महाराष्ट्र इसका उदाहरण है।

1960 के दषक में विधायकों द्वारा लगातार दलबदल की पृष्ठभूमि के खिलाफ कुख्यात ‘आया राम गया राम’ का नारा गढ़ा गया था। दलबदल के कारण सरकार में अस्थिरता पैदा होती है। साथ ही प्रशासन भी प्रभावित होता है। यह कृत्य निश्चित ही हाॅर्स-ट्रेडिंग को बढ़ावा देने वाला । साथ ही दलबदल विधायकों के खरीद-फरोख्त को भी बढ़ावा देता है, जो स्पष्ट रूप से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ माना जाता है।

इन सब बुराईयों को रोकने के लिए कानून केवल दो-तिहाई विधायकों के दलबदल को मान्यता देता है। महाराष्ट्र की शिवसेना के विधायकों के दलबदल ने इस कानून की खामियों को दूर करने एवं संशोधन की आवश्यकता को भी महसूस किया जा रहा है। यदि कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़ता है, तो वह ऐसा कर सकता है। लेकिन, उस अवधि के दौरान उसे नई पार्टी में कोई पद नहीं दिया जाना चाहिए।

चुनाव आयोग ने सुझाव दिया है कि दलबदल के मामलों में इसके लिए निर्णायक प्राधिकारी होना चाहिए। इसके अलावा राष्ट्रपति और राज्यपालों को दलबदल याचिकाओं पर सुनवाई करने के प्रावधान होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि संसद को उच्च न्यायपालिका के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में स्वतंत्र न्यायाधिकरण का गठन किया जाना चाहिए, ताकि दलबदल के मामलों का तेजी और निष्पक्ष रूप से फैसला किया जा सके।

कुछ कानूनी जानकारों का यह भी कहना है कि यह कानून विफल हो गया है और इसे समाप्त कर नया कानून लाया जाना चाहिए। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था कि यह केवल अविश्वास प्रस्ताव के मामले में सरकारों को बचाने के लिए लागू किया जाता है।

महाराष्ट्र में शिवसेना में हुए इस विघटन ने तथा नई सरकार के गठन ने एक बार पुनः इस राजनीतिक समस्या का कानूनी समाधान खोजने की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित किया है। साथ ही यदि सरकार की अस्थिरता का कारण दलबदल के आधार पर सदस्यों को अयोग्य ठहराया जाना है, तो इसके लिए इन दलों के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना होगा, ताकि पार्टी विखंडन की घटनाओं को रोका जा सके।

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ विधायकों की यही शिकायत है तथा विभाजन का भी यही कारण प्रतीत होता है। भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले कानून की अत्यंत आवश्यकता है। इस तरह के कानून में राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार के दायरे में भी लाया जाना चाहिए। साथ ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मजबूत किया जाना चाहिए।

भारत में 1967 के आम चुनावों के बाद राज्यों में विधायकों द्वारा बड़ी संख्या में दलबदल किया गया था। इन दलबदलों के परिणामस्वरूप कई राज्यों में सरकारों को सत्ता से हटा दिया गया। तब तत्कालीन सांसदों ने इस मामले पर लोकसभा में गंभीर चिंता जताई थी।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 102 उन आधारों को निर्धारित करता है, जिनके तहत एक विधायक को सदन का सदस्य होने से अयोग्य ठहराया जा सकता है। अनुच्छेद 102 का पहला भाग ऐसे कई उदाहरणों का जिक्र करता है, जिनसे ऐसी अयोग्यता घोषित की जा सकती है।

इनमें यदि कोई व्यक्ति सरकार के अधीन लाभ के लिए कोई अघोषित पद धारण करता है, यदि उसे सक्षम न्यायालय द्वारा विकृतचित घोषित किया गया हो, अथवा वह दिवालिया हो जाता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

अनुच्छेद 102 का दूसरा भाग संविधान की 10वीं अनुसूची को किसी भी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का अधिकार देता है। यह 10वीं अनुसूची ही है जिसे दलबदल विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है। दलबदल को निष्ठा या कर्तव्य का जानबूझकर किया गया त्याग माना गया है, जिसे हम अपने दल के प्रति निष्ठा का त्याग करना कह सकते हैं।

इस कारण उस समय समस्या की जांच के लिए तत्कालीन गृहमंत्री वाईबी चव्हाण की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था। कुछ ही समय बाद समिति ने इस मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें न केवल यह परिभाषित किया गया कि दलबदल क्या है, बल्कि उन मामलों के लिए अपवाद भी बताए गए।

इस समस्या से निपटने के लिए कानून लाने के दो असफल प्रयासों के बाद, आखिरकार 1985 में संविधान (52वां संशोधन) अधिनियम के माध्यम से 10वीं अनुसूची अस्तित्व में आई।

10 वीं अनुसूची ने उस समय यथास्थिति में तीन बड़े बदलाव किए। इसने एक विधायक के खिलाफ सदन के अंदर और बाहर दोनों जगह उनके आचरण के लिए अयोग्यता की ही कार्यवाही शुरू करने की अनुमति दी। इससे विधायकों को सदन में अपनी सीट गंवाने का खतरा भी है। सदन के अध्यक्ष ही एकमात्र प्राधिकारी थे, जो अयोग्यता कार्यवाही पर निर्णय ले सकते थे।

साथ ही एक पार्टी के भीतर या किसी अन्य पार्टी के साथ विलय के मामलों में, विधायकों को अयोग्यता से सुरक्षित रखा गया था। इस कानून के अस्तित्व में आने के कुछ समय बाद विधायकों और राजनीतिक दलों ने इसकी कमियां बताना शुरू कर दी।

1992 में दसवीं अनुसूची की वैधता और संवैधानिकता को एक महत्वपूर्ण मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दलबदल अधिनियम को चुनौती दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने अयोग्यता कार्यवाही पर निर्णय लेने के लिए अध्यक्ष की शक्ति को तो बरकरार रखा, लेकिन यह निर्धारित किया कि अध्यक्ष द्वारा लिया गया निर्णय समीक्षा के अधीन होगा।

साल 2003 में संसद में संविधान (91वां संशोधन) अधिनियम पेश किया गया। इसके परिणामस्वरूप 10वीं अनुसूची के तहत पार्टी में विभाजन के मामलों में विधायकों को दी गई सुरक्षा के प्रावधान हटा दिए गए। प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली एक समिति ने पाया कि लाभ के पद का लालच दलबदल और राजनीतिक खरीद-फरोख्त को प्रोत्साहित करने में एक बड़ी भूमिका निभाता है। नए कानून में यह भी कहा गया है कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य ठहराए गए किसी भी व्यक्ति को केन्द्र या राज्य स्तर पर मंत्री पद से स्वचालित रूप से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।

हालांकि संशोधन दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने के इरादे से लाया गया था, लेकिन इसमें कुछ बड़ी कठिनाईयां थीं। ये कानून वो समय अवधि परिभाषित नहीं करता है, जिसके भीतर एक विधायक के खिलाफ अयोग्यता कार्यवाही का फैसला किया जाना चाहिए।

इस कानून के आधार पर सदन के अध्यक्ष की भूमिका अधिक से अधिक राजनीतिक हो रही है। विधानसभा अध्यक्षों द्वारा अयोग्यता का निर्णय या तो तुरंत किया गया या अनिश्चितकाल तक लंबित रखा गया था। यह इस बात पर निर्भर करता था कि दोनों में से कौन सा निर्णय उस राजनीतिक दल के अनुकूल था, जिससे अध्यक्ष महोदय पहले से जुड़े थे।

इसके अतिरिक्त, अयोग्यता कार्यवाही पर न्यायालयों का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होने के कारण, केवल अध्यक्ष के निर्णय के खिलाफ या अयोग्यता कार्यवाही का निर्णय लेने में उनकी निष्क्रियता पर न्यायिक उपाय की मांग की जा सकती है। इसने दसवीं अनुसूची के तहत कार्यवाही को काफी हद तक बेकार बना दिया।

यह विडंबना है कि चुहों (विधायकों) को जहाज से कूदने से हतोत्साहित नहीं किया गया है। लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में यह कहा है कि स्पीकर को उचित समय के भीतर उनके सामने लंबित अयोग्यता की कार्यवाही पर फैसला लेना चाहिए। सन् 2020 के कीशम मेघचंद्र सिंह बनाम अध्यक्ष मणिपुर मामले में न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन का निर्णय दलबदल विरोधी कानून के लिए महत्वपूर्ण है।

न्यायमूर्ति नरीमन ने अपने फैसले में दलबदल के मामलों से निपटने के लिए एक बाहरी तंत्र स्थापित करने की बात कही थी। हालांकि 10वीं अनुसूची को बिना दांत वाले शेर के अलावा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए गंभीर सुझावों को लागू करने के लिए संसद द्वारा अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया है। इसी कारण हम महाराष्ट्र में राजनीतिक घटना को असहाय होकर देख रहे हैं।