आज पूरी दुनिया सोशल मीडिया की गिरफ्त में है। किसी व्यक्ति की नींव का मूल्यांकन आभासी दुनिया में उसकी उपस्थिति के आधार पर किया जाता है। गूगल ‘खोज’ का पर्याय बन गया है। शायद यह आभासी दुनिया है जो किसी व्यक्ति या संस्था की विश्वसनीयता को समान रूप से तय करती है। सूचना और प्रौद्योगिकी के अद्वितीय विकास ने हमें मानव जीवन के अच्छे और बुरे दोनों ही जटिल विवरणों से अवगत कराया है। अक्सर आभासी दुनिया ही इस दुनिया में किसी व्यक्ति की विश्वसनीयता तय करने लगती है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भूलने के अधिकार को गोपनीयता के अधिकार के हिस्से के रूप में मान्यता दी। न्यायालय ने वैवाहिक मुकदमे में शामिल पक्षकारों के व्यक्तिगत विवरण को हटाने का एक तंत्र विकसित करने का आदेश दिया। पीठ महिलाओं की एक याचिका पर विचार कर रही थी। इसमें कहा गया था कि, उसकी व्यक्तिगत जानकारी को या तो हटा दिया जाना चाहिए या उसके मामले को फैसले से छुपाया जाना चाहिए। क्योंकि उक्त निर्णय जनता के लिए आसानी से सुलभ है। यह अधिकार आपकी उस जानकारी को प्राप्त करने का अधिकार देता है जो बड़े पैमाने पर लोगों के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है। इस विभिन्न स्रोतों जैसे ऑनलाइन इंजन, पुस्तकालयों, ब्लॉगों या किसी अन्य सार्वजनिक मंच से हटा दी जाती है, जब विवाद में व्यक्तिगत डेटा की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इस अधिकार को यूरोपीय संघ द्वारा सामान्य डेटा संरक्षण विनियमन के तहत वैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।
विभिन्न यूरोपीय संघ और अंग्रेजी अदालतों द्वारा भी इसे बरकरार रखा गया है। भूल जाने के अधिकार को विशिष्ट परिस्थितियों में निजी जानकारी को इंटरनेट से हटाने के अधिकार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह अधिकार व्यक्ति को अतीत की कार्रवाई के कारण कलंकित किए बिना, स्वायत्त तरीके से जीवन के पाठ्यक्रम को तय करने की अनुमति देता है। यह निजता के अधिकार का एक हिस्सा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पुट्टास्वामी मामले में अनुच्छेद 21 में निहित रूप से मान्यता दी थी। भूल जाने का अधिकार 2014 में यूरोपीय संघ के कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में गूगल स्पेम मामले में सुर्खियों में आया था। भारत में इस अधिकार को व्यक्तिगत जानकारी संरक्षण बिल 2019 के तहत भी मान्यता प्राप्त है। भारत में भूल जाने का अधिकार व्यक्तिगत जानकारी संरक्षण विधेयक 2019 द्वारा नियंत्रित किया जाता है। भूल जाने के अधिकार को अभी तक भारत में औपचारिक स्वीकृति नहीं मिली है।
हाल ही में 3 अगस्त को यह बिल वापस लेने का प्रस्ताव सरकार द्वारा दिया गया । इसके स्थान पर व्यक्तिगत जानकारी संरक्षण बिल 2021 को भेजा गया है। लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ, 2018 में फैसला सुनाया कि सुरक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2017 में एक ऐतिहासिक फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। सुरक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आंतरिक तत्व के रूप में और उसके भाग द्वारा गारंटीकृत अवसरों के एक हिस्से के रूप में बनाए रखा गया है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मीडिया हाउस के प्रबंध निदेशक के खिलाफ ‘मी टू’ के आरोपों पर कुछ समाचार रिपोर्टों को हटाने की मांग करने वाले एक दीवानी मुकदमे में कहा कि ‘भूलने का अधिकार’ और ‘अकेले छोड़ देने का अधिकार’ निजता के अधिकार के अंतर्निहित पहलू हैं और कोर्ट द्वारा इन समाचार रिपोर्टों के प्रकाशन को प्रतिबंधित किया गया। एक अन्य प्रकरण में न्यायालय ने खोज परिणामों से एक निर्णय को हटाने का निर्देश दिया। इस आदेश का अब गुगल द्वारा विरोध किया जा रहा है। सन् 2017 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी रजिस्ट्री को आदेश दिया कि कोई भी इंटरनेट सर्च इंजन 2015 में पारित एक आदेश में एक महिला का नाम नहीं दर्षाए। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने एक बलात्कार के आरोपी द्वारा फेसबुक पर अपलोड किए गए वीडियो से संबंधित अपने एक फैसले में राय दी कि, ऐसी आपत्तिजनक तस्वीरों और वीडियो को एक महिला की सहमति के बिना सोषल मीडिया प्लेटफार्म पर रहने देना, एक महिला के शील का सीधा अपमान है और इससे भी महत्वपूर्ण उसके ‘‘निजता का अधिकार‘‘ का अपमान है। हालांकि न्यायालय ने वीडियो को हटाने का आदेश पारित नहीं किया।
विशिष्ट परिस्थितियों में निजी जानकारी को इंटरनेट से हटाने का अधिकार व्यक्ति को अतीत की कार्रवाई के कारण कलंकित किए बिना स्वायत्त तरीके से जीवन के पाठ्यक्रम को तय करने की अनुमति देता है। यह निजता के अधिकार का एक हिस्सा है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने पुट्टास्वामी मामले में अनुच्छेद 21 में निहित अधिकार के रूप से मान्यता दी। जोरावर सिंह मुंडी बनाम भारत संघ (2021) प्रकरण में एक अमेरिकी नागरिक जोरावर सिंह मुंडी द्वारा अपने खिलाफ सबूतों के एक नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (एनडीपीएस एक्ट) में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलटने की मांग की। इसमें उसे सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया। उन्होंने दावा किया कि फैसले की इंटरनेट पहुंच उनकी प्रतिष्ठा पर एक धब्बा है। दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुसार, भूलने का अधिकार व्यक्तियों को निर्दिष्ट वेब रिकॉर्ड से अपने बारे में डेटा, रिकॉर्डिंग या छवियों को हटाने की अनुमति देता है ताकि वेब इंडेक्स उनका पता न लगा सकें। यह भी उल्लेख किया गया था कि यह स्वतंत्रता एक व्यक्ति को अपने जीवन में पहले की घटनाओं को चुप कराने की अनुमति देती है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भूल जाने के अधिकार को बरकरार रखा और यह भी स्वीकार किया कि यह पश्चिमी देशों में प्रथा के अनुरूप होगा जहां यह एक विनियमन है। नाजूक मामलों में, जैसे हमला या संबंधित व्यक्ति की विनम्रता और बदनामी को प्रभावित करना, भूल जाने के अधिकार को संरक्षित किया जाना चाहिए। मद्रास उच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि एक आरोपी व्यक्ति अपना नाम उन फैसलों या फरमानों से हटाने का हकदार है, विशेष रूप से जो सार्वजनिक डोमेन में दिखाई देते हैं और वेब सर्व टूल के माध्यम से सुलभ हैं। न्यायालय ने कहा कि जब तक डेटा संरक्षण अधिनियम को विधायी निकाय द्वारा अनुमोदित नहीं किया जाता है, तब तक लोगों की गोपनीयता और प्रतिष्ठा के अधिकारों की रक्षा करना न्यायालय की जिम्मेदारी है।
भारत में अदालतों ने भूल जाने के अधिकार के उपयोग को कई बार मान्यता दी है अथवा इससे इनकार किया है। इससे जुड़े कई पहलुओं को अनदेखा भी किया है।
‘भूल जाने के अधिकार’ को लागू करने के लिए एक बड़े संवैधानिक सशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 के तहत उचित प्रतिबंधों के लिए सुरक्षा को एक कारण के रूप में समिल्लित किया जाना होगा। सिस्टम के विकास की आवष्यकता है और भुला दिए जाने का विकल्प सीमित हो सकता है। संसद और सर्वोच्च न्यायालय को भूल जाने के अधिकार की गहन जांच करनी चाहिए। साथ ही निजता और भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतिस्पर्धी अधिकारों को संतुलित करने के लिए एक कानून प्रस्तुत करना होगा। डिजिटल युग में डेटा एक अनमोल संसाधन है जिसे अनियंत्रित नहीं छोड़ा जा सकता है। इसलिए भारत में आंकड़ों की एक मजबूत सुरक्षा व्यवस्था स्थापित करना ही होगी।