Law and justice: निष्कलंक जनप्रतिनिधि की गवाही ज्यादा विश्वसनीय

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इन दिनों पांचों राज्यों में दलबदल का ‘बसंती मौसम’ अपने उफान पर है। बगैर सिद्धांतों के सिर्फ पार्टी द्वारा विधानसभा के चुनाव का टिकट स्वयं अथवा परिवार के सदस्यों को न दिए जाने के कारण दल बदले जा रहे हैं। यह हमारे कथित जन प्रतिनिधियों की नैतिकता के पतन का प्रत्यक्ष उदाहरण है। ऐसे प्रतिनिधियों एवं पार्टियों पर निरंतर लोगों की आस्था कम हो रही है। इससे चुनाव में मत किसे देना है इसे लेकर लोगों में असमंजस की स्थिति निर्मित होती जा रही है।

लेकिन मतदान एक पवित्र कर्तव्य होने से लोग अधिक बुराइयों में से कम बुराई वाले प्रतिनिधि का मजबूरी में चुनाव कर रहे हैं। कहीं उम्मीदवार की व्यक्तिगत प्रभाव (इमेज) तो कहीं पार्टी को देखकर मतदान किया जाता है। इस संबंध में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 तथा 101, 102, 103 (नई धारा 43, 1966 अधिनियम) और 104 की धाराओं के प्रावधान महत्वपूर्ण होते है। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होती है कि यदि रिश्वत विषयक भ्रष्ट आचरण का आरोप किसी ऐसे निर्वाचित जनप्रतिनिधि पर लगाया जाता है, जो अपने स्वयं के बेहतर भविष्य के लिए बार-बार दल-बदल करता है अथवा अपने उद्देश्य के लिए धन का उपयोग कर सकता है, तो स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध सबूत की उतनी मात्रा में आवश्यकता नहीं होगी जितनी एक निष्कलंक जनप्रतिनिधि के लिए होगी।

यदि वास्तव में कोई सैद्धांतिक मतभेद है तो यह उस व्यक्ति का अधिकार है कि वह एक दल से दूसरे दल में जाए। लेकिन यदि वह अपने स्वयं के उज्जवल भविष्य के लिए ऐसा करता है तो उसे इसके परिणाम भुगतने होंगे। यदि दलबदल वाला व्यक्ति किसी न्यायालय में गवाही देता है तो उसके साक्ष्य की विवेचना करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाएगा कि वह राजनीतिक रूप से अवसरवादी है। ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध रिश्वत का आरोप लगाया जाता है तो, ऐसी स्थिति में उतने भार की आवश्यकता नहीं होती है, जितने भार की आवश्यकता उस स्थिति में होगी, जबकि ऐसा आरोप ऐसे किसी व्यक्ति के विरूद्ध लगाया जाता है, जिसका ‘आचरण’ अन्यथा कलंक रहित हो।

निर्वाचन में रिश्वत के संबंध में लगाए जाने वाले आरोप फौजदारी आरोपों के समान होते हैं। लेकिन स्वभावतः यह एक दीवानी विवाद है। इसलिए यदि किसी निर्वाचन मामले में निर्वाचित सदस्य अपने बचाव में पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करने में सफल नहीं होता है तो उसे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123 (1) के अंतर्गत दोषी माना जाएगा। यदि कोई निर्वाचित प्रतिनिधि अपने कुछ कार्यकर्ताओं को किसी अन्य उम्मीदवार के निर्वाचन संबंधी कार्य करने के लिए कहता है तो यह कार्य भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में नहीं माना जाएगा।

यदि कोई निर्वाचित सदस्य अपने निर्वाचन क्षेत्र में पहली बार जाता है और गांव के पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा मंदिर के निर्माण हेतु दान देने पर उसके पक्ष में मतदान का प्रस्ताव किया जाता है तथा प्रत्याशी द्वारा मंदिर को दान दिया जाता है तो, ऐसा कृत्य भ्रष्ट आचरण माना जाएगा। इसीलिए अभी हाल ही में अमित शाह द्वारा जब जाटों की खाप पंचायतों से मुलाकात की तो ताजा चुनावों को दृष्टिगत रखते हुए कोई प्रत्यक्ष आश्वासन नहीं दिए गए। मात्र उनकी मांग एवं सम्मान की रक्षा का वादा किया गया।

राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा एक मामले में विधानसभा चुनावों के दौरान एक उम्मीदवार के चुनाव को उसके भ्रष्ट आचरण तथा मतदाताओं पर अनुचित ढंग से प्रभाव डालने के कारण निरस्त घोषित किया गया था। इस निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की गई। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के विरूद्ध प्रस्तुत अपील को स्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह ठहराया कि किसी उम्मीदवार के खिलाफ भ्रष्ट आचरण तथा अनुचित दबाव डालने के आरोपों के समर्थन में ठोस भौतिक प्रमाण होना आवश्यक है।

इस प्रकरण में चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी हुए थे। भारतीय जनता पार्टी के पराजित उम्मीदवार ने इस चुनाव को अवैध घोषित करने के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष एक चुनाव याचिका प्रस्तुत की गई। पराजित उम्मीदवार द्वारा कहा गया कि विजयी कांग्रेसी उम्मीदवार ने चुनाव के दौरान एक पर्चा वितरित किया था, जिसमें कहा गया था कि विपक्षी (भाजपा) उम्मीदवार ने यह धमकी दी है कि यदि मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान नहीं किया तो काछी बस्ती के लोगों के मकानों पर हाऊस टैक्स लगाया जाएगा और उनके मकानों को बुलडोजर चलाकर जमींदोज कर दिया जाएगा। पर्चे के दूसरे हिस्से में कांग्रेस के सांसद की इस धमकी का जिक्र करते हुए मतदाताओं से कहा गया था कि वे पूरी तरह कांग्रेसी भेड़ियों के शिकंजे में फंस गए हैं और इस गिरफ्त से निकलने के लिए यह जरूरी है कि वे चुनाव में कांग्रेस को परास्त करें।

उच्च न्यायालय को इस चुनाव याचिका में यह तय करना था कि इस पर्चे में कही गई बात का संबंध याचिकाकर्ता के व्यक्तिगत चरित्र से है अथवा उसकी पार्टी के साथ। साथ ही उक्त पर्चे में लगाए गए आरोप सत्य है अथवा नहीं। न्यायालय को यह भी देखना था कि उनके पक्ष में कथन के अलावा ठोस प्रमाण भी है अथवा नहीं। उच्च न्यायालय ने यह पाया कि पर्चे में जिस धमकी का उल्लेख किया गया है वह जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण तथा मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव डालने की श्रेणी में आता है।

उच्च न्यायालय ने यह भी माना कि कांग्रेसी उम्मीदवार चूंकि मात्र 579 मतों से जीते है, इससे यह प्रतीत होता है कि पर्चे में उल्लेखित बातों के कारण पराजित उम्मीदवार की जीत के अवसर विपरीत रूप से प्रभावित हुए है। इसी तरह पर्चे में ‘इनके’ तथा ‘इन्होंने’ शब्दों का संबंध पराजित (याचिकाकर्ता) उम्मीदवार के व्यक्तिगत चरित्र से माना जाना चाहिए न कि पार्टी के साथ। न्यायालय ने कांग्रेसी उम्मीदवार के चुनाव को इसलिए भी अवैध ठहराया गया था कि उसके नेताओं ने यह असत्य दावा किया था कि यदि उसका उम्मीदवार हार गया तो काछी बस्ती के मकान गिरा दिए जाएंगे। यह धमकी भाजपा ने जिस सभा में दी गई थी, उस सभा के होने का कोई प्रमाण नहीं दिया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को पलटते हुए कहा कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 81 के अंतर्गत दायर की जाने वाली याचिका के बारे में इस अधिनियम की धारा 83 (1) के अंतर्गत यह स्पष्ट व्यवस्था दी गई है कि चुनाव याचिका के साथ उसके समर्थन में लगाए गए आरोपों से संबंधित भौतिक तथ्यों के विवरण दिए जाने चाहिए। इस विवरण में उम्मीदवार द्वारा दिए गए प्रत्येक भ्रष्ट आचरण के तारीखवार विवरण और प्रमाण संलग्न किए जाने चाहिए।

केवल याचिका में भ्रष्ट आचरण के बारे में कह देने मात्र से यह प्रमाणित नहीं माना जाएगा। साथ ही तथ्यों की पुष्टि की जिम्मेदारी न्यायालय पर नहीं डाली जा सकती है। उच्च न्यायालय के समक्ष सुनवाई के समय कांग्रेस की ओर से महत्वपूर्ण गवाहों का कुट-परीक्षण भी नहीं किया गया था। अतः न्यायालय को यह देखना चाहिए था कि मूल याचिकाकर्ता की दलील पर्याप्त नहीं थी और उसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि पर्चे में लिखी गई बातें सत्य है या नहीं।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह ठहराया कि किसी उम्मीदवार के राजनीतिक विचारों, आचरण या राय के बारे में झूठा प्रचार करने के बाद भी मतदाता अपनी स्वतंत्र राय गुण-दोष के आधार पर बना सकता है। अतः किसी पर्चे में किसी उम्मीदवार के बारे में ‘सियार की खाल में भेड़िया’ या इसका ‘असली चेहरा’ आदि शब्दों के प्रयोग से किसी की राय ही मानी जाएगी न कि तथ्यों का बयान। सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेसी उम्मीदवार की अपील को स्वीकार करते हुए उनके चुनाव को वैध माना।