हमवतनों की फिक्र में दुबले Shekhar Gupta

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शेखर गुप्ता (Shekhar Gupta) का एक लेख देश के सबसे बड़े अखबार दैनिक भास्कर में कल यानी 7 सितंबर 2021 को संपादकीय पृष्ठ पर बहुत फैलकर छपा है, जिसका शीर्षक है-“बीस करोड़ हमवतनों की अनदेखी न हो।’ उनका मानना है कि भारत की राष्ट्रीय राजनीति में मुस्लिमों की मौजूदगी अप्रासंगिक हो गई है। केल्कुलेटर पर बाकायदा गिनती करके उन्होंने बताया है कि सुप्रीम कोर्ट में नौ नए जजों में तीन महिलाएं, ओबीसी, दलित शामिल हैं। मगर एक भी मुस्लिम नहीं हैं। शीर्ष अदालत के 33 जजों में महज एक मुस्लिम हैं। उनका मानना यह भी है कि भाजपा ने मुसलमानों के साथ और मुसलमानों ने भाजपा के साथ अपने अलगाव को अपना लिया है, लेकिन वे धर्मनिरपेक्ष दलों पर निर्भर रहते हैं। शेखर के ये सुविचार भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह के उसी महावाक्य का अगला आलाप हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है।

एक स्वस्थ लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व और विश्लेषकों की ऐसी चिंता अपने समय के घटनाक्रमों, तथ्यों और आवश्यकताओं के अनुरूप प्रकट होती हैं। होनी भी चाहिए। मगर भारत में मुस्लिमों को लेकर ऐसी बेबुनियाद चिंताएं उसी दूषित एकपक्षीय सेक्युलर परिपाटी से उपजी हुई होती हैं, जिसकी बुनियाद बुरी तरह खिसक चुकी है और भारत के मतदाताओं ने जिसे पूरी तरह नकार दिया है। पुरानी आदतें अक्सर आसानी से नहीं छूटतीं। शेखर गुप्ता का यह पूरा आलेख उसी घिसी-पिटी लीक पर है। अगर भारत में मुसलमानों की हालत बहुत ही दयनीय होती और वे अपने अधिकारों को लेकर चीन के ऊइगुर मुसलमानों की दशा को प्राप्त होते तो अवश्य ही ऐसी चिंता भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों को ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए आवश्यक होतीं। बदकिस्मती से इसका उल्टा है।

आइए देखते हैं कि किन परिस्थितियों में शेखर गुप्ता (Shekhar Gupta) की महाचिंताएं तार्किक रूप से विचारणीय हो सकती थीं-

1. अगर मजहब के आधार पर मुल्क के बंटवारे के बावजूद भारत के प्रति अपने प्रेम के चलते 20 करोड़ हमवतन 75 सालों में घटकर दो करोड़ रह गए होते और लगातार घट ही रहे होते।

2. आजाद भारत ने किसी हिंदू विधि संहिता के तहत लगातार घट रहे हमवतनों को दूसरे दर्जे का नागरिक घोषित कर दिया होता और उनकी एक लाख बेटियों के हर साल अपहरण और धर्मांतरण के मामले सामने आ रहे होते।

3. महात्मा गांधी ने 1946 में कोलकाता में बंगाल के सारे बोस और घोष को इकट्ठा करके जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन जैसा कुछ किया होता जिसमें दसेक हजार हमवतन हिंसक हिंदुओं के एक ही हल्ले में साफ हो गए होते।

4. खिलाफत आंदोलन में सक्रिय मलाबार के शांतिप्रिय हमवतनों के दमन के लिए 1920 में मलयाली हिंदुओं ने एकजुट होकर कोई हिंसक कार्रवाई मसलन गांवों पर हमले, आगजनी और कत्ल इत्यादि किए होते।

5. अजमेर में गरीबनवाज की दरगाह की जियारत से लौट रहे बेकसूर जायरीन हमवतनों के ट्रेन के डिब्बे को गोधरा के पास कहीं इकट्‌ठा हुए भगवाधारियों ने जलाकर राख कर दिया होता।

6. झारखंड की विधानसभा में नमाज की जगह मांग रहे दीन के पक्के हमवतनों को पिछले सप्ताह किसी कट्‌टर भगवा भीड़ ने मार-मार कर अधमरा कर दिया होता।

7. प्रयागराज, हरिद्वार और मथुरा के पंडों ने हजारों की तादाद में कश्मीर पहुंचकर 1990 में पंडितों के साथ मिलकर मंदिरों से लाउड स्पीकरों से ऐलान करते हुए बेचारे पांच लाख बेकसूर हमवतनों के परिवारों को घाटी से भागने पर मजबूर कर दिया होता और सारे अब्दुल्ला, महबूबा, गिलानी अपने बीवी-बच्चों के साथ राहत शिविरों में तीस सालों से गुजारा कर रहे होते।

8. अपनी वाजिब मांगों को लेकर शाहीनबाग के निर्दोष हमवतन प्रदर्शनकारियों पर 2020 में गाेलियां बरसा दी गई होतीं।

9. सरकार ने 2014 के बाद अपनी नीतियों में ऐसा कोई पक्षपात दिखाया होता कि इनका लाभ हाशिए पर पड़े हमवतनों को हर्गिज न मिलने पाए और वे वंचित, निरक्षर, बेरोजगार, पिछड़े अपनी जान की खैर मना रहे होते या कोरोना काल में आटे-दाल के बदले उनसे घर वापसी कराई जा रही होती।

10. अब तक कोई हमवतन राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट, निर्वाचन आयोग, सूचना आयोग जैसे अहम पदों पर न पहुंचा होता। सिनेमा के परदे पर भी कोई हमवतन चमकने न दिया गया होता।

11. शिक्षा पद्धति में हिंदू धर्मशास्त्रों को पढ़ाया जाना अनिवार्य होता, भले ही वे ईसाई मिशनरियों के स्कूल हों या मदरसे और मजबूरी के मारे हमवतन गायत्री मंत्र गुनगुना रहे होते।

12. सब प्रकार के मजहबी पहनावों टोपी, बुरका, ऊंचा पाजामा, नीचा कुरता, दाढ़ी इत्यादि पर सख्त बंदिशों के साथ मस्जिदों, मदरसों, मजारों और कब्रस्तानों के विस्तार पर पाबंदी होती और फुल वॉल्यूम में बजने वाले सारे लाउड स्पीकर मीनारों से उतारकर हमवतनी मौलानाओं के घरों में इस सूचना को चस्पा करते हुए उल्टे लगा दिए गए होते कि जनाब इसे इतने ही जोर से आप ही सुनिए, यह आपके लिए ही है बाकी देश को बख्श दीजिए!

13. सबसे अव्वल तो यह कि पिछले हजार सालों में हिंदू राजे-रजबाड़ों ने अपने अमनपसंद हमवतनी बाशिंदों की इबादतगाहों को तोड़कर मंदिर खड़े किए हों और उनसे इस आधार पर दोहरा शुल्क वसूला गया हो कि वे दूसरे धर्म के हैं और हिंदुस्तान के धार्मिक सेटप में स्वीकार्य नहीं हैं। इसे मानें या मरें।

क्या ऐसा है? क्या इसका शून्य दशमलव शून्य शून्य शून्य एक प्रतिशत भी सच है? बटवारे के आरपार देखिए तो सरहद के इस और उस पार के नंगे सच सबके सामने उघाड़े आंकड़ों में हैं। यदि अाजादी के बाद भारतीय सामाजिक विकास क्रम में कोई भी हमवतन समुदाय पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों की हद तक दमित, पिछड़ा या उपेक्षित होता तो शेखर गुप्ता जैसे चैतन्य बुद्धिमान विश्लेषकों के एेसे विश्लेषण तर्कसंगत आैर समाधानकारक होते। यदि ऐसा नहीं है तो ये विश्लेषण क्या सिद्ध कर रहे हैं? और यदि ऐसा नहीं है बल्कि इसका उलट परिदृश्य है तो इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं, जिनके रक्तबीज में ही किसी दूसरे की उपेक्षा, दमन, असहिष्णुता, असम्मान और विस्तारवादी हिंसा और क्रूरता नहीं हैं। शेखर गुप्ता (Shekhar Gupta) को अपनी पैनी बुद्धि सही जगह खर्च करनी चाहिए।