झूठ बोले कौआ काटे! लंबित मामले साढ़े 4 करोड़, निपटाने चाहिए 375 साल!
नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) के अनुसार 31 अक्तूबर 2023 तक भारत के जिला एवं तहसील अदालतों में दीवानी और फौजदारी मामलों के कुल 4,45,37,158 (कुल चार करोड़ पैंतालिस लाख सैंतिस हजार एक सौ अट्ठावन) वाद लंबित थे। जबकि, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने 2019 में कहा था कि “अनुमान है कि यदि कोई नया मामला दायर नहीं किया गया, तो सभी लंबित मामलों को निपटाने में लगभग 360 साल लगेंगे”। यह तब की बात है जब कुल लंबित मामलों की संख्या लगभग 3.3 करोड़ थी। इस हिसाब से आज की स्थिति में लंबित मामलों के निपटारे में 375 साल लगें तो आश्चर्य नहीं।
एनजेडीजी के अनुसार जिला एवं तहसील अदालतो में दीवानी के 1,10,81,988 (एक करोड़ दस लाख इक्यासी हजार नौ सौ अट्ठासी) जबकि फौजदारी के 3,34,55,170 (तीन करोड़ चौतीस लाख पछपन हजार एक सौ सत्तर) वाद लंबित हैं। दीवानी के लगभग 58 प्रतिशत से ज्यादा वाद एक वर्ष से पुराने है तथा फौजदारी के लगभग 61 प्रतिशत से ज्यादा वाद एक वर्ष से लंबित हैं। यह संख्या भी लंबित वादों की सही संख्या नहीं मानी जा सकती हैं, क्योंकि इनमें राजस्व न्यायालयों, विभिन्न ट्रिब्यूनल्स एवं विभिन्न फोरम के वादों की संख्या सम्मिलित नहीं हैं।
यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में करीब 60,000 मामले लंबित हैं, जबकि विभिन्न उच्च न्यायालयों में लगभग 42 लाख मामले लंबित हैं। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने भी पिछले दिनों राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में कहा कि 5.02 करोड़ से अधिक मामले विभिन्न अदालतों – उच्चतम न्यायालय, 25 उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं। अनुमान है कि हर साल कम से कम पांच करोड़ मामले दायर होते हैं और न्यायाधीश केवल दो करोड़ का ही निपटारा करते हैं।
झूठ बोले कौआ काटेः
विभिन्न न्यायालयों में लंबित वादों की समस्या एक ज्वलंत मुद्दा है। भारत में बढ़ती जनसंख्या के साथ ही न्यायालयों में मुकदमों का बोझ भी बढ़ता चला गया, इसी प्रकार विभिन्न विशेष अधिनियमों के आने से फौजदारी वादों की संख्या भी बढ़ती चली गयी। आंकड़े भी बताते हैं कि फौजदारी वादों की संख्या दीवानी वादों की तीन गुना है। इसमें यदि सही तरीके से परीक्षण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि 50 प्रतिशत से ज्यादा वाद ऐसे अधिनियम के है जो लघु दण्ड के हैं। फौजदारी वादों में लगभग 90 प्रतिशत वारंट या समन आपराधिक वाद हैं और लगभग 8 प्रतिशत सत्र न्यायालय द्वारा परीक्षणीय वाद हैं।
वाद लंबन का मुख्य कारण जनता में बढ़ती हुई जागरुकता और मुकदमेबाज होने की प्रवृत्ति भी है। जैसे ही सरकार ने ‘सूचना का अधिकार’ और ‘शिक्षा का अधिकार’ जैसे नए अधिकारों के लिए कानून बनाया, पीड़ित पक्ष तेजी से न्याय के दरवाजे खटखटाने लगे। यही नहीं, न्यायपालिका ने जनहित याचिका जैसे नए उपकरणों का भी आविष्कार किया, जिसके परिणामस्वरूप और अधिक मामले सामने आए। ऐसे वादकारियों की भी कमी नहीं है जो यह जानते हुए कि उनका पक्ष सही नहीं है, फिर भी प्रकरण को मात्र उलझाने के उद्देश्य से न्यायालय में, दीवानी या फौजदारी वाद कर देते हैं। फौजदारी वादों का दुरुपयोग इसमें सबसे ज्यादा होता है।
सरकार की तरफ से या सरकार के द्वारा समय से प्रभावी निर्णय न लेने के कारण उनके विरूद्ध भी, वाद योजित होते है। यह एक ऐसा बिन्दु है जिसके सम्बन्ध में केन्द्र एवं राज्य सरकारों को निश्चित रुप से मंथन करना चाहिए।
दीवानी न्यायालयों में, जहां दीवानी एवं फौजदारी वादों की सुनवाई होती है, प्रथमतया तो पर्याप्त अवसर ही नहीं है और है भी तो इन्फ्रास्ट्रक्चर समुचित नहीं है। बहुत से जिला मुख्यालयों पर तो न्यायिक भवन आज भी नहीं है। ऐसी स्थिति में न्यायिक अधिकारी जिस अवस्था में बैठकर कार्य करते हैं उनसे किसी अतिरिक्त कार्य की अपेक्षा करना अनुचित है। सबसे पहले केन्द्र एवं राज्य सरकार को इस बिन्दु पर ध्यान देना चाहिए की जितने न्यायालय स्वीकृत हैं प्रत्येक जिले में उतने समुचित न्याय कक्ष भी हों।
इसके अतिरिक्त न्यायालयों में पर्याप्त कर्मचारी भी नहीं हैं। आधे से ज्यादा अधिकारियों के पास स्टेनो तक नहीं है। संभव है कि प्रत्येक प्रदेश की यह स्थिति न हो लेकिन देश के ज्यादातर प्रदेशों में यही स्थिति है। इसी प्रकार दीवानी न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी भी उल्लेखनीय है। न्यायालयों का गठन हो जाता है उसके बाद भी उनमें अधिकारियों की नियुक्ति नहीं हो पाती है और अगर होती भी है तो पहले से ही किसी अन्य स्थान पर कार्यरत अधिकारी को नए न्यायालय में तैनात कर दिया जाता है। अव्वल तो नये न्यायालय सृजित करते समय नये पद भी पीठासीन अधिकारी के सृजित नहीं होते हैं और यदि अधिकारी के पद कदाचित सृजित भी हो गए तो स्टाफ के पद सृजित नहीं किये जाते।
समय-समय पर वादों की लंबित संख्या को देखते हुए नये-नये ट्रिब्यूनल एवं फोरम का गठन कर दिया गया लेकिन अगर देखा जाए तो उससे भी परिस्थितियों में कोई अन्तर नहीं आया। फोरम एवं ट्रिब्यूनल में सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों को और उनके साथ मेम्बर्स को तैनात किया जाता है, जबकि वही अधिकारी सेवा में है तो वहीं रहते हुए वह उस कार्य को क्यों नहीं कर सकता है? सेवा निवृत्त अधिकारियों को पुनः नियोजित कर अगर उनसे कार्य लिया जा सकता है तो न्यायिक अधिकारियों का सेवाकाल ही क्यों नहीं बढाया जा सकता है?
न्यायालय में जो कार्य होता है उसी प्रकार से फोरम एवं ट्रिब्यूनल में भी वादों का निस्तारण किया जाता है लेकिन उनके निष्पादन की अलग समस्याएं होती हैं। यहां, यह भी उल्लेखनीय है कि आर्थिक रुप से देखा जाए तो वर्तमान में जितने फोरम एवं ट्रिब्यूनल कार्यरत हैं और उसमें अधिकारी/कर्मचारी एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जो खर्च किया जा रहा है, उसके एक बहुत छोटे हिस्से से दीवानी न्यायालयों में समस्त सुविधाओं के साथ अतिरिक्त पद सृजित करके वाद का प्रभावी निस्तारण कराया जा सकता है। सेवारत अधिकारी की जिम्मेदारी होती है और जिस गंभीरता से वह कार्य करता है वह निश्चित रुप से सराहनीय है परन्तु सेवानिवृत्त होने के उपरान्त ज्यादातर अधिकारियों में वह प्रतिबद्धता नहीं रह जाती है।
यही नहीं, फोरम तथा ट्रिब्यूनल में अधिकारी नियुक्ति भी हमेशा से विवाद का एक मुद्दा रहा है। कारण कि उसमें उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के साथ राज्य एवं केन्द्र सरकार का भी हस्ताक्षेप रहता है। एक बार यदि फोरम या ट्रिब्यूनल में कोई अधिकारी का पद खाली हो जाता है तो महीनों या कई-कई बार कई-कई सालों तक उसमें अधिकारी की तैनाती नहीं हो पाती है। ऐसी व्यस्था से क्या लाभ? वाद तो वाद है, वह चाहे दीवानी में हो या फोरम में हो या ट्रिब्यूनल में हो उनका निस्तारण होना ही चाहिए।
कदाचित किन्हीं परिस्थितियों में दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार को सीमित करते हुए कई प्रकार के वादों को फोरम एवं ट्रिब्यूनल को दे दिया गया लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। कुछ ट्रिब्यूनल में टेक्निकल मेंबर्स भी होते हैं, अतः यह तर्क दिया जा सकता है कि वादों के प्रभावी निस्तारण के लिए टेक्निकल मेंबर्स की आवश्यकता है।
अब जरा इस तथ्य पर भी गौर करें। ट्रिब्यूनल एवं फोरम के निर्णय भी उच्च न्यायालय जाते है जहां दीवानी न्यायालय से आये न्यायाधीश या अधिवक्ता वर्ग से आये माननीय न्यायमूर्ति होते हैं, लेकिन उनकी सहायता के लिए टेक्निकल मेंबर्स नही होते। तो, टेक्निकल एडवाइजर के रुप में कार्य करने वालों का एक अलग से समूह न्यायालयों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता है, जो समय-समय पर आवश्यकतानुसार न्यायालय का शंका-समाधान करें। मेरी दृष्टि में यथा सम्भव, समस्त, ट्रिब्यूनल एवं फोरम को समाप्त कर सभी क्षेत्राधिकार दीवानी न्यायालय में निहित कर देना चाहिए और दीवानी न्यायालय प्रणाली को और मजबूत किया जाना चाहिए।
एक तरफ, लंबित वादों की संख्या चिंता का विषय है। इसके बावजूद लगभग सभी प्रदेशों में हायर ज्यूडिशियल सर्विस की परीक्षा उच्च न्यायालय द्वारा संपादित करायी जाती है। इसके अतिरिक्त बहुत से उच्च न्यायालयों द्वारा पी.सी.एस.(जे.) स्तर के न्यायाधीशों की भर्ती की कार्यवाही भी की जाती है। यह अत्यन्त विचित्र परिस्थिति है। केन्द्र में यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन एवं राज्यों में राज्य पब्लिक सर्विस कमीशन बने हैं, फिर यह परीक्षाएं सर्विस कमीशन के माध्यम से क्यों नहीं करायी जाती हैं।
वह न्यायाधीश जिनका कार्य मुकदमों को निपटाना है, उनमें से एक अच्छा प्रतिशत पूरा समय इन्हीं परीक्षाओं को आयोजित कराने के कार्यक्रम में लगा रहता है। न्यायाधीश के लिए जो कार्य बना है उन्हें वही कार्य करने दें तो उचित होगा। इसके अतिरिक्त बहुत से प्रदेशों में न्यायालयों के तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भर्ती का कार्य भी उच्च न्यायालय द्वारा किया जा रहा है, जबकि इसके लिए अलग से आयोग प्रदेशों में बने हुए हैं।
ऐसे समय में जब न्यायाधीशों की संख्या कम है, न्यायालयों, खासकर उच्च न्यायालयों में छुट्टियों की सीमा घटाने और ड्यूटी का समय बढ़ाने पर भी गौर किया जाना चाहिए। भारत के 49वें मुख्य न्यायाधीश जस्टिस यू यू ललित तो दो साल पहले बतौर न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट सुबह साढ़े नौ बजे ही कोर्ट आ धमके और एक सुनवाई के दौरान कहा कि जब हमारे बच्चे सुबह सात बजे स्कूल जा सकते हैं तो हम लोग नौ बजे कोर्ट क्यों नहीं आ सकते?
पुराने कानून, कानूनों का दोषपूर्ण या अस्पष्ट मसौदा तैयार करना और विभिन्न अदालतों द्वारा उनकी कई व्याख्याएं भी लंबे समय तक मुकदमेबाजी का कारण हैं।
अनेक बार, अधिवक्तागण का असहयोग एवं समय-समय पर होने वाली हड़ताल भी मामले लंबित करने में सहायक है। अधिवक्ता गण द्वारा जिलों में जो हड़ताल की जाती है वह बार कौंसिल की अनुमति के बिना नहीं होनी चाहिए और यदि बिना बार कौंसिल की अनुमति के हड़ताल की जाती है तो ऐसी स्थिति में बार कौंसिल को निर्धारित प्रावधानों के अन्तर्गत कार्रवाई करनी चाहिए। बार कौंसिल को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए की यदि तीन या पांच से ज्यादा हड़ताल किसी भी जिले की बार एसोसिएशन के द्वारा बार कौंसिल की पूर्व अनुमति के बिना की जाती है तो उस अवस्था में राज्य की बार कौंसिल उस बार एसोसिएशन का पंजीयन निरस्त करके उसकी मान्यता समाप्त कर दे।
लंबित मामलों में इतनी उल्लेखनीय वृद्धि के पीछे एक कारण न्याय वितरण प्रणाली की नई चुनौतियों के अनुकूल ढ़लने और तेजी से डिजिटल प्रारूप और ई-कोर्ट प्रणाली की ओर स्थानांतरित होने में असमर्थता है। हालांकि, कोई भी समस्या ऐसी नहीं होती है जिसका कोई हल न हो। आवश्यकता तो सिर्फ प्रतिबद्धता और इच्छाशक्ति की है, तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी और न्यायालयों में लंबित मामलों की समस्या जड़ से समाप्त हो जाएगी।
और ये भी गजबः
तारीख़ पे तारीख़, तारीख़ पे तारीख़…जज साहब। बॉलीवुड फ़िल्म दामिनी (Damini) में सनी देऑल का ये डायलॉग तो आप सभी को याद ही होगा। दो साल पहले की मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, एक ऐसा मामला भी हुआ जो 219 साल से पेंडिंग था। अभी क्या स्थिति है नहीं मालूम, लेकिन यह लचर न्यायिक प्रणाली की एक बानगी है। कलकत्ता हाई कोर्ट भारत का पहला हाई कोर्ट था, जिसकी स्थापना 1862 में हुई थी। 1 जुलाई 1862 में जब इसकी स्थापना हुई, तब इसे फोर्ट विलियम हाई कोर्ट के नाम जाना जाता था। सर बैरन्स पिकॉक इसके पहले चीफ जस्टिस थे। इसी हाई कोर्ट में रजिस्टर्ड “केस नंबर AST/1/1800” भारत का सबसे पुराना केस माना जाता है, जिसे पहली बार 1800 में निचली अदालत में दर्ज किया गया था। इस मामले की फाइलें करीब 170 साल तक निचली अदालत में लंबित थीं। बाद में इसे शीघ्र निपटान के लिए 1.1.1970 को कोलकाता उच्च न्यायालय में पंजीकृत किया गया था, लेकिन उच्च न्यायालय में भी, यह कछुए की चाल चलता रहा।