झूठ बोले कौआ काटे! विशेषाधिकार का कवच और माननीयों की फिसलती जीभ

झूठ बोले कौआ काटे! विशेषाधिकार का कवच और माननीयों की फिसलती जीभ

जाति जनगणना पर बहस के दौरान बिहार विधानमंडल के दोनों सदनों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए लड़कियों की शिक्षा की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए गर्भधारण से बचने का जो शब्दचित्र खींचा, वह अत्यंत शर्मनाक था। भले ही उन्होंने अब माफी मांग ली है, पर एक बार फिर यह बहस छिड़ गई है कि विशेषाधिकार की आड़ में माननीय गण कानून से कब तक बचते रहेंगे।

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बिहार विधान मंडल के दोनों सदनों में बारी-बारी से जातिगत गणना के दौरान हुए आर्थिक सर्वेक्षण पर अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार महिला पुरूष के शारीरिक संबंधों और गर्भ से बचने का रोचक अंदाज में बयान कर रहे थे। इस पर सदन में खूब ठहाके लगे, उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी हंसते हुए दिखे। इस दौरान सीएम नीतीश कुमार ने विधानसभा में कवरेज के लिए उपस्थित पत्रकारों को भी संबोधित करते हुए कहा कि वो उनके भाषण पर ध्यान दें।

नीतीश कुमार के उद्बोधन पर सियासी बवाल होना ही था। भाजपा ने इस मुद्दे को बिहार में तो लपका ही, पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में भी इंडी गठबंधन के विरूद्ध इस्तेमाल कर लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार का नाम लिए बगैर उन पर प्रहार किया और कहा कि विपक्षी गठबंधन के एक बड़े नेता ने राज्य विधानसभा में महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता…उन्हें इसके लिए शर्म तक महसूस नहीं हुई। महिलाओं के प्रति इतने अनादर के बावजूद विपक्षी समूह के घटकों ने एक शब्द भी नहीं बोला।

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अफ्रीकी-अमेरिकी अभिनेत्री और गायिका मैरी मिलबेन ने एक्स पर पोस्ट करते हुए लिखा, ‘नीतीश कुमार जी के कमेंट्स के बाद, मेरा मानना है कि एक साहसी महिला को आगे आकर बिहार के मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करनी चाहिए। अगर मैं भारत की नागरिक होती, तो मैं बिहार जाती और मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव लड़ती। भाजपा को एक महिला को बिहार में नेतृत्व करने के लिए सशक्त बनाना चाहिए। यह महिला सशक्तिकरण और प्रतिक्रिया में विकास की सच्ची भावना होगी। या, जैसा शाहरुख ने जवान में चेतावनी दी थी, ‘वोट’ करें और बदलाव लाएं।’

नीतीश कुमार का बचाव करते हुए बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने कहा कि मुख्यमंत्री की टिप्पणी का गलत मतलब निकालना गलत है क्योंकि वह यौन शिक्षा के बारे में बोल रहे थे। वहीं बिहार की पूर्व सीएम राबड़ी देवी ने कहा कि सीएम नीतीश के मुंह से गलती से ऐसा निकल गया, जिसके बाद उन्होंने अपने बयान पर माफी मांग ली है।
झूठ बोले कौआ काटेः

क्या सांसद-विधायक सदन के अंदर कुछ भी कहें, कुछ भी करें, उन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती? मीडिया खबरों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने संसद या विधानसभाओं में अपमानजनक बयानबाजी को अपराध मानने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 अक्तूबर, 2023 को कहा है कि सदन के अंदर राजनीतिक विरोधियों के लिए अपमानजनक बयान देना अपराध नहीं है।

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झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक सीता सोरेन के खिलाफ ‘वोट के बदले रिश्वत’ के आरोप से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की। दरअसल, सीता सोरेन पर 2012 में राज्यसभा चुनाव के लिए वोट देने के बदले रिश्वत लेने का आरोप है। सीता सोरेन ने अपने बचाव में तर्क दिया कि उन्हें सदन में ‘कुछ भी कहने या वोट देने’ के लिए संविधान के अनुच्छेद 194(2) के तहत छूट हासिल है।

न्यायाधीशों की 7 सदस्यीय बेंच ने सदन के अंदर कुछ भी बोलने को कानूनी कार्रवाई से ‘पूरी छूट’ देने के प्रस्ताव से असहमति जताई। लेकिन आगे मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने ये भी कहा, “अगर जिस काम को करने का इरादा है वो एक गैरकानूनी काम है तो ये एक आपराधिक साजिश है। लेकिन, यहां सदन के पटल पर एक कथित मानहानि वाला बयान देने का काम गैरकानूनी नहीं है। और, इसे अभियोजन से संवैधानिक छूट है। और, अगर किसी अपराध की सामग्री, उस भाषण में है जिसे कानूनी छूट है, तो इस पर कोई सजा वाला क़ानून लागू नहीं किया जा सकता।” मुख्य न्यायाधीश ने ये भी कहा कि सदन ऐसे भाषणों के मामले खुद देखने में सक्षम है।

सच यही है कि ऐसे मामलों में देश के सभी सांसदों-विधायकों को कानूनी संरक्षण प्राप्त हैं। संसद या विधान सभा में उनके किसी भी कृत्य पर सजा देने का काम केवल पीठासीन अधिकारी ही कर सकते हैं क्योंकि सामान्य भारतीय कानून सदन के अंदर लागू नहीं होता है। शायद यही कारण है कि सदन में आते ही माननीय कुछ भी बोल जाते हैं।

2021 में कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस विधायक के.आर. रमेश कुमार की टिप्पणी “जब बलात्कार अपरिहार्य है, तो इसका आनंद लें” को लोग भूले नहीं होंगे, भले ही संदर्भ कुछ भी हो। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने तब ट्वीट करके विधायक की टिप्पणी को ”अक्षम्य” बताया था। हालांकि, तब उत्तर प्रदेश चुनाव में ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा जोरों पर था।

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अभी दो महीना पहले लोकसभा के विशेष सत्र में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी की बसपा सांसद पर अपशब्दों की बौछार के मामले ने भी काफी तूल पकड़ा था। हालांकि, लोकसभा अध्यक्ष ने उनके इस अमर्यादित बयान को सदन कि कार्यवाही से हटाने का निर्देश दिया।
दिसंबर, 2022 में झारखंड के सांसद निशिकांत दुबे ने लोकसभा में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ विवादित टिप्पणी की। उसके एक दिन बाद ही झारखंड विधानसभा में बदले की भावना के तहत निशिकांत दुबे के खिलाफ भी अमर्यादित बयानबाजी की गई।
इसी साल राहुल गांधी को भी विशेषाधिकार हनन का नोटिस मिला था। आरोप है कि राहुल ने सात फरवरी, 2023 को सदन में उद्योगपति गौतम अडानी के मुद्दे पर केंद्र सरकार पर हमला करते समय आपत्तिजनक भाषण दिया था, जिसे सदन की कार्यवाही से हटा दिया गया था। इस मामले में क्या कार्रवाई हुई अभी स्पष्ट नहीं है। इसी साल ही अगस्त में आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह और राघव चड्ढा को सदन से निलंबित किया गया। दोनों ही नेताओं पर अमर्यादित व्यवहार करने का आरोप लगे थे। 10 दिसंबर, 2014

को डिप्टी स्पीकर थंबीदुरई ने लोकसभा में आपत्तिजनक टिप्पणी की, स्पीकर सुमित्रा महाजन ने उन्हें ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ माना। उन्होंने श्रीलंकाई सरकार के नेतृत्व के खिलाफ कुछ टिप्पणियां कीं, इस तथ्य के बावजूद कि सांसदों को अन्य देशों के प्रमुखों के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां करने की अनुमति नहीं है।

और ये भी गजबः
भारतीय संसद के निचले सदन (निचले सदन) ने 29 अगस्त,1961 को सदन के कटघरे में एक पत्रकार को फटकार लगाकर इतिहास रचा और इस संदर्भ में पहली बार भारतीय संसद के उच्च न्यायालय की तरह व्यवहार किया। तब, ब्लिट्ज़ के संपादक आरके करंजिया को लोकसभा के विशेषाधिकार के घोर उल्लंघन का दोषी ठहराया गया था। ब्लिट्ज़ ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें वरिष्ठ नेता जेबी कृपलानी की आलोचना की गई थी। उन्हें लोकसभा के कटघरे में बुलाया गया और फटकार लगाई गई, जबकि उनके संवाददाता आरके राघवन का लोकसभा गैलरी पास रद्द कर दिया गया।

अब समय आ गया है कि संसदीय और विधायी विशेषाधिकार, जो ब्लिट्ज़ मामले के समय से बहस का केंद्र रहा है, को सटीक और कानूनी रूप से परिभाषित किया जाए। हालांकि, यह विचारणीय विषय है कि क्या संपादक को फटकार प्राप्त करने के लिए सदन के कटघरे में बुलाने की असाधारण प्रक्रिया उचित थी या आवश्यक थी। ऐसा होता आया है कि आजादी के बाद से विशेषाधिकार हनन के अधिकांश मामलों में प्रेस एक पक्ष रहा है। इन मामलों से निपटने में, विशेषाधिकार समितियों के सदस्य के रूप में बैठे सांसद-विधायक, आम तौर पर स्वयं को समुदाय के बाकी हिस्सों से अलग एक वर्ग मानते हैं, जो अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों के प्रति अत्यधिक जागरूक हैं, जिनमें से एक संभवतः प्रेस की आलोचना से प्रतिरक्षा है। वे व्यक्ति जो जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और जिनसे जनता के संरक्षक होने की अपेक्षा की जाती है।

कानून द्वारा संसदीय विशेषाधिकारों को परिभाषित करने में एक महत्वपूर्ण लाभ यह होगा कि जहां पीड़ित पक्ष को लगता है कि उसे केवल तकनीकी अपराध के लिए अनुचित रूप से दंडित किया जा रहा है या उसके मौलिक अधिकार, या समाचार पत्रों के मामले में, प्रेस की स्वतंत्रता का विधायिका द्वारा उल्लंघन किए जाने पर, वह अदालत में अपील कर सकता है।

इस संबंध में सवाल पूछा जाता है कि जब ब्लिट्ज संपादक को फटकार मिल रही थी तो कम्युनिस्ट पार्टी ने संसद में जो वाकआउट किया, क्या वह संसद की अवमानना नहीं है? आम तौर पर, अध्यक्ष के फैसलों से असहमति सहित विभिन्न कारणों से विभिन्न दलों और समूहों द्वारा बार-बार बहिर्गमन नहीं किया जाता है। क्या इन्हें विशेषाधिकार का उल्लंघन और अवमानना नहीं माना जा सकता?