झूठ बोले कौआ काटे! श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

झूठ बोले कौआ काटे! श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

काशी-विश्वनाथ मंदिर परिसर में ज्ञानवापी ढांचे की असलियत पर जहां सर्वोच्च न्यायालय और वाराणसी जिला अदालत में सुनवाई जारी है, वहीं दिन-प्रतिदिन हजारों की संख्या में काशी-विश्वनाथ मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं के गले से नीचे यह बात नहीं उतरती कि विशाल नंदी ज्ञानवापी ढांचे की तरफ मुंह करके सदियों से क्यों विराजे हुए हैं? उन्हें लगता है कि पिछले साल 2022, 16 मई को सर्वे में वजूखाने में शिवलिंग मिलने के बाद ज्ञानवापी का सच उजागर हो चुका है।

ज्ञानवापी मामले से जुड़े हिंदू पक्षकारों ने नंदी की मूर्ति को तो सबसे बड़ा गवाह बनाया ही है, काशी विश्वनाथ मंदिर पहुंचने वाले श्रद्धालुओं का भी पौराणिक संदर्भों की तरह मानना है कि नंदी का चेहरा हमेशा शिवलिंग की ओर होता है। इस्लामिक-राज में मूल मंदिर का ध्वंस करके उसी मलबे से मस्जिद का रूप दिया गया, और तब से मुसलमान यहां नमाज अदा कर रहे हैं। जबकि, सदियों से नंदी उस दरवाजे को देख रहे हैं, जो उसके स्वामी के अधीन है, जिनके विधिवत् प्रकट होने का इंतजार है।

श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

तो, ये नंदी की क्या कहानी! शिवपुराण की कथा के अनुसार पुरातन काल में एक थे शिलाद मुनि। वे ब्रह्मचारी हो गए और उन्हें इस बात की चिंता थी कि कहीं वंश का अंत न हो जाए। शिलाद मुनि ने इंद्रदेव से संतान की कामना की और जन्म-मृत्यु से परे पुत्र का आशीर्वाद मांगा। लेकिन इंद्र ने यह आशीर्वाद देने में असमर्थता दिखाई और उनसे भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। शिलाद मुनि की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने स्वयं को शिलाद के पुत्र के रूप में प्रकट होने का आशीर्वाद दिया और नंदी के रूप में प्रकट हुए।

पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवताओं और राक्षसों के बीच समुद्र मंथन हुआ, तो भगवान शिव ने हलाहल पीकर विश्व को बचाया, विष की कुछ बूंदें जमीन पर भी गिरीं, जिसे नंदी ने अपनी जीभ से चाट लिया। नंदी के इस समर्पण भाव को देखकर भगवान शिव ने उन्हें अपने सबसे बड़े भक्त की उपाधि दी और आशीर्वाद दिया कि लोग नंदी को उनके दर्शन से पहले देख सकेंगे। भोलेनाथ के दर्शन करने से पहले नंदी के कान में अपनी इच्छा कहने की परंपरा है। हर शिव मंदिर में शिव के सामने नंदी की स्थापना की जाती है।

कहा जाता है कि अप्रैल 1669 में औरंगजेब के फरमान के बाद मुगल सेना ने आदि विश्वेश्वर का मंदिर ध्वस्त करने के साथ ही मंदिर के बाहर स्थपित विशाल नंदी की प्रतिमा को भी तोड़ने का प्रयास किया था लेकिन सफल नहीं हो पाए। यह प्रतिमा आज भी ज्ञानवापी ढांचे (मूल काशी विश्वनाथ मंदिर) की तरफ है। मुगल हमले के बाद पुजारियों ने ज्ञानवापी परिसर के बगल में दोबारा शिवलिंग की स्थापना कर पूजा पाठ शुरू किया। यहीं, वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई ने 1780 में कराया था।

श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

कानूनी विवाद में फंस कर ज्ञानवापी कूप और नंदी वर्तमान काशी-विश्वनाथ मंदिर प्रांगण से बाहर हो गए थे। मार्च 2021 में 352 साल बाद इतिहास पुनर्स्थापित हुआ और पौराणिक ज्ञानवापी कूप तथा विशाल नंदी वर्तमान मंदिर परिसर का हिस्सा बन गए। बता दें कि ज्ञानवापी परिसर में कराए गए सर्वे के दौरान वजूखाने से शिवलिंग निकला था, जिसे मस्जिद पक्ष फव्वारा बताता है।

काशी-विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी ढांचे का मामला 1936 मे कोर्ट भी पहुंचा था। तब मुस्लिम पक्ष ने पूरे परिसर को मस्जिद करार करने की अपील भी की थी। बताया जाता है कि 1937 मे वाराणसी ज़िला अदालत ने मुस्लिम पक्ष की अपील को खारिज करते हुए कहा था कि ज्ञानवापी कूप के उत्तर मे ही भगवान विश्वनाथ का मंदिर है क्योंकि कोई दूसरा ज्ञानवापी कूप बनारस में नहीं है। जज ने ये भी लिखा कि एक ही विश्वनाथ मंदिर है जो ज्ञानवापी परिसर के अंदर है।

इतिहासकार अनंत सदाशिव अलतेकर की 1937 मे प्रकाशित ‘History Of Banaras’ पुस्तक में भी कहा गया है कि मस्जिद के चबूतरे पर स्थित खंबों और नक्काशी को देखने से प्रतीत होता है कि ये 14वी-15वी शताब्दी के हैं। विश्वनाथ मंदिर, बार-बार गिराए जाने का उल्लेख, विद्वान नारायण भट्ट ने अपनी किताब ‘त्रिस्थली सेतु’ मे भी किया है। ये किताब संस्कृत मे 1585 मे लिखी गई थी। वहीं इतिहासकार डा. मोतीचंद ने अपनी किताब ‘काशी का इतिहास’ मे लिखा है कि मंदिर केवल गिराया ही नहीं गया उस पर ज्ञानवापी की मस्जिद भी उठा दी गई। इसमें अब भी पुराने खंभे लगे हैं।

झूठ बोले कौआ काटेः

दिलचस्प है कि ब्रिटिश वास्तुकार, योजनाकार और मानचित्रकार जेम्स प्रिंसेप ने 1820-1830 के बीच प्रोजेक्ट “विश्वेश्वर के प्राचीन मंदिर की योजना” के अंतर्गत जो नक्शा तैयार किया था, उसमें कहीं भी मस्जिद का ज़िक्र नहीं है। हर जगह, मंदिर बताया गया है और इस नक्शे के अनुसार, मंदिर प्रांगण के चारों कोनो पर तारकेश्वर, मनकेश्वर, गणेश और भैरव मंदिर दिख रहे है। बीच का हिस्सा गृभगृह है जहां शिवलिंग स्थापित है और उसके दोनो तरफ शिव मंदिर भी दिखते हैं।

और जो बिंदीदार रेखा है, इसके बारे मे कहा जाता है की ये आज की मस्जिद की सीमा रेखा है। पुराने नक्शे मे आपको शिवलिंग दिखाया जा रहा है। लेकिन, वर्तमान स्थिति में शिवलिंग, मस्जिद परिसर के अंदर दिखता है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है है कि नंदी मस्जिद की तरफ क्यों देख रहे हैं जबकि काशी विश्वनाथ मंदिर तो उनके पीछे स्थित है। नंदी तो सदैव शिवलिंग की तरफ ही देखते हैं।

श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

दावा यह भी किया जाता है कि जब औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने के बाद वहीं पर मस्जिद बनाने का फरमान दिया था तब मंदिर के गर्भगृह को ही मस्जिद का मुख्य कक्ष बनाने की योजना बनाई गई थी। इस योजना के अनुसार पश्चिम के दोनों छोटे मंदिर और श्रृंगार मंडप तोड़ दिए गए और गर्भगृह का मुख्य द्वार जो पश्चिम की तरफ था उसे चुन दिया गया। ऐश्वर्य मंडप और मुक्ति मंडप के मुख्य द्वार बंद कर दिए गये और मंदिर का यही भाग, मस्जिद की पश्चिमी दीवार बन गया। मंदिर की पश्चिमी दीवार को ऐसे ही टूटी स्थिति मे इसलिए रख दिया गया क्योंकि औरंगजेब चाहता था कि हिन्दू समाज को अपमानित महसूस करती रहे। मस्जिद के पीछे श्रृंगार गौरी की पूजा अभी भी की जाती है।

कोर्ट-कचहरी, कानूनी दावपेंच एक तरफ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट काशी-विश्वनाथ धाम एक तरफ। इसका पुनरुद्धार 800 करोड़ रुपए से ज्यादा की लागत से हुआ है। इसमें श्रद्धालुओं की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया है। प्राचीन मंदिर के मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए 5 लाख 27 हजार वर्ग फीट से ज्यादा क्षेत्र को विकसित किया गया है।

काशी-विश्वनाथ मंदिर का क्षेत्रफल पहले 3,000 वर्ग फीट था। लगभग 400 करोड़ रुपए की लागत से मंदिर के आसपास के 300 से अधिक निर्माणों को खरीदा गया। इसके बाद 5 लाख वर्ग फीट से ज्यादा जमीन में लगभग 400 करोड़ रुपए से ज्यादा की लागत से निर्माण किया गया।

काशी-विश्वनाथ शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक के रूप में प्रतिष्ठित है। मान्यता है कि उनकी स्थापना किसी व्यक्ति या देवता द्वारा नहीं हुई बल्कि यहां पर उनका स्वयं प्राकट्य हुआ है। काशी में महादेव साक्षात् रूप में वास करते है। कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ के मंदिर का निर्माण 11वीं सदी में राजा विक्रमादित्य ने करवाया था।  यहां पर भगवान शिव वाम रूप में मां भगवती के साथ विराजमान हैं।

मान्यता है कि काशी, बाबा भोले के त्रिशूल पर टिकी हुयी है। प्रलय के समय भी इस नगरी का विनाश नहीं होगा। 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ मणिकर्णिका भी यहीं काशी में स्थित है। यहां देवी के दाहिने कान की मणि गिरी थी।

श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर के दर्शन और गंगा में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा तट पर नित्यप्रति सूर्यास्त के पश्चात् शंखनाद, घंटी, डमरू की आवाज और मां गंगा के जयकारे के बीच नयनाभिराम आरती होती है। यह आरती 45 मिनट तक की जाती है। देश के कोने-कोने और विदेशों से आए श्रद्धालु-पर्यटक गंगा आरती करने और देखने आते हैं।

प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं, “बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।”

सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई अगस्त में तो वाराणसी जिला न्यायाधीश के यहां इसी 3 मई को है। तो, क्या अब अयोध्या के बाद काशी की बारी है! नंदी की प्रतीक्षा समाप्त होगी!!

और ये भी गजबः

काशी-विश्वनाथ धाम के पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण तकनीकी भूमिका निभाने वाले इन्नोवेटिव मोटिव मीडिया के डिप्टी सीइओ आलोकदीप बताते हैं कि ऐसी मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ के इस पावन धाम की रक्षा खुद काल भैरव कहते हैं, जिन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है, जिनके दर्शन के बगैर इस ज्योतिर्लिग की पूजा अधूरी मानी जाती है। वे कहते हैं कि महादेव के दर्शन के साथ रूद्रभिषेक पूजा का सुअवसर प्राप्त हो जाए तो सोने में सुहागा। ऐसे में काशी-विश्वनाथ धाम के गेट नंबर 2 से सटे श्री श्री सत्यनारायणजी व मां अन्नपूर्णा मंदिर में आलोकदीप के सहयोग से 16 श्रद्धालुओं के हमारे समूह को न केवल विश्राम का स्थान मिला बल्कि सामूहिक रूद्राभिषेक पूजन की दिव्य व्यवस्था का लाभ भी। 1887 में स्थापित इस मंदिर के न्यासी हैं ललित कुमार बागला।

 

श्रद्धालुओं को मालूम ज्ञानवापी का सच

रुद्राभिषेक के पीछे एक पौराणिक कथा है। कथा के अनुसार, भगवान ब्रह्मा अपने जन्म का कारण का जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे थे। तब भगवान विष्णु ने कहा कि आपकी उत्पत्ति मेरी नाभि से हुई है लेकिन ब्रह्माजी यह मानने को तैयार ही नहीं थे। इसलिए दोनो में भयंकर युद्ध हुआ। विष्णु और ब्रह्माजी के युद्ध से नाराज होकर भगवान रुद्र ने ज्योतिर्लिंग रूप में अवतार लिया। तब बिष्णुजी और ब्रहमाजी ने निश्चय किया कि जो कोई भी इसके अंतिम भाग को स्पर्श कर लेगा, वही परमेश्वर साबित होगा। तब ब्रह्माजी हंस बनकर लिंग के आगे के भाग को ढूंढने लगे और विष्णुजी वराह बनकर लिंग के नीचे की ओर ढूंढने लगे। हजारों सालों तक कोई भी उस लिंग का अंत ना पा सका। लिंग का आदि और अंत भगवान ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला तब दोनो ने हार मान ली। भगवान ब्रह्मा और विष्णु ने मिलकर लिंग का अभिषेक किया, तब भगवान शिव प्रसन्न हुए। तब से रुद्राभिषेक का आरंभ हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।