झूठ बोले कौआ काटे! हिंदुओं को बांटने की घटिया राजनीति!
समाजवादी पार्टी के नेता और रामचरित मानस पर बकैती करके पार्टी के अब महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य ने 16वीं शताब्दी के लोकप्रिय ग्रंथ या उसके रचयिता तुलसी दास पर कोई नया निशाना नहीं साधा है। बस, संदर्भ नया है। लोकसभा चुनाव के पहले हिंदू मतों को जातियों में लड़ा कर बांटना और अपना उल्लू सीधा करना। यही काम, जातिगत जनगणना के बहाने बिहार में कहीं नीतीश कुमार तो नहीं कर रहे?
स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस को लेकर कहा, ‘जिस दकियानूसी साहित्य में पिछड़ों और दलितों को गाली दी गई हो उसे प्रतिबंधित होना चाहिए।’ स्वामी प्रसाद के अनुसार, तुलसीदास के ग्रंथ की एक चौपाई है, जिसमें वह शूद्रों को अधम जाति का होने का सर्टिफिकेट दे रहे हैं। ब्राह्मण भले ही लंपट, दुराचारी, अनपढ़ और गंवार हो, लेकिन उसे पूजनीय बताया है, लेकिन शूद्र ज्ञानी, विद्वान हो फिर भी उसका सम्मान मत करिए। मौर्य ने कहा कि ‘अगर यही धर्म है तो ऐसे धर्म को मैं नमस्कार करता हूं। ऐसे धर्म का सत्यानाश हो, जो हमारा सत्यानाश चाहता हो।’
मौर्य के बयान के बाद आग में घी डालने का काम लखनऊ में स्वामी प्रसाद के समर्थकों द्वारा रामचरितमानस की प्रतियां फाड़ कर जलाने और पांव से रौंदने तथा पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह, रानीगंज के सपा विधायक आरके वर्मा सहित अन्य नेताओं ने समर्थन में बयान देकर किया। उधर, हनुमान गढ़ी के महंत राजू दास ने तो क्रुद्ध होकर मौर्य के खिलाफ फतवा जारी कर दिया। जबकि, संत समाज लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव और सपा का संपूर्ण बाहिष्कार के लिए यात्रा निकालने की तैयारी में है।
दूसरी ओर, एक अंग्रेजी समाचारपत्र से बातचीत में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि यह मुद्दा उन लोगों की ओर से उठाया जा रहा है, जो समाज में माहौल खराब करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जब हम ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट आयोजित करने वाले हैं, तब विकास और निवेश से लोगों का ध्यान हटाने के लिए वे इस तरह के बेकार के मुद्दों को उठा रहे हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने मौर्य का समर्थन करते हुए कहा कि वह सीएम योगी से यूपी के पूर्व मंत्री की ओर से संदर्भित छंदों का वास्तविक अर्थ पूछेंगे। जिस पर, सीएम ने कहा कि यह बुद्धि और समझ की बात है। किसी शब्द को किस बोली में लिखा गया है। किसी विशेष स्थान पर उस शब्द का अर्थ क्या है? यह समझने के लिए कम से कम पर्याप्त बुद्धि और तर्क होना चाहिए। हालांकि, बहुसंख्यक वर्ग के रोष को देखते हुए सपा ने मौर्य के बयान को निजी बता कर पल्ला भी झाड़ लिया है।
उधर, बिहार जाति जनगणना करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। दो चरणों में राज्य के सभी 38 जिलों में होने वाली जनगणना के 30 अप्रैल तक चलने की संभावना है। बिहार के सीएम नीतीश कुमार का दावा है कि यह जनगणना राज्य और देश के विकास के लिए फायदेमंद होगी। जबकि, डिप्टी सीएम और राजद नेता तेजस्वी यादव के अनुसार, जनगणना की कवायद सरकार को वैज्ञानिक रूप से विकास कार्य करने में सक्षम बनाएगी और यह राज्य की गरीब आबादी के हित में होगी। दूसरी ओर, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के प्रदेश प्रवक्ता प्रोफेसर डॉ विनीत सिंह ने सर्वेक्षण के तौर तरीके पर सवाल उठाते हुए कटाक्ष किया कि जो शिक्षक दिन में बच्चों को जातपांत के विरूद्ध नसीहत देंगे, वही घर पर जाकर जब जाति पूछेंगे तो क्या संदेश जाएगा।
झूठ बोले कौआ काटेः
गोस्वामी तुलसीदास को जात-पांत से कोई लेना देना नहीं था फिर भी उन पर जातिवादी होने का आरोप कालांतर से लगता रहा है। जबकि, वे भक्त कवि, संत महात्मा थे। भक्त, संत महात्माओं की कोई जाति नहीं होती है।
तुलसीदास ने संवत् 1631 में रामचरित मानस लिखनी शुरू की थी। संवत् 1633 के अगहन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी पर ये ग्रंथ पूरा हो गया। यानी इसे पूरा करने में 2 साल 7 माह और 26 दिन का समय लगा था। तो, लगभग सवा चार सौ वर्ष पूर्व लिखे गए इस ग्रंथ की विवादों में घसीटी गई चौपाई का संदर्भ और शब्दों का अर्थ समझना भी आवश्यक है।
“प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी सब ताड़ना के अधिकारी”
ये चौपाई उस समय कही गईं, जब समुद्र द्वारा श्रीराम का विनय स्वीकार न करने पर प्रभु क्रोधित हो गए और अपने तरकश से बाण निकाला। तब, समुद्र देव श्रीराम के चरणो मे आए और क्षमा मांगते हुये अनुनय करते हुए कहने लगे, ‘हे प्रभु, आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी….. और ये लोग विशेष ध्यान रखने यानि शिक्षा देने के योग्य होते हैं!
दरअसल, ताड़ना एक अवधी शब्द है, जिसका अर्थ पहचानना, परखना या रेकी करना! अवधी भाषा के जानकारों के अनुसार “ढोल यानि ढोलक, गवार यानि ग्रामीण या अनपढ़, शूद्र यानि वंचित वर्ग (तत्कालीन वर्ण व्यवस्था के अनुसार), पशु यानि जानवर, नारी यानि स्त्री, सकल मतलब पूरा या सम्पूर्ण, ताड़ना यानि पहचनाना या परख करना, अधिकारी यानि हक़दार” तो इस प्रकार इस पूरे चौपाई का अर्थ यह हुआ कि “ढोलक, अनपढ़, वंचित, जानवर और नारी, यह पांच पूरी तरह से जानने के विषय हैं।”
तुलसीदास इस चौपाई के माध्यम से यह कहना चाहते थे कि, ढोलक को अगर सही से नहीं बजाया जाय तो उससे कर्कश ध्वनि निकलती है अतः ढोलक पूरी तरह से जानने या अध्ययन का विषय है इसी तरह अनपढ़ व्यक्ति आपकी किसी बात का गलत अर्थ निकाल सकता है या आप उसकी किसी बात को ना समझकर अनायास उसका उपहास उड़ा सकते हैं अतः उसके बारे में अच्छी तरह से जान लेना चाहिए, वंचित व्यक्ति को भी जानकर ही आप किसी कार्य में उसका सहयोग ले सकते हैं अन्यथा कार्य की असफलता का डर बना रहता है, पशु के पास सोचने एवं समझने की क्षमता मनुष्य जितनी नहीं होती इसलिए कई बार वो हमारे किसी व्यवहार, आचरण, क्रियाकलाप या गतिविधि से आहत हो जाते हैं और ना चाहते हुए भी असुरक्षा के भाव में असामान्य कार्य कर बैठते हैं। अतः पशु को भी भली-भांति जान लेना चाहिए, इसी प्रकार अगर आप स्त्रियों को नहीं समझते तो उनके साथ जीवन निर्वहन मुश्किल हो जाता है यहां स्त्री का तात्पर्य माता, बहन, पत्नी, मित्र या किसी भी ऐसी महिला से है जिनसे आप जीवनपर्यन्त जुड़े रहते हैं, ऐसे में आपसी सूझबूझ काफी आवश्यक होती है।
वर्ण व्यवस्था तुलसी की स्वयं निर्मित की हुई नहीं थी। उनसे पहले वेदादिग्रंथों में वर्णव्यवस्था का प्रावधान पहले से था। वह व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर थी। परस्पर सभी वर्णों में सहयोगात्मक भाव लिए हुई थी। किसी को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं। बाद में वर्णव्यवस्था को जब जाति के आधार पर स्वीकार किया जाने लगा तो उसमें विकार अवश्य आ गया उसमें तरह-तरह की जातियां पैदा हो गईं। पर तुलसी ने जिस कर्म आधारित वर्णव्यवस्था का समर्थन किया है उसमें जाति-पांति, ऊंच-नीच भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। यदि ऐसा होता तो तुलसी के प्रिय पात्र राम शबरी के जूठे बेर नहीं खाते। भारद्वाज मुनि निषादराज को गले नहीं लगाते क्योंकि वह नीची जाति का था, भारद्वाज मुनि ऊंची जाति के थे।
तुलसी के ‘रामराज्य’ में भी छुआ-छूत, जातिवाद, भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। चारों वर्ण के लोग ‘राजघाट’ पर एक साथ स्नान करते थे- ‘राजघाट सब विधि सुंदर बर, मज्जहि तहाँ बरन चारिउ नर’।
भारत में 1872 में अंग्रेजों ने जनगणना की शुरुआत की, लेकिन जाति आधारित जनगणना सिर्फ और सिर्फ एक बार 1931 में ही हुई थी। अंग्रेज जिस तरह भारत को तोड़ने का कुचक्र रच रहे थे, कोई शक नहीं कि जाति जनगणना के विचार के पीछे भी देश तोड़ने की ही मंशा थी। इस तथ्य को आजादी के बाद सरदार पटेल ने भी समझा। आजादी के बाद जब 1951 की जनगणना की तैयारी हो रही थी, तब भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी, लेकिन पटेल ने इसे यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि ऐसा करने से भारत का सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा। यहां यह भी याद किया जाना चाहिए कि दूसरा विश्व युद्ध होने की वजह से साल 1941 में जनगणना हुई ही नहीं थी।
1950 का साल हो या फिर 1980 का या फिर आज का वक्त, जाति आधारित जनगणना की मांग को नामंजूर करने वाले गृहमंत्रियों का एक ही तर्क रहा है कि इससे सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा। संविधान के अनुच्छेद 14 में इसीलिए समानता को मूल अधिकार में शामिल किया गया। यह ठीक है कि आजादी के कुछ साल बाद तक के लिए जातीय आधार पर आरक्षण दिया गया। वैसे इसे अनंत काल तक लागू किए जाने के खिलाफ खुद डा. अंबेडकर भी थे। उनका भी लोहिया की तरह मानना था कि इस व्यवस्था से समाज में समानता आएगी और फिर किसी को विशेष दर्जा देने की जरूरत नहीं रहेगी, लेकिन इसके ठीक उलट हुआ। क्योंकि, जातियां राजनीति का नया हथियार बनती चली गईं।
मंडल आयोग के हिसाब से केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की संख्या 2633 है, लेकिन आरक्षण लागू होने के इतने दिनों बाद भी इस सूची में एक हजार से अधिक जातियां ऐसी हैं जिनके लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाया है। जातिवाद को बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा योगदान उस समाजवादी धारा के राजनेताओं का रहा है, जिसके नेता डा. राममनोहर लोहिया जाति तोड़ो का नारा देते थे। जदयू और राजद, दोनों पार्टियां सत्ता प्राप्त करने के लिए जातिगत समीकरणों पर ही ज्यादा भरोसा करती हैं। राजनीतिक जानकारों की मानें तो नीतीश कुमार जातिगत जनगणना करा कर ओबीसी वोटबैंक को साधने की कवायद में लगे हुए हैं तो वहीं राजद जनगणना करा कर ओबीसी वोटबैंक को और मजबूत करना चाहती है।
तो ले-देकर, चाहे रामचरित मानस पर कीचड़ उछालने का मामला हो चाहे जातिगत जनगणना का। नेताओं की नीति और नीयत में 2024 का लोकसभा चुनाव ही दिखता है। देश के लिए क्या यह ठीक है, विचार करना होगा।